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संविधान की प्रधानता सुनिश्चित रहे

लोकतंत्र में निर्बाध शक्ति नुकसानदेह है. कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों पर यह बात लागू होती है. यदि इस लड़ाई का सौहार्दपूर्ण समाधान नहीं हुआ, तो दोनों का भरोसा कमजोर होगा और अराजक माहौल बनेगा.

भारतीय लोकतंत्र में दो महत्वपूर्ण संस्थाओं के इरादों पर जिरह चल रही है. कौन न्यायाधीशों का आकलन करेगा? कौन सरकार को शासित करेगा? ये प्रश्न न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्ति संघर्ष को परिभाषित करते हैं. एक अपने अधिकार को बचाना चाहता है, तो दूसरा अपने अधिकार को थोपना चाहता है. अपनी इतिहास दृष्टि को आगे बढ़ाते सर्वदर्शी नेताओं के साथ सत्ता न्यायपालिका समेत सभी संस्थाओं पर अपने नियंत्रण के लिए प्रतिबद्ध है. परंपराएं, सावधानी और धैर्य की जगह कार्यकर्ता की आक्रामकता ने ली है.

असाधारण वकील रहे उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ समेत प्रमुख नेताओं ने न्यायिक संरचना को परिभाषित करने के न्यायाधीशों के अधिकार पर प्रश्न उठाया है. तो यह वर्तमान कोलाहल है क्या? भारत के प्रधान न्यायाधीश के नेतृत्व में तीन सदस्यीय कॉलेजियम उच्च न्यायालयों के जजों के कॉलेजियम द्वारा प्रस्तावित नामों में से भावी जजों का चयन करते हैं. सर्वोच्च या उच्च न्यायालय किसी नाम पर तब तक विचार नहीं करते, जब तक हर उम्मीदवार के बारे में केंद्रीय एवं राज्य एजेंसियों तथा अपनी आंतरिक व्यवस्था से प्रासंगिक जानकारी नहीं आ जाती.

शक्ति के विभाजन और संतुलन पर विचार करते हुए संविधान निर्माताओं ने ऐसी स्थिति के बारे में शायद ही सोचा होगा कि विधायिका और कार्यपालिका न्यायपालिका से अधिक शक्तिशाली हो जायेंगे. हाल के दिनों में कार्यपालिका की अत्यधिक शक्ति तथा विधायिका द्वारा अपनी सीमाओं का अतिक्रमण पर न्यायिक निर्णयों पर बेहद तीखी प्रतिक्रियाएं आती रही हैं, लेकिन कोई भी पक्ष लंबित मामलों की बढ़ती संख्या, बड़े पैमाने पर न्यायिक रिक्तियां, खर्चीली व खास विधिक व्यवस्था, संस्थागत शुचिता का लोप तथा ढहता अदालती इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे मसलों के लिए जवाबदेही तय करने की कोशिश नहीं कर रहा.

इसकी जगह विधायिका जजों के पदों को भरकर विचाराधारात्मक रूप से प्रतिबद्ध न्यायपालिका नियुक्त करना चाहती है. सरकार कार्यपालिका के कार्यक्षेत्र से संबद्ध मुद्दों पर न्यायपालिका की प्रभुता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, जो स्वयं वकील रहे हैं, ने कहा कि संसद द्वारा सर्वसम्मति से पारित ऐतिहासिक राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को न्यायिक रूप से स्थापित सिद्धांत ‘संविधान का बुनियादी ढांचा’ के आधार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रद्द कर दिया गया.

विश्व के लोकतांत्रिक इतिहास में ऐसी कोई अन्य परिघटना नहीं मिलेगी तथा यह जनादेश का उल्लंघन है. उनकी टिप्पणी राजनीतिक वर्ग तथा सिविल सोसायटी के एक हिस्से की सोच को प्रतिबिंबित करती है. कानून की पढ़ाई किये हुए कानून मंत्री किरेन रिजिजू का मानना है कि कॉलेजियम सिस्टम संविधान के अनुरूप नहीं है. उन्होंने चेताया है कि यह नहीं कहा जाना चाहिए कि सरकार फाइलों को लेकर बैठी हुई है.

अगर ऐसा है, तो अदालत फाइल न भेजे और खुद ही जजों को नियुक्त कर ले. इस पर सर्वोच्च न्यायालय नाराज हो उठा. रिपोर्टों के अनुसार, दूसरे सबसे वरिष्ठ जज संजय किशन कौल ने अटॉर्नी जेनरल आर वेंकटरमणी को कहा कि खबरों को तो उन्होंने अनदेखा किया है, पर ऐसा बयान उच्च पदस्थ व्यक्ति से आया है और जरूरत होने पर वे फैसला भी करेंगे.

एक सुनवाई के दौरान न्यायाधीश कौल और अभय एस ओका ने कहा कि सरकार न तो प्रस्तावित नामों को स्वीकार कर रही है और न ही अपनी आपत्ति बता रही है. नियुक्ति आयोग बनाने के 2014 के अधिनियम को रद्द करने के बाद से सर्वोच्च न्यायालय और सरकार में ठनी हुई है. इस कारण बड़ी संख्या में जजों के पद रिक्त हैं. वर्ष 1991 के पहले उच्च न्यायालयों के जज उनके मुख्य न्यायाधीशों द्वारा चुने जाते है, पर उन पर अंतिम मुहर राज्यपाल और मुख्यमंत्री लगाते थे और फिर वे नाम केंद्र के पास आते थे.

कार्यपालिका नामों को निरस्त कर सकती थी, जिसके कारण अवांछित और राजनीतिक संपर्क के लोग न्यायिक व्यवस्था में घुसपैठ कर सकते थे. प्रस्तावित नामों के बारे में खुफिया रिपोर्ट अक्सर मुख्यमंत्रियों, केंद्रीय कानून मंत्री और गृह मंत्री के कार्यालयों में बनती थीं ताकि पसंदीदा नामों को चुना जा सके और विरोधियों को बाहर रखा जाए. बाद में तीन अलग-अलग निर्णयों में सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यपालिका के अधिकारों को वापस ले लिया और कॉलेजियम की स्थापना कर दी.

साल 1998 से 2014 तक नेता न्यायपालिका के खिलाफ विधायिका और कार्यपालिका के अधिकार हड़पने का आरोप लगाते रहे, जब सर्वोच्च न्यायालय सरकार के नामों को खारिज करने लगा. साल 2014 में नरेंद्र मोदी की भारी जीत के बाद राष्ट्रीय आयोग का कानून लागू हुआ. विधिक समुदाय के बड़े हिस्से का मानना है कि सरकार का सिस्टम बदलने का विचार इस तथ्य से प्रेरित है कि 2024 तक सर्वोच्च न्यायालय के 32 में से 19 जजों की तथा आधे से अधिक उच्च न्यायालयों की रिक्तियों की भर्ती प्रधान न्यायाधीश डीवाय चंद्रचूढ़ के तहत होगी. कॉलेजियम में असहमति के कारण यूयू ललित के छोटे कार्यकाल में नियुक्तियां नहीं हो सकी थीं.

सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 124(ए) के संशोधन का मामला लंबित रखा है, जिसमें सरकार के आलोचकों को हिरासत में लेने का पुलिस को निर्बाध अधिकार है. चूंकि अगले दो साल में सरकार को अहम फैसले लेने हैं, तो नेताओं को लगता है कि ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि ऐसे जजों की नियुक्ति में जनप्रतिनिधियों की भी भागीदारी हो, जो बिना समुचित स्पष्टीकरण के कल्याणकारी योजनाओं और कानूनों को न रोकें.

सर्वोच्च न्यायालय को लगता है कि कानून निर्धारित करने का उसे अधिकार है, जबकि कार्यपालिका इसे विधायिका की शक्तियों का अतिक्रमण मानती है. विधायिका के पूर्ण वर्चस्व के खतरनाक परिणाम हो सकते हैं. निर्वाचित प्रतिनिधि विजयी दल को मिले 50 प्रतिशत से कम वोटों का प्रतिनिधित्व करते हैं. सर्वोच्च न्यायालय जैसी स्वतंत्र संस्था विधायिका के कामों का परीक्षण करती है तथा संवैधानिक शुचिता सुनिश्चित करती है.

कानून बनाने और लागू करने वालों की तुलना में शीर्षस्थ भारतीय न्यायपालिका के प्रति अधिक भरोसा और सम्मान है. लोकतंत्र में निर्बाध शक्ति नुकसानदेह है. कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों पर यह बात लागू होती है. यदि इस लड़ाई का सौहार्दपूर्ण समाधान नहीं हुआ, तो दोनों का भरोसा कमजोर होगा और अराजक माहौल बनेगा. न्यायपालिका को अपने धब्बों को धोना चाहिए, कार्यपालिका सन्थानों की प्रतिष्ठा बनाये रखे तथा न्यायपालिका विधायिका को अपनी बात कहने दे.

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