Firaq Gorakhpuri: उन्होंने आत्ममूल्यांकन यूं किया था- ‘आने वाली नस्लें तुम पर फख्र करेंगी हम-असरो/ जब ये खयाल आयेगा उनको, तुमने ‘फिराक’ को देखा है’. उनका यह आत्मविश्वास यहीं तक सीमित नहीं रहता. वे एलान करते हैं- ‘गालिब’ ओ ‘मीर’ ‘मुसहफी’/हम भी ‘फिराक’ कम नहीं’. ऐसे में क्या आश्चर्य कि कभी दार्शनिक तो कभी खालिस शायराना नजर आने वाली उनकी शख्सियत को कोई आदिविद्रोही का नाम देता है, कोई पहेली का, तो कोई हमेशा धारा के विरुद्ध तैरने वाले हाजिरजवाब और तुनुकमिजाज का. उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले की गोला तहसील के बनवारपार गांव में उनका जन्म हुआ, तो मां-बाप ने उन्हें रघुपति सहाय नाम दिया था. उनके पिता मुंशी गोरख प्रसाद ‘इबरत’ वकील तो थे ही, शायर भी थे. फिराक की शायरी परवान तब चढ़ी, जब वे उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद गये.
उनके पिता ने स्कूल भेजने से पहले अरबी, फारसी, अंग्रेजी और संस्कृत की शुरुआती शिक्षा उन्हें खुद दी थी. साल 1917 में ग्रेजुएट होने के दो साल बाद 1919 में वे सिविल सर्विस के लिए चुन लिये गये थे, पर अगले ही साल उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने के ‘गुनाह’ में डेढ़ साल तक जेल में रहे थे. साल 1922 में छूटे और कांग्रेस के दफ्तर में अवर सचिव बने, पर वहां भी टिक नहीं पाये. अनंतर, 1930 में आगरा विश्वविद्यालय की एमए (अंग्रेजी) की परीक्षा में शीर्षस्थ होने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाना आरंभ किया, तो 1959 में सेवानिवृत्ति तक पढ़ाते रहे. इस बीच 1951-52 में लोकसभा का पहला चुनाव हुआ, तो जानें उन्हें क्या सूझी कि गोरखपुर डिस्ट्रिक्ट साउथ सीट से आचार्य जेबी कृपलानी की नवगठित किसान मजदूर प्रजा पार्टी के प्रत्याशी बन गये. उनकी जमानत जब्त हो गयी. इससे वे इस हद तक निराश हुए कि कुछ ही दिनों बाद एक भेंट में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने जब उनसे पूछा कि ‘रघुपति सहाय साहब, कैसे हैं आप?’, तो उनका जवाब था, ‘अब ‘सहाय’ कहां? अब तो बस ‘हाय’ रह गया हूं.’
जो फिराक 1952 में लोकसभा जाना चाहते थे, उन्होंने 1977 में राज्यसभा भेजने के इंदिरा गांधी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था. उनके व्यक्तित्व का एक और विरोधाभास यह है कि वे शायर उर्दू के थे, शिक्षक अंग्रेजी के. वे मानते थे कि इस देश में अंग्रेजी सिर्फ ढाई लोगों को आती है- उन्हें और डॉ राजेंद्र प्रसाद को पूरी, जबकि नेहरू को आधी. वे जिससे भी नाराज होते, उसे धाराप्रवाह गालियां देते थे. एक बार वे आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी से बात कर रहे थे, तो किसी प्रसंग में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी को गलियाना शुरू कर दिया और त्रिपाठी के यह कहने पर भी नहीं माने कि वे उनके गुरु हैं. अंततः त्रिपाठी को कहना पड़ा कि अब बस कीजिए, वरना मैं आपको ढेला मारकर भागूंगा और आप मुझे पकड़ नहीं पायेंगे. सेवानिवृत्ति के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने उन्हें बंगला खाली करने का नोटिस अंग्रेजी में भेजा, तो उन्होंने उसमें भाषा व वर्तनी आदि की गलतियां निकाल दीं. अपने छह दशक के साहित्यिक जीवन में कोई 40 हजार कविताएं, नज्में, गजलें, कतए, रूबाइयां लिखीं. जहां उन्होंने लिखा कि ‘इश्क तौफीक है, गुनाह नहीं’, वहीं मेहनतकशों की जिंदगी पर भी कलम चलायी.
साल 1969 में उन्हें मिला ज्ञानपीठ पुरस्कार उर्दू साहित्य के खाते में आने वाला पहला ज्ञानपीठ पुरस्कार था. इसकी घोषणा के बाद फिराक ने यह भी कह दिया था कि उर्दू गजल को हिंदुस्तान में आये अरसा हो गया, फिर भी उसमें यहां के खेत-खलिहान, समाज-संस्कृति, गंगा-यमुना और हिमालय नहीं दिखते. उनका मानना था कि उनकी शायरी में करुण और शांत रसों का जैसा संगम है, उनसे पहले उर्दू कविता में बहुत कम देखा गया है. 1968 में पद्म भूषण और 1970 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला. सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड से भी विभूषित हुए. एक बार इलाहाबाद के एक मुशायरे में किसी ‘कद्रदान’ ने उनकी गजल का मिसरा पूरा होने से पहले ही ‘वाह-वाह’ कर डाली, तो वे इतने उखड़ गये कि आयोजकों से कह दिया कि पहले इस बदतमीज को मुशायरे से निकालो, फिर गजल पढ़ूंगा. आयोजकों को झख मारकर ऐसा करना पड़ा. उन्होंने एक बार फिर अपने गमों को हमसफर बनाया- ‘मौत का भी इलाज हो शायद, जिंदगी का कोई इलाज नहीं’. तीन मार्च 1982 को दिल्ली में छियासी वर्ष की उम्र में जब उनका निधन हुआ, तो उनकी जो काव्य पंक्ति सबसे ज्यादा याद की गयी, वह थी- ‘गरज कि काट दिये जिंदगी के दिन ऐ दोस्त, वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में’.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)