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प्रकृति से बेहतर तालमेल मूलमंत्र हो

हमें भारतीय चिंतन को सामने लाना होगा और बताना होगा कि प्रकृति के साथ युद्ध नहीं, उसकी पूजा ही मानवता को बचाने का एक मात्र रास्ता है.

आज पूरा विश्व यदि किसी एक समस्या को लेकर चिंतित है, तो वह पर्यावरण की समस्या है. अगर हम भारतीय चिंतन में इसका समाधान ढूंढ़ें, तो अन्य की अपेक्षा बेहतर परिणाम सामने आयेंगे. पर्यावरण दो शब्दों- परि और आवरण- के मेल से बना है, जिसका अर्थ है- चारों ओर का घेरा. हमारे चारों ओर जो भी वस्तुएं, परिस्थितियां विद्यमान हैं, वे मानव-क्रियाकलापों को प्रभावित करती हैं और हम भी अपने चारों ओर के आवरणों से प्रभावित होते हैं.

इसी दायरे को हम पर्यावरण कहते हैं. यह दायरा आवास, गांव, मोहल्ला, नगर, प्रदेश, देश, महाद्वीप, ग्लोब अथवा संपूर्ण सौरमंडल का हो सकता है. पर्यावरण अनेक छोटे तंत्रों से लेकर अनेक विशाल तंत्रों का जटिल सम्मिश्रण है, इसीलिए वेदकालीन मनीषियों ने द्युलोक से लेकर व्यक्ति तक शांति की प्रार्थना की है. शुक्ल यजुर्वेद हमें निर्देशित करते हुए कहता है- ‘द्युलोक से लेकर पृथ्वी के सभी जैविक और अजैविक घटक संतुलन की अवस्था में रहें.

अदृश्य आकाश (द्युलोक) नक्षत्र युक्त दृश्य आकाश (अंतरिक्ष), पृथ्वी एवं उसके सभी घटक जल, औषधियां, वनस्पतियां, संपूर्ण संसाधन (देव) एवं ज्ञान संतुलन की अवस्था में रहें, तभी व्यक्ति शांत एवं संतुलित रह सकता है.’ संभवतः पर्यावरण एवं पर्यावरण संतुलन की इतनी वैज्ञानिक परिभाषा विश्व के किसी अन्य चिंतन में नहीं मिलेगी.

पर्यावरण जीवन का एक अभिन्न अंग है. जिस तरह मनुष्य को जीने के लिए रोटी, कपड़ा और मकान आवश्यक है, उसी प्रकार पर्यावरण भी अतिआवश्यक है. मनुष्य प्रकृति का पुत्र माना जाता है, प्रकृति के आंगन में वह बड़ा होता है. पर्वत, नदी, तालाब, शस्य श्यामला भूमि और सुवासित वायु हमारे जीवन को स्वच्छ और सुखद बनाते हैं. प्रकृति, प्राकृतिक संसाधन व पर्यावरण का प्रबंधन विकास की अवधारणा का मूल तत्व हो, तो विकास की विरासत दीर्घकाल तक अक्षुण्ण बनी रहेगी.

पर्यावरण का असंतुलित विकासवाद विनाश की विभीषिका की पटकथा की पृष्ठभूमि तैयार कर देता है. प्रकृति के अंदर छिपे गुढ़ रहस्यों की तह में जाने से बहुत सारी गुत्थियां सुलझ जाती हैं. ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि अमुक कार्य प्रकृति की अनुकूलता की दृष्टि से विपरीत होने के कारण प्रथमद्रष्टया कल्याणकारी होने के बावजूद भी न सिर्फ पर्यावरण, बल्कि मानव समुदाय के लिए भी हानिकारक साबित हुआ है.

ऐसे विकासात्मक परिमाणों को नियंत्रित करने की आवश्यकता है. प्राचीनकाल से प्रकृति हमारे लिए पूजनीय रही है, लेकिन आज हम पेड़ों को निर्दयता से काट रहे हैं तथा निजी स्वार्थ के लिए प्रकृति का विध्वंस कर रहे हैं, जबकि पौराणिक ग्रंथों ने प्रकृति को देवी रूप में प्रतिष्ठित किया है. हमारे वेद, पुराण, उपनिषद इस तथ्य के प्रमाण हैं कि हमने सदैव प्रकृति देवी की पूजा की है.

पीपल, तुलसी, नीम, बड़, खेजड़ी की पूजा आज भी अनेक समुदायों में की जाती है, जिसका धार्मिक एवं सांस्कृतिक ही नहीं, अपितु वेदांतिक महत्व भी है. आयुर्वेद के अधिष्ठाता धनवंतरि ने तो प्रकृति से प्राप्त जड़ी-बूटियों को समस्त असाध्य रोगों के निदान के लिए रामबाण औषधि समझा था. आंग्ल कवि वर्ड्सवर्थ ने प्रकृति की गोद में ही जीवन का परम सुख समझा था. रूसो ने ‘बैक टू दि नेचर’ का शंखनाद किया था. वस्तुतः प्रकृति के समस्त उपादान हमारे लिए श्रद्धेय ही नहीं, अपितु परम पूजनीय हैं.

भारतीय चिंतन में मनीषियों ने प्रकृति को मातृशक्ति और स्वयं को उसके पुत्र के रूप में माना है- माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः. वास्तव में ऋषियों ने संपूर्ण प्राकृतिक शक्तियों को देवस्वरूप माना है. वेदों में जल को आपो देवता नाम से संबोधित किया गया है. जल सतत प्रवाहमान है. यह शरीर को जीवन देता है. मिट्टी के साथ मिल कर वनस्पतियों को उगाता है. इससे अन्न पैदा होता है. जल ही पशुओं में दूध बनाता और फलों को रस प्रदान करता है. तैत्तिरीय उपनिषद में वर्णन है कि सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न से ही जीवित रहते हैं, अन्न से ही बल और तेज दोनों हैं, अन्न के बिना जीवन दुर्लभ है.

आदिवासी संस्कृति चिंतन तो प्रकृति पूजा पर ही आधारित है. यहां जन्म से लेकर मृत्यु तक के सारे संस्कार प्रकृति पूजा से प्रारंभ होते हैं. ऐसी प्रथाएं अन्य समाजों में भी हैं. वैदिक काल से आज तक शमी वृक्ष भारत में अपने विभिन्न गुणों के कारण पूज्य रहा है. राजस्थान में बिश्नोई समाज में शमी को विशेष तौर पर पूजते हैं. शमी के काटे जाने पर एक बार विश्नोई समाज ने प्रबल विरोध करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी.

जैन तीर्थंकरों को जिन वृक्षों की छाया के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई, उन्हें केवली वृक्ष कहा जाता है. गौतम बुद्ध के शब्दों में, ‘वृक्ष असीमित परोपकार वाली विलक्षण क्षमता का नाम हैं, यह अपने निर्वाह के लिए कोई मांग नहीं करता और पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ अपने जीवन-चक्र द्वारा उत्पादित सभी उत्पादों को दान कर देता है.

यह अन्य जीवों के साथ-साथ अपने काटने वाले, जो नष्ट करता है, को भी छाया अर्पित कर संरक्षण देता है.’ इस प्रकार हम देखते हैं कि उत्तर आधुनिक चिंतन ने दुनिया को तबाह कर दिया है. इसे ठीक करना है, तो हमें भारतीय चिंतन को सामने लाना होगा और बताना होगा कि प्रकृति के साथ युद्ध नहीं, उसकी पूजा ही मानवता को बचाने का एक मात्र रास्ता है.

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