वित्तीय स्थिरता और बैंकों की स्वायत्तता

ऋण अदायगी के लिए आसान तरलता, मौद्रिक सहजता और उदार अधिस्थगन (मॉरेटोरियम) जैसे उपायों के बावजूद आरबीआइ सकल एनपीए अनुपात में वृद्धि की उम्मीद कर रहा है.

By अजीत रानाडे | August 6, 2020 1:42 AM

डॉ अजीत रानाडे, अर्थशास्त्री एवं सीनियर फेलो तक्षशिला इंस्टीट्यूशन

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पिछले हफ्ते केंद्रीय बैंक के दो पूर्व वरिष्ठ बैंकरों की पुस्तकें प्रकाशित हुईं. भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल की पुस्तक ‘ओवरड्रॉफ्ट’ आयी है, जो भारतीय बचतकर्ताओं पर केंद्रित है. यह बहुप्रतीक्षित पुस्तक ऐसे व्यक्ति की है, जो अपने कार्यकाल के दौरान बहुत मितभाषी रहे. प्रकाशन के एक हफ्ते के भीतर ही यह पुस्तक कथेतर साहित्य की सूची में उच्च स्थान पर दाखिल हो गयी. इसकी चर्चाएं थीं, क्योंकि दिसंबर, 2018 में अचानक आरबीआइ को छोड़ने के बाद उर्जित पटेल सार्वजनिक तौर पर चुप और लगभग अदृश्य से हो गये थे. दूसरी पुस्तक आरबीआइ के पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य की आयी है, जिन्होंने छह महीने बाद ही निर्धारित कार्यकाल पूरा किये बगैर पद छोड़ दिया था.

‘क्वेस्ट फॉर रिस्टोरिंग फाइनेंशियल स्टेबिलिटी इन इंडिया’ नाम से प्रकाशित उनकी पुस्तक उनके लेखों और व्याख्यानों का संग्रह है, जिसमें एक लंबी भूमिका लिखी गयी है. दोनों ही अधिकारी बैंकिंग व्यवस्था की सुधार के लिए तत्पर रहे. पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने अपने कार्यकाल में सुधार व्यवस्था को कई स्तरों पर जारी रखा था. आरबीआइ के पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल रघुराम राजन के डिप्टी भी रहे. कुल मिला कर इन दोनों की छवि ज्यादा अकादमिक, बेजोड़ बौद्धिक और तंत्र से बाहरी की रही, जिनमें लचीलापन नहीं था.

आचार्य निशाने पर थे, क्योंकि पटेल के अचानक जाने से कुछ महीने पहले ही उन्होंने विवादास्पद व्याख्यान दिया था. इसमें उन्होंने केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता के महत्व पर जोर दिया था. इस मशहूर भाषण को उन्होंने एक गंभीर चेतावनी के साथ खत्म किया था- जो सरकारें केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता का सम्मान नहीं करतीं, वे शीघ्र ही वित्तीय बाजार की चुनौतियों में उलझ जाती हैं.

एक दिन उन्हें एहसास होता है कि नियामक संस्था के महत्व को कैसे नजरअंदाज किया गया. नयी पुस्तक की प्रस्तावना में इसे दोहराया गया है कि इस दशक की शुरुआत में कैसे अत्यधिक मौद्रिक और ऋण प्रोत्साहन ने वित्तीय स्थिरता को खतरे में डाल दिया है. आचार्य ने यह भी कहा है कि आरबीआइ की स्वायत्तता को नजरअंदाज किये जाने के कारण ही गवर्नर पटेल ने समय से पहले पद छोड़ दिया था.

पटेल की पुस्तक में इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड प्रक्रिया के कमजोर किये जाने का विस्तृत विवरण है. उन्होंने इसकी शुरुआत फंसे कर्ज की समस्या के हल के लिए की थी. बैंकर और उधारकर्ता के बीच मामला-दर-मामला हल और बातचीत पर निर्भर रहने की बजाय, एक दिन का भी डिफॉल्ट किये बगैर ही आरबीआइ फंसे कर्ज के मामलों को आइबीसी प्रक्रिया में स्थानांतरित करने पर जोर दे रहा था.

फरवरी, 2018 के इस मशहूर परिपत्र ने काफी हलचल पैदा कर दी थी. कड़े नियम से डिफॉल्ट प्रमोटर के सामने अपनी कंपनियों से नियंत्रण खोने का जोखिम था. इससे बैंकों पर भी दबाव बनता कि वे आइबीसी प्रक्रिया में ऐसे मामलों को जाने से रोकें. इस परिपत्र को सर्वोच्च न्यायालय ने नामंजूर कर दिया. इसके बाद बैंकिंग व्यवस्था मामला-दर-मामला वाली व्यवस्था पर वापस आ गयी.

गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) मामलों के निस्तारण की दिशा में यह बड़ी असफलता थी. इसका मतलब था कि अगर एनपीए का हल नहीं किया गया, तो यह बढ़ेगा और ज्यादा पूंजी बैंकों की बैलेंसशीट को बिगाड़ेगी, यानी जब तक बैंकों में अतिरिक्त पूंजी नहीं डाली जायेगी, तब तक नये उधारकर्ताओं तथा नयी परियोजनाओं को नये ऋण जारी करने की क्षमता बाधित होगी. अत्यधिक एनपीए अनुपात का मतलब है कि बैंकों को ऋणों के छोटे हिस्से से ही लाभ कमाना पड़ेगा, यानी उसे ऊंची ब्याज दरों को लागू करना होगा.

वित्तीय स्थिरता पर आरबीआइ की रिपोर्ट से निष्कर्ष निकलता है कि भारतीय बैंकिंग का सकल एनपीए अनुपात चार प्रतिशत बिंदु तक बढ़ जायेगा, यानी मार्च, 2020 में जो 8.5 था, वह मार्च, 2021 में 12.5 प्रतिशत होगा. इसका मतलब हुआ कि इस वर्ष लगभग चार लाख करोड़ रुपये का कर्ज फंसने जा रहा है. यह महामारी और मंदी का साल है.

ऋण अदायगी के लिए आसान तरलता, मौद्रिक सहजता और उदार अधिस्थगन (मॉरेटोरियम) जैसे उपायों के बावजूद आरबीआइ सकल एनपीए अनुपात में वृद्धि की उम्मीद कर रहा है. कहीं यह गिरावट अपेक्षा से अधिक रही, तो आरबीआइ का अनुमान है कि यह अनुपात 14.7 प्रतिशत तक हो सकता है. ऐसा उच्च एनपीए अनुपात वित्तीय स्थिरता को गंभीर संकट में डाल सकता है.

चूंकि, तीन चौथाई भारतीय बैंकिंग सार्वजनिक क्षेत्र के अंतर्गत है, एनपीए बढ़ोतरी से बैंकों को पुनर्पूंजीकृत करने की आवश्यकता होगी. यह केंद्रीय वित्तीय संसाधनों से आयेगा, जो पहले से ही जीएसटी संग्रहण और आयकर राजस्व में गिरावट तथा राष्ट्रीय आय के सिकुड़ते आधार की वजह से संकट में है. वित्त तंत्र को अन्य मांगें पूरी करनी है- उद्यमों को लंबित भुगतान मंजूरी, गरीब परिवारों को नकद भुगतान, सहमति फार्मूले के आधार पर राज्यों को जीएसटी भुगतान आदि शामिल है.

बैंक की बिगड़ती बैलेंस शीट जमाकर्ताओं को परेशान कर सकती है, जिससे वे दूरी बना सकते हैं. इससे बैंक की तरलता पर गंभीर संकट आ सकता है. गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां भी बढ़ते एनपीए से जूझ रही हैं, जिससे नयी पूंजी डालना उनके लिए भी मुश्किल हो रहा है. इसका दूरगामी प्रभाव होगा, जैसा कि सितंबर, 2018 में आइएलएफएस संकट के दौरान देखा गया था. कायदे से बड़े बैंक और गैर-बैंक को बैंकिंग नियामक (जैसे आरबीआइ) की तरफ से अतिरिक्त निगरानी की आवश्यकता होती है, जिससे कि ऐसे आसन्न संकट से बचाया जा सके.

वित्तीय स्थिरता और जमाकर्ताओं के आत्मविश्वास को बहाल करने के उपाय आचार्य और पटेल की पुस्तक में शामिल हैं. इसमें बाजार अनुशासन (जैसे- एनपीए के लिए आइबीसी प्रक्रिया), शुरुआती जांच और डिफॉल्ट की पहचान करने के साथ-साथ अचानक झटकों से आरबीआइ की बैलेंस शीट को बचाने के तरीकों, पूंजी के उलट प्रवाह या आपातकालीन बचाव के तरीकों की बात कही गयी है. दोनों पुस्तकें और आरबीआइ की रिपोर्ट भारतीय अर्थव्यवस्था की वित्तीय स्थिरता के बारे में रिमाइंडर की तरह हैं.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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