चाहे संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाएं हों या स्कूली परीक्षाएं, छात्राओं का निरंतर अच्छा प्रदर्शन उत्साहजनक परिघटना है. हमारे समाज में बहुत सारी ऐसी चीजें हैं, जिन्हें लड़के अपना सहज अधिकार मानते हैं. वही चीजें लड़कियों को बड़ी तपस्या और साधना से हासिल होती हैं. बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, ओडिशा या अन्य राज्यों से कोई लड़की पढ़ने के लिए दिल्ली या मुंबई या कहीं जाती है, तो वह उसके लिए उतना सहज नहीं होता, जितना उसके भाई के लिए हो सकता है.
ऐसी लड़की, जिसमें महत्वाकांक्षा हो, के मन में यह बात बैठ जाती है कि उसे स्वयं को साबित करना है. इसलिए वह बेहद मेहनत करती है और बेहतर ढंग से अपनी समझ को रखती है. दूसरी बात यह है कि स्त्रियों में मल्टीटास्किंग की एक नैसर्गिक क्षमता होती है. यह हम अपने घर में भी देखते हैं कि मां या अन्य प्रमुख महिला सभी कामों का ध्यान रखती है, सामाजिकता देखेगी और अगर पढ़ी-लिखी हो, तो अपने लिखने-पढ़ने का समय भी निकाल लेगी. इस क्षमता के साथ सामाजिक परिस्थितियों के कारण खुद को साबित करने की उनकी सोच उन्हें अद्भुत संकल्प और दृढ़ता प्रदान करती है.
किसी भी समाज में स्थितियों में परिवर्तन आता है, उससे उसकी सोच-समझ में भी बदलाव होता है. सौ साल से ऐसा हो रहा है. आजादी के बाद बदलाव आया. उदारीकरण के बाद तो इसमें बड़ी तेजी आयी है. इससे अवसर भी बढ़े हैं. हम संघ लोक सेवा आयोग और इस तरह की परीक्षाओं की बात कर रहे हैं, लेकिन अन्य क्षेत्रों के उदाहरण भी देखे जा सकते हैं. उदाहरण के लिए, बीपीओ सेंटरों में रात में भी काम होता है, लेकिन वेतन अच्छा है.
ऐसे में मध्यवर्गीय माता-पिता को भी लगता है कि अगर सुरक्षा ठीक है, तो लड़की को ऐसी जगह काम करने भेजा जा सकता है. इस तरह धीरे-धीरे वर्जनाएं टूट रही हैं. सामाजिक चेतना पर मैटेरियल कंडीशन का सूक्ष्म असर होता है. यह बात स्कूल से लेकर लोक सेवा परीक्षा और विदेश जाने तक हर जगह लागू होती है. इसे हम आज अपने चारों ओर देख सकते हैं.
लोक सेवा परीक्षा में हिंदी भाषी क्षेत्रों के विद्यार्थियों की उल्लेखनीय सफलता भी रेखांकित की जानी चाहिए. कुछ साल पहले जब संघ लोक सेवा आयोग परीक्षा के पाठ्यक्रम में बदलाव हुआ था, तो हिंदी भाषी इलाकों और हिंदी माध्यम के परीक्षार्थियों में बड़ा रोष था. उन्हें लगता था कि इस बदलाव से उनकी संभावनाओं पर प्रतिकूल असर पड़ेगा तथा अंग्रेजी माध्यम के छात्रों को बहुत लाभ होगा. उस समय मैंने इन बदलावों के पक्ष में एक लेख लिखा था, जिसे लेकर बहुत से लोग मुझसे नाराज भी हुए थे.
लेकिन मैं तब भी मानता था और अब भी मानता हूं कि समस्याएं हो सकती हैं और सरकार एवं संघ लोक सेवा आयोग को उन पर जरूर ध्यान देना चाहिए, लेकिन इक्कीसवीं सदी में अगर आप भारत सरकार के प्रशासनिक कार्यों का उत्तरदायित्व लेना चाहते हैं, तो आपको अंग्रेजी, अंकगणित और कंप्यूटर चलाने की बुनियादी जानकारी तो होनी ही चाहिए. शुरुआत में थोड़ी असुविधा रही, लेकिन अब जैसा दिख रहा है, इसे परीक्षा प्रक्रिया के लिए समुचित रणनीति का नतीजा कहें या कुछ और, कि इसके अच्छे परिणाम आ रहे हैं.
नयी प्रणाली के लागू होने के बाद कहा गया कि परीक्षा में तो तकनीक और इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों का जलवा है तथा हिंदी वाले एकदम पिछड़ गये हैं. सौभाग्य से इस साल के नतीजों में ये दोनों ही बातें टूटी हैं. इस बार शीर्षस्थ स्थान पाने वाली सभी लड़कियां मानविकी विषयों की छात्राएं हैं. हिंदी भाषी राज्यों को लें या हिंदी माध्यम के परीक्षार्थियों को, इस बार परिणाम बहुत अच्छे आये हैं. आगे यह और बेहतर होगा.
आप अगर यह समझ लें कि हिंदी में परीक्षा देने का मतलब अंग्रेजी और कंप्यूटर से पूरी तरह अनभिज्ञ रहना नहीं है तथा उस अनभिज्ञता पर गर्व करना तो कतई उचित नहीं है, तो फिर कोई रुकावट नहीं आयेगी. हिंदी भाषी इलाकों के छात्र-छात्राओं में प्रतिभा की कोई कमी तो है नहीं. लड़कियों का प्रदर्शन बेहतर हो रहा है, पर उनके लिए अभी भी चुनौतियां हैं. राजनीतिक, सामाजिक और बौद्धिक नेतृत्व का काम यह है कि वह समाज को खुलेपन, समानता और प्रगतिशीलता की तरफ ले जाये.
यह प्रयत्न सबको करना पड़ेगा. जहां भी लड़कियों को असुविधा या परेशानी होती है, वहां समाज को आगे बढ़कर उन्हें जगह देनी होगी. विशेष परिस्थितियों में क्या समाधान हो, उस पर चर्चा हो सकती है. मिसाल के तौर पर, यह विमर्श चल रहा है कि मासिक धर्म के दिनों में स्त्रियों को छुट्टी मिलनी चाहिए.
उन दो-चार दिनों में उन्हें कष्ट सहना पड़ता है. यह प्रकृति का विधान है. अगर उन्हें अवकाश मिले, तो वे आराम कर सकती हैं. मैं समझता हूं कि सरकारी और निजी क्षेत्र में छुट्टी का प्रावधान किया जाना चाहिए. इसी तरह हर जगह उन बाधाओं को दूर करने का प्रयास होना चाहिए, जिस कारण महिलाएं अपनी पूरी प्रतिभा एवं क्षमता का उपयोग नहीं कर पाती हैं.