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भारत में नारीवाद और सावित्री बाई फुले

ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले सिंथिया फैरार से अत्यंत प्रभावित हुए, जो अमेरिका के बोस्टन से भारत आयी थीं और तमाम विरोधों के बाद भी बंबई के स्कूल में अनोखे तरीके से बालिकाओं को पढ़ा रही थीं

भारतीय संविधान ने प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य और निशुल्क बनाया है. सामान्य जन के लिए शिक्षा की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए यह महत्वपूर्ण प्रावधान किया गया है, लेकिन 19वीं शताब्दी में शिक्षा सामान्य जन की पहुंच से कोसों दूर थी. स्त्रियों और निम्न जातियों के लोगों को शिक्षा से दूर रखा जाता था. ऐसे समय में तीन जनवरी, 1831 में सतारा जिले के नयागांव में जन्मी सावित्रीबाई फुले ने शिक्षा के महत्व को समझा तथा महिलाओं और बालिकाओं के लिए शिक्षा को सरल और सहज बनाने की मुहिम चलायी.

भारतीय महिला विदुषियों में गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा, शची, घोषा के नाम बार-बार लिये जाते हैं, पर हाशिये की महिलाओं और उनके प्रयासों को नजरअंदाज किया जाता रहा है. इतिहास लेखन की परंपरा भी जाति, वर्ग और लिंग की अवधारणा से परे नहीं है. यहां भी महिलाओं के कार्यों को वर्णित करने में विभेद किया गया है. यह विभेद निम्न वर्ग की महिलाओं के साथ अधिक हुआ है और आज भी जारी है.

भारत में नारीवाद की पहली लहर 1850 से 1915 तक थी, जिसमें सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन के लिए अभियान चलाये गये. नारीवाद के विकास में पुरुष समाज सुधारवादियों के साथ-साथ सावित्रीबाई फुले की महत्वपूर्ण भूमिका है. भारत में स्त्री शिक्षा का औपचारिक इतिहास देखें, तो 1830 में पुणे के शनिवार वाडे में एक विद्यालय चलाया जाता था, जहां सात-आठ बालिकाएं अध्ययन करती थीं, जो उच्च तबके की थीं.

इसके पूर्व बंगाल में 1847 में नबीनकृष्ण मित्रा और कालीकृष्ण मित्रा ने बारासात (वर्तमान का 24 परगना) में एक प्राइवेट स्कूल खोला था. ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले सिंथिया फैरार से अत्यंत प्रभावित हुए, जो अमेरिका के बोस्टन से भारत आयी थीं और तमाम विरोधों के बाद भी बंबई के स्कूल में अनोखे तरीके से बालिकाओं को पढ़ा रही थीं. वर्ष 1848 में पुणे के बुधवार पेठ में सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले ने वंचित वर्ग के बच्चों के लिए एक विद्यालय आरंभ किया.

सावित्रीबाई फुले इसकी प्रथम शिक्षिका बनीं. फुले दंपत्ति ने 3 जुलाई, 1857 को पहले बालिका विद्यालय का शुभारंभ किया था. जहां एक ओर एक तबका था, जो नहीं चाहता था कि बालिकाएं शिक्षित हों तथा महिलाओं की सामाजिक हैसियत में बदलाव आये, वहीं जमीन देने वाले और सहयोग करने वालों की भी कमी नहीं थी. पहले बालिका विद्यालय की जमीन अन्ना साहब चिपलूणकर द्वारा दी गयी थी, जो प्रिविलेज तबके से होने के बावजूद फुले दंपत्ति का सहयोग कर रहे थे.

दूसरे विद्यालय के लिए जमीन फातिमा शेख ने उपलब्ध करवाया तथा शिक्षिका की जिम्मेदारी का निर्वहन भी किया. सावित्रीबाई फुले जब विद्यालय जाती थीं, तब उन पर कचरा, गोबर व पत्थर फेंके जाते थे. वैश्विक पटल पर भी महिलाओं की शिक्षा को लेकर काफी कुछ लिखा जा रहा था. इसके समानांतर भारत में फुले दंपत्ति द्वारा भी शिक्षा, खासकर महिलाओं की शिक्षा, को लेकर व स्त्री पुरुष समानता व अंधविश्वासों व कर्मकांडों से मुक्ति के प्रयास तथा सामाजिक कुरीतियों, बाल विवाह, जाति व्यवस्था, छुआछूत, पर्दा प्रथा के विरुद्ध भी संघर्ष किये जा रहे थे.

फुले दंपत्ति ने 1873 में ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की. महाराष्ट्र में वर्गीय चेतना के अधिक होने से यहां हुए सुधार कार्यक्रमों और सुधारकों को जानने व उनके सम्मान की परंपरा है. सावित्रीबाई फुले की जयंती को ‘शिक्षिका दिवस’ के रूप में मनाये जाने का राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का निर्णय अत्यंत महत्वपूर्ण है.

महाराष्ट्र में इसे ‘बालिका दिवस’ के रूप में मनाया जाता है. लेकिन महज दिवस के रूप में मनाने से वैसा सुधार नहीं होगा, जैसा फुले दंपत्ति या अन्य सुधारक समाज में चाहते थे. उनके सुधार कार्यक्रमों का विश्लेषण और उनको वर्तमान समय में लागू करने की आवश्यकता है ताकि समतामूलक समाज की स्थापना की जा सके, जो तर्क पर आधारित और विज्ञानपरक हो.

आज भी कई अदृश्य सावित्रीबाई फुले हैं, जो शिक्षा का अलख जगाये हुए हैं. हमें उन पर भी ध्यान देना चाहिए. शिक्षिकाओं के साथ हो रही परेशानियों और भेदभाव को भी समझा जाना आवश्यक है. कई महिलाएं अपने बच्चों के सुरक्षित भविष्य के लिए मजदूरी करती हैं, दूसरे के घरों में काम करती हैं, अन्याय और शोषण भी सहती हैं. सावित्रीबाई फुले को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम अपने आस पास की महिलाओं में सावित्रीबाई फुले के गुणों को देखें और उन्हें सम्मानित करें ताकि अन्य महिलाओं को भी साहस मिले. (ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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