राष्ट्रीय पशु के संरक्षण के निमित्त प्रारंभ की गयी राष्ट्रीय बाघ संरक्षण परियोजना (प्रोजेक्ट टाइगर) ने इस महीने अपनी सफलता के 50 वर्षों का सफर तय कर लिया. इस परियोजना की शुरुआत एक अप्रैल, 1973 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उत्तराखंड के जिम कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान से की थी. इसे धरातल पर उतारने में तत्कालीन केंद्रीय पर्यटन मंत्री डॉ कर्ण सिंह तथा ‘द टाइगर मैन ऑफ इंडिया’ के रूप में लोकप्रिय राजस्थान के वन अधिकारी कैलाश सांखला की भूमिका महत्वपूर्ण रही थी. वे क्रमशः प्रोजेक्ट टाइगर के प्रथम उपाध्यक्ष और प्रथम परियोजना निदेशक थे. भारत में ऐसी वन्यजीव संरक्षण परियोजना पहले नहीं चलायी गयी थी. इस परियोजना की सफलता की पुष्टि इस तथ्य से होती है कि 1973 में जहां देश में बाघों की संख्या महज 268 थी, वहीं पांच दशक बाद यह संख्या तीन हजार से अधिक हो चुकी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को 2022 में हुई गिनती के आंकड़ों को जारी किया है, जिसके अनुसार भारत में बाघों की संख्या 3167 है. उन्होंने इस अवसर पर इंटरनेशनल बिग कैट अलायंस के सम्मेलन का उद्घाटन भी किया. यह गर्व की बात है कि आज बाघों की कुल वैश्विक संख्या का लगभग 75 प्रतिशत हिस्सा भारत में है.
प्रोजेक्ट टाइगर का उद्देश्य, बाघों के पर्यावास में कमी लाने वाले कारकों की पहचान कर उस दिशा में सुधार की कोशिश करना तथा आर्थिक, पारिस्थितिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बाघों की आबादी को संरक्षित करना है. यह परियोजना ऐसे समय में अस्तित्व में आयी, जब विश्व वन्यजीव कोष बाघों को बचाने के लिए दुनियाभर में दस लाख डॉलर का कोष संग्रह कर रही थी. उसी क्रम में संस्था के तत्कालीन प्रमुख गाइ माउंटफोर्ड ने इंदिरा गांधी से मुलाकात कर बाघों को बचाने की दिशा में सक्रिय कदम उठाने का आग्रह किया था. इस सुझाव पर उन्होंने डॉ कर्ण सिंह की अध्यक्षता में एक टास्क फोर्स का गठन किया. इसके द्वारा अगस्त, 1972 में प्रधानमंत्री को सौंपी गयी रिपोर्ट में पहली बार प्रोजेक्ट टाइगर की रूप-रेखा सामने आयी थी. इसके अंतर्गत बाघों के संरक्षण के लिए मानव अशांति के सभी रूपों जैसे वनों की कटाई, वनोपज संग्रह, खनन, यातायात और पशु चराई को चरणबद्ध तरीके से रोकने तथा आठ संरक्षित क्षेत्रों के भीतर टाइगर रिजर्व बनाने की सिफारिश की गयी.
सरकार ने पहले आठ और बाद में सुंदरबन को शामिल कर नौ संरक्षित क्षेत्रों को आधिकारिक टाइगर रिजर्व घोषित किया. इनमें जिम कार्बेट टाइगर रिजर्व (उत्तराखंड), पलामू टाइगर रिजर्व (झारखंड), सुंदरबन टाइगर रिजर्व (पश्चिम बंगाल), बांदीपुर टाइगर रिजर्व (कर्नाटक), कान्हा टाइगर रिजर्व (मध्यप्रदेश), मानस टाइगर रिजर्व (असम), रणथंभौर टाइगर रिजर्व (राजस्थान), सिमलिपाल टाइगर रिजर्व (ओडिशा) तथा मेलघाट टाइगर रिजर्व (महाराष्ट्र) शामिल थे. समय के साथ टाइगर रिजर्वों की संख्या और उनका दायरा भी बढ़ाया गया. देश में अब तक 54 प्रोजेक्ट टाइगर रिजर्व स्थापित किये जा चुके हैं. इन आरक्षित क्षेत्रों को सभी मानवीय गतिविधियों से मुक्त रखा जाता है. इसमें पशुओं की चराई और लकड़ी काटने जैसे रोजमर्रा के काम भी प्रतिबंधित होते हैं. वन्यजीव संरचना में बाघ एक महत्वपूर्ण जंगली जाति है. बाघों की आहार शृंखला और पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन में बड़ा योगदान है. बाघों की घटती तादाद को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ ने अपनी ‘लाल सूची’ में 1969 में ही बाघ को ‘लुप्तप्राय’ श्रेणी में सम्मिलित कर उसके संरक्षण के प्रति दुनिया का ध्यान खींचा था.
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इस दिशा में 2010 में सेंट पीटर्सबर्ग में आयोजित पहले ‘अंतरराष्ट्रीय बाघ सम्मेलन’ का भी विशिष्ट महत्व रहा है. उस सम्मेलन में बाघों की बहुलता वाले भारत, बांग्लादेश, नेपाल, चीन, भूटान सहित 13 देशों ने 2022 तक अपने-अपने देश में बाघों की आबादी दुगुनी करने का संकल्प लिया था. सेंट पीटर्सबर्ग घोषणा की दिशा में भारत की प्रगति भी उल्लेखनीय रही है. वर्ष 2018 तक भारत इस लक्ष्य को पाने में 74 प्रतिशत तक सफल रहा था. वर्ष 2010 में भारत में 1706 बाघ थे. वर्ष 2014 में यह संख्या 2226 हो गयी. अब हमारे देश में 3167 बाघ हैं. देश में बाघों के संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए ‘राष्ट्रीय पशु’ का दर्जा दिया गया है. वर्ष 2006 में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की स्थापना के बाद देश में बाघों के संरक्षण की गति बढ़ी है. वर्ष 2006 की तुलना में 2018 में बाघों की संख्या दुगुनी हो गयी थी. उत्तर प्रदेश स्थित पीलीभीत टाइगर रिजर्व में चार साल के भीतर बाघों की संख्या 25 से बढ़ कर 65 होने की खबर उत्साहित करती है.
ऐसी कोशिशों से ही राष्ट्रीय पशु का अस्तित्व बचाने में कामयाबी मिल पायेगी. बाघों का संरक्षण वास्तव में प्रकृति का संरक्षण करना है. बाघ जंगल के ‘रक्षा कवच’ का काम करते हैं. उनके रहने से जंगलों की सुरक्षा होती है, जिससे हमें ऑक्सीजन, भोजन और दवाएं आदि अनवरत प्राप्त होते हैं. वनोन्मूलन, पर्यावास विखंडन, जलवायु परिवर्तन, शिकार और जंगलों में प्रवेश करती भौतिक विकास की प्रक्रिया ने बाघों का अस्तित्व खतरे में डाला है. अतः राष्ट्रीय पशु की सुरक्षा के लिए हर स्तर पर गंभीर होने की आवश्यकता है.