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एक जंतर-मंतर लड़कियों के भीतर भी

यौन शोषण एवं उत्पीड़न ऐसी बात हो गयी है कि जब तक कुछ बड़ा, कुछ असामान्य न हो जाए, तब तक मवाद अंदर ही अंदर बनता और सूखता है. जानते हैं, होता क्या है हमारे आसपास!

देश के कुछ खिलाड़ी दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना दे रहे हैं. यौन उत्पीड़न का मामला है. इस बारे में पढ़ कर बहुत कुछ जेहन में आया. पहला कि जिस व्यक्ति पर ये आरोप लगे हैं, उस पर अभी दोष साबित नहीं हुआ है, तो उस व्यक्ति के बारे में, घटना के बारे में क्या बोला जाए? कुछ बोला भी जाए या नहीं! पूर्वानुमान पर बहुत कुछ चलता है, सही भी होता है और गलत भी.

पर एक बात तो है कि यौन उत्पीड़न हो या अभद्र व्यवहार, यह सब खूब होता है. हमने अपने होशो-हवास में देखा है. यह ‘बात’ यूं ही नहीं हो गयी होगी. कई मिनट, कई घंटे, कई दिनों तक कुछ न कुछ किसी भी तरह से चलता ही रहता है- उस खिलाड़ी के साथ भी और उस खिलाड़ी के मन में भी. माफ कीजियेगा, वह खिलाड़ी नहीं, उसका देह औरत का है. वह मैदान में खेलते वक्त, ट्रॉफी लेते वक्त भले एक खिलाड़ी की तरह मानी जाए, पर ज्यादातर जगहों में नहीं. ध्यान दिलाना चाहूंगी कि इस समाज में पुरुष भी हैं, जिनमें से ज्यादातर सब को रौंद देना चाहते हैं.

औरत के शरीर से खिलाड़ी बनने के सफर के दौरान शरीर के साथ-साथ मन भी मजबूत हो रहे होंगे. और, इसी मजबूत मन के साथ वे जंतर-मंतर पर आयी होंगी. अनगिनत लड़कियों-औरतों के अंदर भी एक जंतर-मंतर जैसी जगह होती है, बस उस मन वाले जंतर मंतर पर समाज-इज्जत-डर जैसी छाया उन्हें कुछ बोलने नहीं देती है. होंठों से निकलने वाली आवाज को यह घाव अपने दर्द के आह की ओर खींच कर सारी आवाज खत्म कर देता है. मन के अंधेरे जंतर-मंतर में घर, स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, दफ्तर, पड़ोस- हर तरफ की औरतें एक विचलन-छोह के साथ विरोध में दिखाई देती हैं.

स्कूल की दो चोटी वाली सहेली को सात साल लगे यह बताने में कि उनके शिक्षक किस तरह से उनके शर्ट के कॉलर से हाथ डाल देते थे और कह देते कि तेरी चोटी बहुत अच्छी है. मेरी सहेली के गुस्से और अफसोस को डर ने ज्यादा ढक दिया. यह इतनी बड़ी बात थी कि उन्हें ‘विश्वास’ जैसा माहौल और जगह खोजने में सात साल लग गये और परिवार व सगे-संबंधियों में विश्वास के कोई तार न दिखे, जहां इस घाव को टांगा जा सके और उस पर बात हो सके. ऐसी अनंत कहानियां हैं, जहां उस ‘विश्वास’ को खोजना पड़ता है, जहां दुष्कर्म को एक सामान्य कर्म मान कर छोड़ दिया जाता है.

यौन शोषण एवं उत्पीड़न ऐसी बात हो गयी है कि जब तक कुछ बड़ा, कुछ असामान्य न हो जाए, तब तक मवाद अंदर ही अंदर बनता और सूखता है. जानते हैं, होता क्या है हमारे आसपास! ‘मेरे साथ तो उसने कुछ किया नहीं, तो क्यों रिएक्ट करना’ वाली मानसिकता ही कई संभ्रांत, इज्जतदार लोगों को इस मैले-कुचैले रंगों वाली आदतों के साथ हिम्मत देती है.

स्टाफ बाथरूम में कइयों को रोते देखा जाता है, कारण भी मालूम होता है, पर बस ‘अच्छा… हम्म… क्या करोगी’ कह कर हम सब सामाजिक बुनावट में व्यस्त हो जाते हैं. यूनिवर्सिटी में देखा है कि गाइड हो या शिक्षक सबके अपने इगो होते हैं, और वह सबके लिए नहीं होते, खास-खास लड़कियों के लिए होते हैं. यह भी आपस में मालूम होता है कि ‘कारण’ क्या है, पर विरोध क्यों करना, किसी की थीसिस रुक सकती है, कोई फेल हो सकता है, अगले सेशन में दाखिला रुक सकता है- यही डर ऐसे लोगों का हिम्मत बढ़ाता जाता है.

सामाजिक रूप से चारित्रिक दोष की पुष्टि हो चुकी होती है, पर दोषी के पुरुष साथियों की तरफ से उनके संबंध की घनिष्ठता में कभी कमी नहीं देखी गयी. प्रोफेशनल संबंध की बड़ी मजबूरियां होती हैं, यह कह कर लोग बच जा रहे हैं. पर नजदीकी संबंधों का क्या?

हमारे रिश्ते के चाचा अपने रिश्ते की भतीजी के साथ उसके बचपन से ही उसके शरीर से खेला करते थे. सब जानते थे, पर मार कौन खाता- भतीजी, जिसे मालूम भी नहीं था कि क्यों मारा जा रहा है. उस गंदे खेल के बावजूद दोनों परिवारों के संबंध अच्छे हैं. कई बरस बाद, जब किसी अन्य औरत द्वारा उनके दुष्कर्म का विरोध हुआ, तो बात आयी-गयी हो गयी. तब भतीजी वाली बात भी निकली, पर कहा गया कि संबंध खराब हो जाते, पर आज तक अच्छे संबंध हैं.

यही सब हिम्मत देता है उस चाचा जैसे लोगों को. हमने स्कूलों में, पड़ोस में, यूनिवर्सिटी में, दफ्तर में- सब जगह देखा है. खुद पीड़ित लड़कियां भी नहीं बोलतीं, लोग बोलने नहीं देते, जब तक कि स्थिति बदतर न हो जाए. मुझे नहीं मालूम, इस बार जंतर-मंतर से उठी बातें कहां तक जायेंगी, लेकिन हम देखते आये हैं कि लड़कियों को कुछ बड़े इज्जतदार लोग मिलते हैं, जो दूसरी लड़कियों को मरोड़ देना चाहते हैं, पर उनका क्या! पर इन सब के बाद भी इस बारे में बोलते रहना जरूरी है- मन के जंतर-मंतर से दिल्ली के जंतर-मंतर तक.

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