वायु प्रदूषण से निपटने के लिए हों व्यापक प्रयास
भारत लगातार खराब वायु गुणवत्ता से जूझ रहा है जिसमें पीएम 2.5 की सांद्रता विश्व स्वास्थ्य संगठन के वार्षिक स्तर से भी 10 गुणा अधिक है. हमारे देश के करीब 1.36 अरब लोग पीएम 2.5 की उच्च सांद्रता की चपेट में हैं.
प्रदूषण के मामल में हमारा देश कीर्तिमान स्थापित कर रहा है. इसके चलते देश में लोग जानलेवा बीमारियों के चंगुल में आकर असमय मौत के मुंह में जा रहे हैं. सरकार के लाख दावों के बावजूद प्रदूषण पर कोई अंकुश नहीं लग पा रहा है. आइक्यू एयर की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, हमारा देश दुनिया के सबसे प्रदूषित देशों में शुमार है और वह दुनिया में तीसरे पायदान पर हैं. राजधानी दिल्ली दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी है. दरअसल, बढ़ता प्रदूषण जहां पर्यावरणीय चुनौतियों को और भयावह बना रहा है, वहीं आबादी के लिए स्वास्थ्य संबंधी जोखिम बढ़ाने में भी अहम भूमिका निभा रहा है, जिससे असमय होने वाली मौतों में बेतहाशा वृद्धि दर्ज हो रही है. इसके पीछे पीएम 2.5 कणों की महत्वपूर्ण भूमिका है, जिसका आकार 2.5 माइक्रोन के करीब होता है.
हवा में पीएम 2.5 की मात्रा 60 और पीएम 10 की मात्रा 100 होने पर ही उसे सांस लेने के लिए सुरक्षित माना जाता है. गैसोलीन, तेल, डीजल ईंधन, वाहनों का धुआं, कोयला, कचरा, पराली और लकड़ी के धुएं से पीएम 2.5 का उत्सर्जन अधिकाधिक मात्रा में होता है. अपने छोटे आकार के कारण ये फेफड़ों में आसानी से पहुंच जाते हैं. यह पीएम 10 से भी अधिक हानिकारक होते हैं. आइक्यू एयर की हालिया रिपोर्ट दक्षिण एशियाई देश भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के लिए एक गंभीर चेतावनी है, जिनकी जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा पर निर्भरता अधिक है. हालांकि हमारे देश में सौर ऊर्जा के उपयोग को सरकार न केवल बढ़ावा दे रही है, बल्कि उस पर राहत देकर जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम करने की कोशिश भी कर रही है. यदि भारत आने वाले 10 वर्षों में अपने हरित ऊर्जा लक्ष्यों को हासिल कर लेता है, तो देश की कुल ऊर्जा वृद्धि में सौर एवं पवन ऊर्जा की हिस्सेदारी दो-तिहाई तक पहुंच जायेगी और हम परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के स्थान पर स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों पर निर्भर होंगे.
परंतु फिलहाल हकीकत यही है कि भारत लगातार खराब वायु गुणवत्ता से जूझ रहा है जिसमें पीएम 2.5 की सांद्रता विश्व स्वास्थ्य संगठन के वार्षिक स्तर से भी 10 गुणा अधिक है. हमारे देश के करीब 1.36 अरब लोग पीएम 2.5 की उच्च सांद्रता की चपेट में हैं, जो डब्ल्यूएचओ द्वारा अनुशंसित वार्षिक स्तर- पांच माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर- से अधिक है. चिंता की बात यह भी है कि पेड़-पौधे भी तापमान वृद्धि के चलते सांस नहीं ले पा रहे हैं. जो पेड़ वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड को अवशोषित कर जलवायु परिवर्तन का सामना करने में सहायक थे, वे अब उसमें स्वयं को असमर्थ पा रहे हैं. हालिया शोध इसके प्रमाण हैं.
वायु प्रदूषण अब स्थायी समस्या बन चुका है. इससे जहां देश के लोगों की उम्र में 5.3 वर्ष की कमी आयी है, वहीं राजधानी दिल्ली के लोगों की उम्र में 11.9 वर्ष की औसतन कमी आयी है. शिकागो यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन अनुसार, पूरे भारत में एक भी जगह ऐसी नहीं है जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों पर खरी उतरती हो. यह भी कि हृदय संबंधी बीमारियों से औसत जीवन प्रत्याशा लगभग 4.05 वर्ष कम हो जाती है. जबकि बाल और मातृ कुपोषण से जीवन प्रत्याशा 1.8 वर्ष कम हो जाती है. देश के सबसे प्रदूषित उत्तरी क्षेत्र में 52.2 करोड़, यानी 38.9 प्रतिशत जनसंख्या वास करती है. यदि प्रदूषण का वर्तमान स्तर बरकरार रहता है, तो इस जनसंख्या की जीवन प्रत्याशा में डब्ल्यूएचओ के दिशानिर्देश के सापेक्ष औसतन आठ वर्ष व राष्ट्रीय मानक के सापेक्ष 4.5 वर्ष की कमी का खतरा है.
भारत में 67.4 प्रतिशत जनसंख्या ऐसी जगहों पर रहती है जहां भारत के स्वयं के बनाये मानक 40 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर से अधिक प्रदूषण है. कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के शोध से इसका खुलासा हुआ है कि बेहतर वायु गुणवत्ता से आत्महत्या की दर में भी कमी आ सकती है. यही नहीं, यदि आप वायु प्रदूषण के बीच दो घंटे भी रह लेते हैं तो आपके मस्तिष्क के कामकाज में गड़बड़ी उत्पन्न हो सकती है. अब यह स्पष्ट हो गया है कि जिस तरह वायु प्रदूषण का मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव पड़ता है, उसी तरह जंगल की आग से निकलने वाले धुएं का भी स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ता है. यह भी सच है कि खुले में हो रहे निर्माण और सड़कों की धूल से सांसों पर सबसे अधिक संकट है.
एम्स के श्वसन रोग विभाग के वरिष्ठ चिकित्सक डाॅ करण मदान का कहना है कि धूल में छोटे-बड़े दोनों तरह के प्रदूषक मौजूद होते हैं. बड़े आकार के प्रदूषक पीएम 10 की वजह से ऊपरी श्वसन तंत्र, आंख और नाक में जलन होती है, वहीं छोटे आकार वाले पीएम 2.5 अस्थमा, गले का संक्रमण, खांसी, त्वचा संबंधी बीमारी और ब्रोंकाइटिस का कारण बनते हैं. ये इतने छोटे आकार के होते हैं कि रक्त के माध्यम से शरीर के दूसरे हिस्सों में पहुंच जाते हैं. जिससे हृदय रोग का खतरा भी बढ़ जाता है.
इसमें दो राय नहीं है कि वायु प्रदूषण मानव स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा पर्यावरणीय खतरा बन चुका है. दिनोंदिन न्यूरोकाॅग्निटिव विकृतियां बढ़ने की घटनाएं भी सामने आ रही हैं. इसको देखते हुए नीति निर्माताओं द्वारा इस मामले में व्यापक स्तर पर प्रयास की जरूरत है, तभी स्थिति में कुछ बदलाव संभव है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)