परंपरागत चिकित्सा का विस्तार
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में आयुष के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई है. इसे आगे ले जाने के लिए हमें हर संभव प्रयास करना चाहिए.
कोरोना महामारी में यह साबित हो गया है कि संक्रामक महामारियों में आयुर्वेद और सिद्ध, यूनानी आदि अन्य पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियां बहुत कारगर हैं. इसका कारण यह है कि इन पद्धतियों का आधार रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाना है. हमारे पास एंटीबायोटिक्स जैसी कोई चीज नहीं होती है. कोरोना संक्रमितों को जो दवाएं पश्चिमी चिकित्साशास्त्र के अनुसार दी गयीं, हमने देखा कि बाद में उन्हें वापस लेना पड़ा.
ऐसा इसलिए हुआ कि इन दवाओं की गुणवत्ता या उनके प्रभाव के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं थी. सदियों से उपयोग में लायी जा रहीं हमारी पारंपरिक औषधियों के असर के बारे में हमें पता है. इन दवाओं के लोकप्रिय होने का मूल कारण यही है. शोध से प्रमाण भी आ चुके हैं कि ये औषधियां शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती हैं. ऐसे में गुजरात में स्थापित हो रहे पारंपरिक औषधियों के विश्व स्वास्थ्य संगठन के वैश्विक केंद्र की स्थापना एक महत्वपूर्ण परिघटना है. पिछले कुछ समय में आयुष के क्षेत्र में सरकार द्वारा उठाये गये अनेक अहम कदमों की श्रेणी में यह यह अगला चरण है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के सामने आज मुख्य उद्देश्य यह है कि लोगों को रोगों से कैसे बचाया जाये, उन्हें वेलनेस कैसे दिया जाये. आयुर्वेद से बेहतर कोई ऐसी दूसरी पद्धति नहीं है, जिसमें खान-पान से लेकर जीवन शैली तक विवरण है. यह सब वैज्ञानिक मापदंडों पर आधारित है. इसकी उपादेयता को अगर हम जन-जन तक पहुंचायेंगे, तो रोगों को होने से पहले ही रोक लेंगे.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि आगामी 25 वर्ष में, जब हमारी स्वतंत्रता के सौ वर्ष पूरे हो जायेंगे, आयुर्वेद विश्व की चिकित्सा पद्धतियों में शिखर पर होगा. अभी जो मार्गदर्शन मिला है हमारी पारंपरिक पद्धतियों को, उससे ये भारत को वैश्विक पटल पर प्रमुखता से स्थापित करने में अहम भूमिका निभायेंगी. जिस प्रकार विश्व समुदाय ने योग को व्यापक तौर पर अपनाया है, उसी प्रकार एक दिन आयेगा, जब आयुर्वेद और अन्य भारतीय चिकित्सा पद्धतियों को भी स्वीकार किया जायेगा.
इन पद्धतियों ने पोषण को प्राथमिकता दी है. कुपोषण से वे लोग त्रस्त हैं, जो जंक फूड का सेवन कर रहे हैं. बहुत सारे लोग ऐसे हैं, जो वह खा रहे हैं, जो नहीं खाना चाहिए. उससे हमारे शरीर में असंतुलन आ रहा है, मोटापा जैसी बीमारी हो रही हैं और अन्य कई समस्याएं पैदा हो रही हैं. सरकार की ओर से राष्ट्रीय पोषण मिशन के तहत अनेक पहलें की जा रही हैं.
आयुर्वेद की मान्यता है कि आपको भोजन वही करना चाहिए, जो आपके क्षेत्र में उपलब्ध है. दक्षिण भारत का भोजन कोई उत्तर भारतीय या चीनी भोजन कोई भारतीय कभी स्वाद के लिए कर ले, तो अलग बात है, लेकिन अगर वह आदत बन जायेगी, तो आप निश्चित रूप से व्याधिग्रस्त हो जायेंगे. हमें कैसा, कितना, कब और क्या खाना चाहिए, इसके बारे में कई नियम आयुर्वेद में बताये गये हैं.
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान केवल कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन, मिनरल, विटामिन आदि के बारे में चर्चा करते हैं, लेकिन हमारी चिकित्सा पद्धतियां संतुलित आहार पर बल देती हैं. आधुनिक पद्धातियां एक प्रमाण पर निर्भर करती हैं कि जो दिखायी दे रहा है, वही सत्य है. परंतु हमारे यहां चार प्रमाण हैं. एक है आप्तोपदेश, जो हमारे आचार्यों व मनीषियों ने बताया है.
दूसरा प्रमाण है प्रत्यक्ष, जो भी हमें दिखायी दे रहा है. तीसरा है अनुमान प्रमाण, जैसे धुआं को देखकर आग का अनुमान लगाना. चौथा प्रमाण है युक्ति प्रमाण. इसे तब लागू किया जाता है, जब कोई विवाद या भ्रम की स्थिति पैदा हो जाती है. जो विज्ञान इन चार प्रमाणों के आधार पर स्थापित किया गया हो, उसकी तुलना उस विज्ञान के साथ हम नहीं कर सकते हैं, जो केवल प्रत्यक्ष प्रमाण पर ही आधारित है.
जब किसी भी विधा या ज्ञान-विज्ञान की धारा को उचित राज्याश्रय यानी शासन का सहयोग व समर्थन प्राप्त होता है, तभी वह विधा या धारा विकसित होती है. आज हमारे गांवों की बहुत बड़ी आबादी पारंपरिक पद्धति पर ही भरोसा करती है. वे लोग छोटी-मोटी बीमारियों के लिए चिकित्सक के पास नहीं जाते, बल्कि स्थानीय स्तर पर प्राप्त वस्तुओं और औषधियों से उपचार कर लेते हैं.
उदाहरण के लिए, पीलिया होने पर लोग पुनर्नवा की जड़ का सेवन करते हैं. ऐसी कई जड़ी-बूटियां हमारे आदिवासी क्षेत्रों से लेकर देश के ग्रामीण क्षेत्रों में उपयोग में लायी जाती हैं. किसी आपात स्थिति या गंभीर बीमारी की स्थिति में ही वे चिकित्सालय जाते हैं. राज्याश्रय से मेरा तात्पर्य यह है कि हमारे संस्थान सभी संसाधनों और सुविधाओं से संपन्न होने चाहिए.
चिकित्सकों के शोध व अनुसंधान के लिए उत्कृष्ट प्रयोगशालाओं की व्यवस्था की जानी चाहिए. आज हम सब यह जानते हैं कि आयुर्वेद केवल भारत की सीमाओं के भीतर सीमित नहीं रह गया है. जब हमें इसे वैश्विक स्तर पर स्थापित करना है, तो हमें इसकी गुणवत्ता को आधुनिक मापदंडों पर प्रमाणित करना होगा. ऐसा करने से ही समूची मानवता में इसकी स्वीकृति हो सकेगी.
परंपरागत चिकित्सा पद्धतियों के विकास के लिए नये संस्थान स्थापित करने के साथ पुराने संस्थानों को भी बेहतर बनाने पर ध्यान देना आवश्यक है. कार्य संस्कृति में सुधार भी जरूरी है. तमाम निजी मेडिकल कॉलेज खुले हुए हैं, पर उनमें शिक्षकों की कमी है. जब परीक्षण होता है, तो दिखाने के लिए चिकित्सकों को बुला लिया जाता है. ऐसे संस्थानों ने अच्छे चिकित्सक नहीं निकल सकते हैं.
ऐसे कॉलेजों के लिए जो मानक निर्धारित किये गये हैं, उनका कड़ाई से पालन सुनिश्चित किया जाना चाहिए. मेरा मानना है कि आयुर्वेद के समुचित विकास के लिए हमें जिला स्तर पर कम से कम एक उत्कृष्ट चिकित्सालय बनाना होगा, जहां शोध के साथ उपचार के लिए पंचकर्म चिकित्सा, क्षार सूत्र चिकित्सा, अग्निकर्म चिकित्सा और जलोका चिकित्सा की व्यवस्था भी होनी चाहिए.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में आयुष के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई है. इसे आगे ले जाने के लिए हमें हर संभव प्रयास करना चाहिए. उत्तर प्रदेश में भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मार्गदर्शन में आयुष को हर द्वार तक ले जाने के कार्यक्रम चल रहे हैं. अनेक राज्य भी ऐसे ही सकारात्मक प्रयास कर रहे हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन और विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संगठनों के साथ जुड़ने से हमारी चिकित्सा पद्धतियां संपूर्ण मनुष्यता के लिए कल्याणकारी सिद्ध हो सकती हैं.