Socio-Economic Life : मुझे जो श्रेय दिया जाता है, वह वास्तव में मेरा नहीं है. इसका कुछ श्रेय संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार सर बीएन राव को भी जाता है, जिन्होंने प्रारूप समिति के विचारार्थ संविधान का एक कच्चा मसौदा तैयार किया था. इसका कुछ श्रेय प्रारूप समिति के सदस्यों को भी जाता है, जिन्होंने, जैसा कि मैंने कहा, 141 दिनों तक बैठक की और नये-नये फार्मूले तैयार करने की उनकी चतुराई तथा भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों को सहन करने और समायोजित करने की क्षमता के बिना संविधान निर्माण का कार्य इतने सफल निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाता. इसका बहुत बड़ा श्रेय संविधान के मुख्य प्रारूपकार श्री एसएन मुखर्जी को जाता है.
जटिलतम प्रस्तावों को सरलतम और स्पष्टतम कानूनी रूप में प्रस्तुत करने की उनकी क्षमता और उनकी कड़ी मेहनत की क्षमता की बराबरी शायद ही कोई कर सके. वे संविधान सभा के लिए एक अमूल्य निधि रहे हैं. उनकी मदद के बिना, इस सभा को संविधान को अंतिम रूप देने में कई और वर्ष लग जाते. मैं श्री मुखर्जी के अधीन काम करने वाले कर्मचारियों का उल्लेख करना नहीं भूलूंगा. क्योंकि, मैं जानता हूं कि उन्होंने कितनी मेहनत की है और कितनी देर तक काम किया है, कभी-कभी तो आधी रात से भी ज्यादा. मैं उनके प्रयास और सहयोग के लिए उन सभी का धन्यवाद करना चाहता हूं.
वैधानिक महत्व का केवल एक बिंदु है, जिसका मैं उल्लेख करना चाहता हूं. इस आधार पर गंभीर शिकायत की गई है कि केंद्रीकरण बहुत अधिक है और राज्यों को नगरपालिकाओं में बदल दिया गया है. यह स्पष्ट है कि यह दृष्टिकोण न केवल अतिशयोक्ति है, बल्कि संविधान के उद्देश्य को लेकर गलतफहमी पर आधारित है. केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों के बारे में, उस मूल सिद्धांत को ध्यान में रखना आवश्यक है जिस पर यह आधारित है. संघवाद का मूल सिद्धांत यह है कि केंद्र और राज्यों के बीच विधायी और कार्यकारी अधिकार केंद्र द्वारा बनाए जाने वाले किसी कानून द्वारा नहीं, बल्कि संविधान द्वारा विभाजित किये जाते हैं.
संविधान यही करता है. हमारे संविधान के तहत राज्य किसी भी तरह से अपने विधायी या कार्यकारी अधिकार के लिए केंद्र पर निर्भर नहीं हैं. इस मामले में केंद्र और राज्य समान हैं. यह देखना मुश्किल है कि ऐसे संविधान को केंद्रवाद कैसे कहा जा सकता है. हो सकता है कि संविधान केंद्र को अपने विधायी और कार्यकारी अधिकार के संचालन के लिए बहुत बड़ा क्षेत्र सौंपता है, जितना कि किसी अन्य संघीय संविधान में नहीं पाया जाता है. हो सकता है कि अवशिष्ट शक्तियां केंद्र को दी गयी हों, न कि राज्यों को. लेकिन ये विशेषताएं संघवाद का सार नहीं हैं. जैसा कि मैंने कहा, संघवाद का मुख्य चिह्न संविधान द्वारा केंद्र और इकाइयों के बीच विधायी और कार्यकारी प्राधिकरण का विभाजन है. यह हमारे संविधान में सन्निहित सिद्धांत है. इस बारे में कोई गलती नहीं हो सकती. इसलिए, यह कहना गलत है कि राज्यों को केंद्र के अधीन रखा गया है. केंद्र अपनी इच्छा से उस विभाजन की सीमा को नहीं बदल सकता. न ही न्यायपालिका.
न्यायालय संशोधन कर सकते हैं, प्रतिस्थापित नहीं कर सकते. वे पहले की व्याख्याओं को संशोधित कर सकते हैं क्योंकि नये तर्क, नये दृष्टिकोण प्रस्तुत किए जाते हैं, वे सीमांत मामलों में विभाजन रेखा को स्थानांतरित कर सकते हैं, लेकिन ऐसी बाधाएं हैं, जिन्हें वे पार नहीं कर सकते, शक्ति के निश्चित असाइनमेंट जिन्हें वे पुनः आवंटित नहीं कर सकते. वे मौजूदा शक्तियों का व्यापक निर्माण कर सकते हैं, लेकिन वे एक प्राधिकरण को स्पष्ट रूप से दूसरे को दी गयी शक्तियों को नहीं सौंप सकते.
26 जनवरी 1950 को भारत इस मायने में लोकतांत्रिक देश होगा कि उस दिन से भारत में जनता की, जनता द्वारा और जनता के लिए सरकार होगी. मेरे मन में भी यही विचार आता है. उसके लोकतांत्रिक संविधान का क्या होगा? क्या वह इसे बनाये रख पाएगी या फिर इसे फिर से खो देगी. यह दूसरा विचार है जो मेरे मन में आता है और मुझे पहले विचार जितना ही चिंतित करता है.
26 जनवरी 1950 को, हम विरोधाभासों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं. राजनीति में हमारे पास समानता होगी और सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमारे पास असमानता होगी. राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देंगे. हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में, हम अपनी सामाजिक और आर्थिक संरचना के कारण, एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकारते रहेंगे. हम कब तक विरोधाभासों का यह जीवन जीते रहेंगे? हम कब तक अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे? अगर हम इसे लंबे समय तक नकारते रहेंगे, तो हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को खतरे में डाल देंगे. हमें इस विरोधाभास को जल्द से जल्द दूर करना होगा अन्यथा असमानता से पीड़ित लोग राजनीतिक लोकतंत्र की संरचना को नष्ट कर देंगे, जिसे विधानसभा ने कड़ी मेहनत से बनाया है.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस स्वतंत्रता ने हम पर बहुत बड़ी जिम्मेदारियां डाल दी हैं. स्वतंत्रता के साथ ही हमने किसी भी गलत काम के लिए अंग्रेजों को दोषी ठहराने का बहाना खो दिया है. अगर भविष्य में कुछ गलत हुआ तो हमें खुद को छोड़कर किसी को भी दोषी नहीं ठहराना होगा. चीजों के गलत होने का बहुत खतरा है. समय तेजी से बदल रहा है. हमारे सहित सभी लोग नई विचारधाराओं से प्रेरित हो रहे हैं. वे लोगों द्वारा सरकार से ऊब चुके हैं. वे लोगों के लिए सरकार बनाने के लिए तैयार हैं और उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह लोगों की सरकार है या लोगों द्वारा.
अगर हम उस संविधान को सुरक्षित रखना चाहते हैं जिसमें हमने लोगों की, लोगों के लिए और लोगों द्वारा सरकार के सिद्धांत को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया है, तो हमें संकल्प लेना चाहिए कि हम अपने रास्ते में आने वाली बुराइयों को पहचानने में ढिलाई न बरतें और जो लोगों को लोगों द्वारा सरकार के बजाय लोगों के लिए सरकार को प्राथमिकता देने के लिए प्रेरित करती हैं, न ही उन्हें दूर करने की हमारी पहल में कोई कमी रह जाए. देश की सेवा करने का यही एकमात्र तरीका है. मैं इससे बेहतर कोई तरीका नहीं जानता.