Loading election data...

बजट में सार्वजनिक निवेश पर जोर कायम है

जवाहरलाल नेहरू की तमाम आलोचना करने के बावजूद भाजपा सरकार आर्थिक और विदेश नीति में नेहरू के रास्ते पर चल रही है. सरकारी निवेश पर दांव लगाने तथा भारत को ‘ग्लोबल साउथ की आवाज’ घोषित करने की मोदी की आवाज में नेहरूवादी गूंज है.‘

By डॉ संजय | February 9, 2023 8:07 AM

वित्त वर्ष 2022-23 के लिए सरकार की बजट रणनीति को बरकरार रखते हुए केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2023-24 के बजट में भी आर्थिक वृद्धि के संचालक के तौर पर सार्वजनिक निवेश पर अपना फोकस कायम रखा है. इसका व्यापक रूप से स्वागत हुआ है. राष्ट्रीय आय के आंकड़े दिखाते हैं कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में सकल सावधि पूंजी निर्माण की हिस्सेदारी 2008 से लगातार घट रही है.

वर्ष 2007 में यह 36 प्रतिशत के उच्च स्तर पर था, जो 2020 में 22 प्रतिशत हो गया. यह रुझान भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि की चुनौती के केंद्र में है. बीते एक दशक की औसत सालाना वृद्धि 2000-15 की औसत वृद्धि 7.5 प्रतिशत से कम रही है. उससे पहले यह आंकड़ा 1950-80 में 3.5, 1980-2000 में 5.5 और 2003-10 में आठ प्रतिशत से अधिक रहा था.

मोदी सरकार के दौर में वृद्धि दर प्रभावी नहीं रही है. बीते नौ वर्षों में सालाना औसत दर लगभग छह प्रतिशत और 2019-22 में तीन प्रतिशत रही है. अगर अगले दशक को ‘अमृत काल’ होना है, तो दर को 7-8 प्रतिशत के स्तर पर लाना होगा. इस सरकार के पहले कार्यकाल में समुचित निजी निवेश नहीं होने पर उसे आकर्षित करने के लिए पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कुछ कर छूट दिया था.

जेटली ने वित्तीय क्षेत्र की साफ-सफाई के लिए भी अनेक कदम उठाये थे. तभी अर्थव्यवस्था पर पहले नोटबंदी और फिर कोरोना महामारी का प्रहार हुआ. अनिश्चितता में कम मांग और निजी क्षेत्र का जोखिम लेने में हिचक जैसे कारक भी जुड़ गये. इसके फलस्वरूप 2019-22 में भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर महज तीन प्रतिशत के आसपास रही. फरवरी, 2022 में सीतारमण ने उस विचार, जिसे अर्थशास्त्री ‘नव-उदारवाद’ कहते हैं, के एक महत्वपूर्ण मंत्र को त्याग कर स्थिति को नियंत्रित करने की कोशिश की.

वह मंत्र यह था कि सार्वजनिक निवेश निजी निवेश को हाशिये पर डाल देता है. उस समय वित्त मंत्री का भाषण लिखने वालों ने नेहरू युग के अर्थशास्त्र की इस समझ को खोज निकाला कि सार्वजनिक निवेश से निजी निवेश को प्रोत्साहन मिलेगा. पचास के दशक में भारत की विकास रणनीति इसी समझ पर आधारित थी. तब समुचित संसाधनों का अभाव निजी निवेश में बाधक था, पर वर्तमान दशक में कई तरह के कारक- आर्थिक एवं राजनीतिक- निजी निवेश की राह रोक रहे हैं.

वित्त मंत्री ने पूंजी व्यय बढ़ाने की नयी रणनीति, जिसे मैंने ‘कैपिटल स्ट्राइक’ कहा है, इस आशा में अपनायी है कि इससे मांग बढ़ेगी और निजी निवेश प्रोत्साहित होगा. इसकी सकारात्मक प्रतिक्रिया हुई है और 2022-23 में अर्थव्यवस्था की बेहतरी में इसका योगदान रहा है. पर इस बेहतरी के साथ बहुत अधिक मुद्रास्फीति भी रही है. पिछले साल बजट के तुरंत बाद यूक्रेन पर रूस के हमले से कीमतें बढ़ीं और निवेशक हतोत्साहित हुए.

मुद्रास्फीति नियंत्रित करना और आर्थिक वृद्धि की अपेक्षाएं बढ़ाना इस साल वित्त मंत्री के लिए चुनौती हैं. इसके लिए उन्होंने राजस्व खर्च घटाने, वित्तीय घाटे पर गंभीरता बरतने जैसे उपाय अपनाया है. उन्होंने पूंजी व्यय बढ़ाया है ताकि आय वृद्धि की उच्च दर बनी रहे. रिजर्व बैंक ने भी मौद्रिक नीति के माध्यम से मुद्रास्फीति नियंत्रित करने के प्रयास में भागीदारी की है.

इस संतुलित प्रयास की प्रशंसा हुई है क्योंकि मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखते हुए निवेश चक्र को बढ़ाना आय, रोजगार, मांग और राजस्व वृद्धि के लिए आवश्यक है. आलोचकों ने रेखांकित किया है कि अगर बजट के वित्तीय आवंटन को सार्वजनिक क्षेत्र के पूंजी खर्च के साथ जोड़ा जाए, तो कुल पूंजी खर्च में मामूली वृद्धि ही हुई है.

आकलनों के अनुसार, इंफ्रास्ट्रक्चर खर्च में वृद्धि को सार्वजनिक क्षेत्र निवेश को घटाकर संतुलित किया गया है. इससे निर्माण में वृद्धि प्रभावित हो सकती है क्योंकि अधिकांश सार्वजनिक निवेश निर्माण में ही है. जवाहरलाल नेहरू की तमाम आलोचना करने के बावजूद भाजपा सरकार आर्थिक और विदेश नीति में नेहरू के रास्ते पर चल रही है.

सरकारी निवेश पर दांव लगाने तथा भारत को ‘ग्लोबल साउथ की आवाज’ घोषित करने की मोदी की आवाज में नेहरूवादी गूंज है.‘ग्लोबल साउथ की आवाज’ बनने की भारत की आकांक्षा तभी साकार हो सकती है, जब घरेलू अर्थव्यवस्था में हर तरह से वृद्धि हो और जैसा प्रधानमंत्री ने कहा है, वह वैश्विक वृद्धि का इंजन बने.

इसके लिए सड़क और रेलवे जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर में अधिक निवेश के साथ शिक्षा, विज्ञान और तकनीक जैसे सामाजिक इंफ्रास्ट्रक्चर में भी निवेश की जरूरत है. अंत में, गौतम अदाणी के कारोबारी व्यवहार पर हिंडनबर्ग रिसर्च के खुलासे के बाद बाजार पर पड़े असर पर सरकार का रुख भी भविष्य के लिए अहम साबित होगा.

सरकार को याद रखना चाहिए कि ‘नीतिगत रूप से ठिठके होने’ तथा क्रोनी पूंजीवाद के आरोपों के कारण 2012-14 में अर्थव्यवस्था को कीमत चुकानी पड़ी थी. सरकार की दायित्वपूर्ण प्रतिक्रिया और नियामकों द्वारा पारदर्शी कार्रवाई निवेशकों का भरोसा बहाल करने के लिए जरूरी है. ‘अच्छे दिन’ की जगह ‘अमृत काल’ कह देने भर से सकारात्मक आकांक्षाओं को बल नहीं मिलेगा.

Next Article

Exit mobile version