जब जोशीमठ उजड़ गया, तब एक साथ कई सरकारी और निजी संस्थाएं सक्रिय हो गयीं. आज विस्थापन ही एकमात्र हल दिख रहा है. यह कोई एक दिन में तो नहीं हुआ, कई सरकारी रिपोर्ट बेनाम पड़ी रहीं, जो बीते एक दशक से इस खतरे की तरफ आगाह कर रही थीं. आज नहीं तो कल, समूचे हिमालय पर्वतमाला में ऐसी त्रासदी आना अवश्यंभावी है. भारत में हिमालयी क्षेत्र का फैलाव 13 राज्यों व केंद्र-शासित प्रदेशों में है.
भारत का मुकुट कहे जाने वाले हिमाच्छादित पर्वतमाला की गोदी में कोई पांच करोड़ लोग बसे हैं. चूंकि यह क्षेत्र अधिकांश भारत के लिए जल उपलब्ध करवाने वाली नदियों का उद्गम है, यहां के ग्लेशियर धरती का तापमान नियंत्रित करते हैं, सो जलवायु परिवर्तन की दृष्टि से यह बेहद संवेदनशील है. कुछ साल पहले नीति आयोग ने पहाड़ों में पर्यावरण के अनुकूल पर्यटन विकास के अध्ययन की योजना बनायी थी.
इस अध्ययन के पांच प्रमुख बिंदुओं में पहाड़ से पलायन रोकने के लिए आजीविका के अवसर, जल संरक्षण और संचयन रणनीति को भी शामिल किया गया था. ऐसे रिपोर्ट आमतौर पर लाल बस्ते में दहाड़ा करती हैं और जमीन पर पहाड़ दरक कर कोहराम मचाते रहते हैं.
जून 2022 में गोविंद बल्लभ पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान द्वारा जारी रिपोर्ट में कड़े शब्दों मे कहा गया था कि हिमालयी क्षेत्र में बढ़ते पर्यटन के चलते हिल स्टेशनों पर दबाव बढ़ रहा है. जिस तरह से इस क्षेत्र में भूमि उपयोग में बदलाव आ रहा है, वह एक बड़ी समस्या है. जंगलों का विनाश भी क्षेत्रीय इकोसिस्टम पर व्यापक असर डाल रहा है.
यह रिपोर्ट नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेश पर पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को भेजी गयी थी. मनाली (हिमाचल प्रदेश) में किये गये एक अध्ययन से पता चला है कि 1989 में वहां जो 4.7 फीसदी निर्मित क्षेत्र था, वह 2012 में 15.7 फीसदी हो गया. आज यह आंकड़ा 25 फीसदी पार है. साल 1980 से 2023 के बीच वहां पर्यटकों की संख्या में 5,600 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गयी है.
इतने लोगों के लिए होटलों की संख्या भी बढ़ी, तो पानी की मांग और गंदे पानी के निस्तार का वजन भी बढ़ा. आज मनाली भी धंसने की कगार पर है, कारण वही जोशीमठ वाला- धरती पर अत्यधिक दबाव और पानी के कारण भूगर्भ में कटाव.
इस रिपोर्ट में लद्दाख की तरह कश्मीर क्षेत्र में भी पर्यटकों की आवाजाही, वायु गुणवत्ता और ठोस कचरे के प्रबंधन पर चिंता जताते हुए अमरनाथ और माता वैष्णो देवी की यात्रा करने वालों की बढ़ती संख्या के मद्देनजर कूड़ा प्रबंधन पर ध्यान देने की बात कही गयी थी.
हिमाचल प्रदेश को सबसे पसंदीदा पर्यटन स्थल माना जाता है. यहां जम कर सड़कें, होटल बनाये जा रहे हैं. साथ ही, बिजली परियोजनाएं भी संकट का कारक बन रही हैं. भूस्खलन की दृष्टि से किन्नौर जिला सबसे खतरनाक माना जाता है. बीते साल किन्नौर के बटसेरी और न्यूगलसरी में दो हादसों में 38 से ज्यादा लोगों की जान चली गयी थी. राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने विभिन्न एजेंसियों के माध्यम से सर्वेक्षण कर भूस्खलन संभावित 675 स्थल चिह्नित किये हैं.
इस साल बरसात में इस छोटे से राज्य में 131 करोड़ रुपये की सरकारी व गैर-सरकारी संपत्ति तबाह हुई, जिसमें सबसे ज्यादा सड़क और पुलिया थीं. राज्य का गौरव कहे जाने वाली शिमला की खिलौना रेल भी चार अगस्त, 2022 को बाल-बाल बची थी. हिमाचल प्रदेश में जलवायु परिवर्तन के चलते बादलों के फटने, अत्यधिक बारिश, बाढ़ और भूस्खलन के कारण प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं.
उत्तराखंड में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल यूनिवर्सिटी में भूविज्ञान विभाग के वाईपी सुंदरियाल के अनुसार, “उच्च हिमालयी क्षेत्रों में मेगा हाइड्रो-प्रोजेक्ट के निर्माण से बचा जाना चाहिए या फिर उनकी क्षमता कम होनी चाहिए.” उन्होंने कहा, “हिमालयी क्षेत्रों में सड़कों का निर्माण भी वैज्ञानिक तकनीकों से किया जाना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है.”
सतलुज बेसिन में 140 से अधिक ऐसी परियोजनाएं आवंटित की गयी हैं. इससे चमोली और केदारनाथ जैसी आपदाएं आने की पूरी संभावना हैं. इन परियोजनाओं को रोकना होगा. हालांकि उत्तर-पूर्व में हिमालय के आंचल में बसे राज्यों में अभी पर्यटन का अतिरेक हुआ नहीं है, फिर भी यहां अंधाधुंध खनन ने हिमालय को प्रभावित किया है.
कभी दुनिया में सबसे ज्यादा बरसात के लिए मशहूर चेरापूंजी में अब जल संकट रहता है. इन राज्यों में सबसे बड़ा खतरा बाढ़ और भूकंप से है. केंद्रीय जल आयोग के निदेशक शरत चंद्र के मुताबिक, हिमालयी क्षेत्र में शहरीकरण से मिट्टी की एकजुटता कम हुई है. इसका परिणाम बाढ़ के रूप में देखने को मिल रहा है. उन्होंने कहा हिमालयी प्रणाली बहुत नाजुक है, जिससे वह जल्द ही अस्थिर हो जाती है.
बारिश भी पहले की तुलना में अधिक हो रही है. इससे अचानक बाढ़ और भूस्खलन की घटनाओं में वृद्धि हुई है. भारत सरकार के जलवायु परिवर्तन से संबंधित सहकारी पैनल ने चेतावनी दी है कि 21वीं सदी में ग्लेशियर कम होंगे और हिमरेखा की ऊंचाई बढ़ेगी. हिमालयी राज्यों में यह बड़ा खतरा है.