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गांधी की बातों पर ध्यान जरूरी

मरीचिका की तरह आधुनिकता की चमक उतरते जाने के साथ हमें यह संज्ञान हो रहा है कि हमारी आधुनिक वैश्विक जीवन शैली ने हमें निरंतर कमजोर ही किया है.

प्रो गीता धर्मपाल, शोध प्रमुख, गांधी रिसर्च फाउंडेशन, जलगांव

editor@thebillionpress.org

एक सदी से भी पहले महात्मा गांधी ने आह्वान किया था कि हमें आधुनिकता से मोहित नहीं होना चाहिए. कोरोना महामारी उत्तर-आधुनिक विश्व के लिए एक चेतावनी है और यह हमें 1909 में प्रकाशित ‘हिंद स्वराज’ में गांधी के विचारों को पढ़ने के लिए आमंत्रण है. इसमें उन्होंने आधुनिक युग को ‘नौ दिन’ का आश्चर्य कहा था तथा आधुनिकता के सभ्यता होने के दावे को बीमारी की संज्ञा देते हुए हमें इसका शिकार नहीं होने के लिए चेताया था. इसे एक भविष्यवाणी माना जाए या नहीं, पर वायरस के संक्रमण और मौतों की बढ़ती संख्या को देखते हुए गांधी द्वारा औपनिवेशिक उद्यम की वैधानिकता को चुनौती देने, जिसमें उन्होंने रेल को महामारियों को फैलाने का वाहन कहा था, अदालतों, आधुनिक चिकित्सा और अंग्रेजी शिक्षा की आलोचना करने के महत्व को समझा जाना चाहिए. बीसवीं सदी के शुरू में, जब साम्राज्यवादी आधुनिकता अपने चरम पर थी, गांधी की चेतावनियां अनसुनी कर दी गयीं.

क्या 21वीं सदी के तीसरे दशक की शुरुआत में अंतत: उनकी ‘बियाबान में चीख’ को सुना जायेगा, जब आधुनिकता खुद ही संकटग्रस्त हो चुकी है? आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक और सांकृतिक जीवन पर असर के साथ दूरी रखने, घर से काम करने, अपने को अलग रखने आदि जैसी चीजें अब नयी प्रवृत्तियां हैं. अचंभित राजनेता अपने राष्ट्रीय स्थायित्व को बचाने में लगे हैं, उन्हें कोई वैश्विक उपाय नहीं सूझ रहा है. मरीचिका की तरह आधुनिकता की चमक उतरते जाने के साथ हमें यह संज्ञान हो रहा है कि हमारी आधुनिक वैश्विक जीवन शैली ने हमें निरंतर कमजोर ही किया है (गांधीवादी दृष्टिकोण से कहें, तो शारीरिक रूप से भी और नैतिक दृष्टि से भी).

मुक्त व्यापार, सस्ती उड़ान और सोशल मीडिया ने हमें पहले से कहीं अधिक निकट लाया है, लेकिन ये हमें अधिक कमजोर भी बना रहे हैं. असल में, जैसे-जैसे हमारा समाज परिष्कृत होता गया है, हम वैश्विक संबंधों से जुड़ते गये हैं, उतना ही अधिक हम मशीनों और कंप्यूटरों पर निर्भर होते गये हैं और असुरक्षित होते गये हैं. और फिर एक संक्रामक विषाणु आता है और पूरे आधुनिक परदे को तार-तार कर देता है. इसीलिए गांधी द्वारा आधुनिकता को खोखला नौ दिन का अचंभा कहना मसीहाई भविष्यवाणी लगता है.

इतना ही नहीं, सोशल मीडिया के माध्यम से अफवाहों और फर्जी खबरों का वायरस से भी तेज फैलाव लोगों में व्यापक स्तर पर भय और बेचैनी पैदा कर रहा है. इन सबके शुरुआती शिकार भी भारत और दुनिया के अन्य विकसित हिस्सों के संभ्रांत ही हुए, जो खुद को प्राकृतिक विश्व और आधुनिक विज्ञान के स्वामी समझते हैं तथा अतुलनीय परिष्कृत, स्वतंत्र और आरामदायक युग में शानदार जीवन जीते रहे हैं. हम अक्सर यह दावा करते भी रहे हैं कि हमने बीमारियों पर जीत हासिल कर ली है, जीने की उम्र में बढ़ोतरी कर ली है, सीमाओं से परे जा चुके हैं और अपनी धरती को बदल चुके हैं. लेकिन अपनी शेखी में हम यह भूल गये थे कि मनुष्य होना कमजोर होना है. हमने प्रकृति पर जीत हासिल नहीं की है, हम इसलिए जीवित हैं क्योंकि प्रकृति ने हमें इसकी अनुमति दी है.

इतिहास से परिचित लोग जानते हैं कि सुरक्षा का हमारा बोध हमेशा ही एक भ्रम रहा है. लेकिन अब जब वास्तविकता हमारे आंखों के सामने है, तो अगर हम यह मानते हैं कि आधुनिक चिकित्सा प्रकृति के क्रोध से अपराजेय बचाव है, तो फिर हम मुगालते में हैं. यह मारक विषाणु जब करोड़ों वंचितों के जीवन पर खतरा बना हुआ है, तो इससे उत्तर आधुनिकता की शेखी के साथ इसके आपराधिक अन्याय पर से भी परदा उठा है. भारत में कोविड-19 का एक और अहम असर हुआ है- शहरी क्षेत्रों से थोपे गये लॉकडाउन की वजह से बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों के पलायन ने भूली-बिसरी आबादी की ओर ध्यान तो खींचा ही है, इसने आजाद भारत के सात दशकों में उनके साथ हुए मानवाधिकार हनन को भी सामने लाया है.

उनके कल्याण और उनके मानवीय सम्मान के प्रति चिंता का ऐसा अभाव गांधी के उस मंत्र की भावना के बिल्कुल उलट है, जो उन्होंने अपनी हत्या से कुछ समय पहले दिया था- ‘मैं तुम्हे एक जंतर (मंत्र) देता हूं. जब भी तुम्हे संदेह हो या तुम्हारा अहम तुम पर हावी होने लगे तो यह कसौटी अपनाओ, जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा, क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुंचेगा? क्या उससे वह अपने ही जीवन और भाग्य पर काबू रख सकेगा? यानी क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज मिल सकेगा, जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त… तब तुम देखोगे कि तुम्हारा संदेह मिट रहा है और अहम समाप्त होता जा रहा है.’

इस गंभीर समय में हम गांधी के उस महत्वपूर्ण प्रतीकात्मक आशंका की भी याद करें, जो उन्होंने पांच अक्टूबर, 1945 को जवाहरलाल नेहरू को लिखे पत्र में जाहिर की थी- ‘यूं तो पतंगा जब अपने नाश की ओर जाता है, तब सबसे ज्यादा चक्कर खाता है और चक्कर खाते-खाते जल जाता है. हो सकता है कि हिंदुस्तान इस पतंगे के चक्कर में से न बच सके. मेरा फर्ज है कि आखिर दम तक उसमें से उसे और उसके मार्फत जगत को बचाने की कोशिश करूं.’ गांधी की चेतावनियां हमें और चिंतित करने के बजाये हमें नयी सोच अपनाने के लिए प्रेरित करनेवाली होनी चाहिए, जो उनके प्रेरणादायक उदाहरण से मार्गदर्शन प्राप्त करे.

इसलिए नैतिकता के साथ समेकित आर्थिकी, राजनीति और तकनीक का उनका मार्ग, जिसमें दरिद्रनारायण का कल्याण मुख्य हो, इस चिंताजनक दौर में हमारे लिए दिशा-निर्देशक हो सकता है. त्वरित तौर पर हमें गांधीजी के प्राकृतिक चिकित्सा के सूत्रों को अपनाकर वायरस की रोकथाम के लिए प्रयासरतक होना चाहिए क्योंकि एलोपैथी में इसका कोई उपचार उपलब्ध नहीं है. हम घरों में बचाव के लिए सामग्री तैयार कर सकते हैं, साफ-सफाई पर ध्यान दें, सामदायिक स्वच्छता को बढ़ावा देन तथा अपने को अपने आस-पड़ोस तक सीमित रखें और लंबी यात्राओं व सभाओं से परहेज करें. संक्षेप में, स्वदेशी, स्वच्छता और सर्वोदय के गांधीवादी आदर्श हमारे लिए दिशा-निर्देश होने चाहिए.

(ये लेखिका के निजी विचार हैं़)

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