फादर कामिल बुल्के: रामकथा के अप्रतिम अन्वेषक

इस पहल का उद्देश्य है कि क्लासरूम में पढ़ाई के साथ-साथ छात्रों की बाह्य जगत के लिए भी तैयारी होती रहे. पर इसके लिए आवश्यक है कि इंडस्ट्री और एकेडेमिया आपस में बातचीत करें, सहयोग करें.

By रवि दत्त | September 1, 2022 8:01 AM
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सन् 1935 में जब बेल्जियम से एक युवा ईसाई धर्म प्रचारक रांची पहुंचा, तो स्टेशन से मिशनरियों के आवासीय परिसर मनरेसा हाउस के समूचे रास्ते में अधिकतर संकेत-पट्ट अंग्रेजी में देख वह अचंभित हुआ. औपनिवेशिक भाषा के इतने व्यापक वर्चस्व से उसका आश्चर्य शीघ्र ही रोष में बदल गया. आगे चलकर वह युवा रामकथा के अप्रतिम अन्वेषक तथा हिंदी भाषा और भारत विद्या (इंडोलॉजी) के प्रकांड विद्वान फादर कामिल बुल्के के नाम से प्रसिद्ध हुआ.

बेल्जियम के रम्सकपेल में एक फ्लेमिश-भाषी परिवार में एक सितंबर, 1909 को जन्मे कामिल ने बचपन से ही अपनी मातृभाषा पर फ्रेंच भाषाई आधिपत्य देखा था. अपने विश्वविद्यालय में कामिल फ्लेमिश भाषा आंदोलन के अग्रणी कार्यकर्ता बने. पढ़ाई के बीच में उन्हें दिव्य संदेश की अनुभूति हुई और उन्होंने ईसाई मिशनरी बनने का निर्णय लिया. अपने धार्मिक प्रशिक्षण के प्रथम भाग की समाप्ति पर ब्रदर बुल्के ने भारत के छोटानागपुर क्षेत्र में सेवा करने की इच्छा जतायी.

वे जानते थे कि भारत में अंग्रेजी केवल एक भाषा, प्रतिष्ठा या वर्ग भेद का प्रतीक भर नहीं थी, अपितु यह स्वदेशी सांस्कृतिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक आधार को हटाकर एक विदेशी वैचारिक व्यवस्था स्थापित करने का अभियान थी. स्थानीय भाषाओं और इनमें अंतर्निहित ज्ञान प्रणाली के संरक्षण-पुनरुत्थान के उद्देश्य से कामिल ने आम लोगों की भाषा के माध्यम से उपनिवेशवाद को चुनौती देना अपना कर्तव्य माना.

इस प्रयास में उन्होंने हिंदी सीखना आरंभ किया और गुमला स्थित संत इग्नासियस विद्यालय में, जहां वे गणित और भौतिकी के शिक्षक थे, हिंदी की कक्षा में अपने ही विद्यार्थियों के सहपाठी बने. फिर हजारीबाग में पंडित बद्रीदत्त शास्त्री के निर्देशन में तुलसीदास की दो प्रमुख रचनाओं- रामचरितमानस और विनय पत्रिका- का अध्ययन किया.

बुल्के के अनुसार साहित्यकार, भक्त और परोपकारी के रूप में तुलसीदास अद्वितीय हैं, जिन्होंने भक्ति के प्रचार हेतु संस्कृत नहीं, बल्कि स्थानीय बोली में लिखा. उनकी भक्ति जटिल कर्मकांड पर नहीं, सुगम ईश्वरीय प्रेम और आम लोगों के नैतिक आचरण पर बल देती थी. ईसा मसीह, गोस्वामी तुलसीदास और हिंदी को बुल्के अपने जीवन का तीन प्रमुख आधार मानते थे.

नव अभिषिक्त फादर बुल्के ने हिंदी में औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने का निश्चय किया. कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्वाध्यायी परीक्षार्थी के रूप में स्नातक के बाद वे उच्च अध्ययन हेतु इलाहाबाद विश्वविद्यालय पहुंचे. एक यूरोपीय ईसाई पादरी को अतिउत्साही नौसिखिया मानकर हिंदी विभाग प्रमुख डॉ धीरेंद्र वर्मा ने उन्हें विनय पत्रिका के दो पदों की व्याख्या करने को कहा. उनकी व्याख्या को पढ़कर डॉ वर्मा ने उन्हें उसी क्षण नियमित छात्र के रूप में प्रवेश दे दिया.

डी लिट उपाधि हेतु फादर बुल्के ने ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’ विषय पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इतिहास में पहली बार देवनागरी में लिखा शोध प्रबंध प्रस्तुत किया, जो बाद में पुस्तक के रूप में छपी, जिसे भारत विद्या (इंडोलॉजी) की एक प्रतिनिधि रचना माना गया. धर्म प्रचारक के रूप में फादर बुल्के आम लोगों के कल्याण को समर्पित रहे और हिंदी के प्रचार-प्रसार को अपना कर्तव्य माना.

प्रकाशन के साथ ही बुल्के शब्दकोश भारत के हिंदी भाषी क्षेत्र के कार्यालयों, पुस्तकालयों और घरों में एक अनिवार्य संदर्भ ग्रंथ बन गया. वे पवित्र बाइबिल और अन्य प्रार्थनाओं को स्थानीय ईसाइयों के विश्वास के अनुरूप अनुवादित करने को दृढ़प्रतिज्ञ थे. दुर्भाग्यवश 1982 में नये विधान का अनुवाद पूर्ण होने से कुछ पहले उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और 17 अगस्त को वे दुनिया छोड़ गये.

आज जब हम धर्म, नस्ल और भाषा के आधार पर नये-नये मतभेदों के आविष्कार में जुटे हैं, तो सोचा जाना चाहिए कि आखिर क्यों एक ईसाई मिशनरी अपने धर्म पालन के साथ एक मध्यकालीन हिंदू भक्त-कवि का इतना निष्ठावान अनुयायी बना. फादर बुल्के ने ‘एक ईसाई की आस्था: रामकथा और हिंदी’ निबंध में लिखा: ‘तुलसी के इष्टदेव राम हैं और मैं ईसा को अपना इष्टदेव मानता हूं, फिर भी मैं हम दोनों के भक्ति भाव में बहुत कुछ समानता पाता हूं. अंतर अवश्य है- इसका एक कारण यह भी है कि मुझमें तुलसी की चातक-टेक का अभाव है.’ फादर बुल्के की दृष्टि में भक्ति का महत्व था- ऐसी भक्ति, जो संपूर्ण मानवता के लिए सार्वभौमिक और सर्वार्थ सिद्धिदात्री हो.

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