कुछ वर्षों से ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की तरह शहरी क्षेत्र में भी ऐसी व्यवस्था लागू करने के बारे में चर्चा होती रही है. आर्थिक विषमता और आमदनी में गिरावट की स्थिति में वंचित आबादी को न्यूनतम आय मुहैया कराने पर भी बहस होती रही है. प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद द्वारा जारी रिपोर्ट ‘भारत में विषमता की स्थिति’ में भी सुझाव दिया गया है कि शहरों में मांग पर आधारित रोजगार गारंटी योजना लागू की जाए, जिससे अधिशेष श्रम का उपयोग भी हो सके और कामगार तबके की आय में योगदान हो सके.
वर्ष 2016-17 की आर्थिक समीक्षा में तत्कालीन मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने प्रस्तावित किया था कि हर गरीब व्यक्ति को हर साल 7,620 रुपये दिया जाना चाहिए. इस प्रस्ताव का उद्देश्य तेंदुलकर समिति द्वारा निर्धारित गरीबी रेखा से वंचित आबादी को ऊपर उठाना था. आर्थिक सलाहकार परिषद की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सामाजिक क्षेत्र में बजट आवंटन बढ़ाया जाना चाहिए, जिससे निम्न आय वर्ग के लोगों को गरीबी की चपेट में आने से बचाया जा सके.
परिषद के सुझाव सराहनीय हैं और कई वर्षों से कई विशेषज्ञ इन पहलुओं पर जोर देते रहे हैं, जिनमें मैं भी शामिल हूं. रिपोर्ट में परिषद के प्रमुख बिबेक देबरॉय ने यह भी रेखांकित किया है कि यह अध्ययन कोई निष्कर्ष नहीं है, बल्कि विषमता की वर्तमान स्थिति का आकलन करने जा प्रयास किया गया है.
इससे यह संकेत भी मिलता है कि इन दोनों मसलों पर अभी आगे भी विचार-विमर्श जारी रहेगा तथा इनके तुरंत लागू होने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए. इस संबंध में सबसे पहले वित्तीय उपलब्धता सुनिश्चित करनी पड़ेगी. लेकिन इस रिपोर्ट से चर्चा आगे बढ़ेगी. मनरेगा का ग्रामीण क्षेत्र की अर्थव्यवस्था में उल्लेखनीय योगदान रहा है, इस तथ्य से सभी सहमत हैं.
अगर हम योजना के अब तक के पूरे इतिहास को भी न देखें, तो केवल महामारी के दौर में ही उसका महत्व बहुत अधिक रहा है. इस दौरान शहरी क्षेत्रों से गांवों की ओर वापस लौटे बड़ी संख्या में कामगारों को मनरेगा के तहत काम मिला, जिससे उन्हें राहत मिली. हालांकि शहरों में वे चाहे जो भी काम करते रहे हों, उनकी आमदनी मनरेगा से अधिक ही होगी, फिर भी तात्कालिक रूप से उन्हें सहायता मिली और वह अब भी जारी है.
इस दौरान केंद्र सरकार ने मुफ्त अनाज वितरण कार्यक्रम भी चलाया, जो इस साल सितंबर तक चलेगा. इससे कम आमदनी की कुछ हद तक भरपाई हुई तथा लगभग अस्सी करोड़ लोगों को खाने-पीने की चीजों की बड़ी महंगाई से बचाया जा सका.
लेकिन विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं में खर्च होने तथा सरकारी राजस्व में कमी तथा महामारी की रोकथाम के उपायों के कारण मनरेगा का आवंटन इस वर्ष कम करना पड़ा है. इससे इस योजना पर निश्चित ही असर पड़ेगा. वर्ष 2021-22 में ग्रामीण गारंटी योजना पर वास्तविक खर्च 98 हजार करोड़ रुपया हुआ था, पर 2022-23 के बजट में 73 हजार करोड़ रुपया ही आवंटित किया गया है. आर्थिक सलाहकार परिषद की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि सामाजिक कल्याण के लिए अधिक वित्त मुहैया कराया जाना चाहिए.
विभिन्न कारणों से अभी मुद्रास्फीति की गंभीर चुनौती है तथा अर्थव्यवस्था के भी संतोषजनक स्तर पर पहुंचने में कुछ साल लग जायेंगे. इस स्थिति में मुफ्त अनाज वितरण समेत कई अस्थायी कल्याण कार्यक्रमों की अवधि बढ़ानी पड़ सकती है. ये बातें इसलिए उल्लेखनीय हैं, क्योंकि अगर शहरों में रोजगार गारंटी देनी है या न्यूनतम आमदनी मुहैया करानी है, तो सबसे पहले लाभार्थियों की संख्या और योजनाओं के वित्तपोषण को लेकर ठोस समझदारी बनानी होगी.
न्यूनतम आमदनी की चर्चा में सबसे पहले गरीबी रेखा के बारे में विचार करना चाहिए. वर्तमान में हमारे पास इसके बारे में कोई आकलन नहीं है. साल 2014 में एक आकलन आया था कि ग्रामीण क्षेत्र में 972 रुपये और शहरी क्षेत्र में 1460 रुपये से कम आमदनी को गरीबी रेखा के दायरे में रखा जाना चाहिए. आम तौर पर विश्व बैंक के आकलन के आधार पर ही विचार रखे जाते हैं.
इसके अनुसार, ग्रामीण क्षेत्र में 1059 रुपये और शहरी क्षेत्र में 1286 रुपये की न्यूनतम आय सीमा आकलित है. सलाहकार परिषद में तेंदुलकर समिति का हवाला दिया गया है. उस समिति ने 2009 में अपनी रिपोर्ट दी थी. उसमें ग्रामीण क्षेत्र के लिए 816 रुपये और शहरी इलाके के लिए 1000 रुपये मासिक आय की सीमा निर्धारित की गयी थी, यानी इससे कम आय के लोग गरीबी रेखा से नीचे माने जाने चाहिए.
इनमें से किसी भी आंकड़े को देखें, तो अंदाजा लगा सकते हैं कि गरीबी रेखा से ऊपर के लोगों की स्थिति भी अच्छी नहीं है. विभिन्न अध्ययनों और सूचकांकों का संज्ञान लेते हुए यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि बीते सालों में आमदनी में कोई सुधार नहीं हुआ है. महामारी के दौर में तो गरीबी बढ़ी है और आमदनी में कमी आयी है. महंगाई ने स्थिति को और बिगाड़ दिया है.
रिपोर्ट की एक खास बात यह है कि इसमें यह कहा गया है कि हमें विषमता पर उतना ध्यान न देकर यह देखना अधिक जरूरी है कि गरीबी की क्या स्थिति है और उसके निवारण के लिए क्या किया जा सकता है. लेकिन ऐसा कर पाना संभव नहीं है क्योंकि विषमता लगातार बढ़ रही है तथा गरीबी बढ़ाने में वह भी एक कारक है.
रिपोर्ट में ही रेखांकित किया गया है कि देश के शीर्षस्थ 10 फीसदी लोगों के पास लगभग एक-तिहाई आमदनी जा रही है. इसका अर्थ यह है कि 25 हजार रुपये से अधिक आमदनी वाले लोग शीर्ष के 10 फीसदी में हैं. इसके बरक्स निचले तबके की आय में कमी आ रही है. साल 2016-17 की आर्थिक समीक्षा में जो प्रति व्यक्ति 7,620 रुपये सालाना देने का प्रस्ताव था, वह तेंदुलकर समिति के निष्कर्षों और सुझावों पर आधारित था.
उक्त समीक्षा में आकलन किया गया था कि इस राशि को देने से जो खर्च आयेगा, वह सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 4.9 प्रतिशत होगा. अरविंद सुब्रहमण्यम ने पद से हटने के बाद एक सुझाव दिया था कि ग्रामीण क्षेत्र में हर परिवार को 18 हजार रुपये हर साल देने चाहिए. इसमें उन परिवारों को शामिल नहीं किया गया था, जिनकी स्थिति ठीक है. अगर यह लागू किया जाए, तो उनके आकलन से इस पर 2.64 लाख करोड़ रुपये खर्च आयेगा. अब देखना है कि यह चर्चा किस दिशा में बढ़ती है.(बातचीत पर आधारित).