भारत में फुटबॉल को समुचित प्रोत्साहन मिले
राष्ट्रीय और राज्यों के स्तर पर फुटबॉल एसोसिएशन हैं. कुछ अकादमियों को कॉरपोरेट जगत से भी सहयोग मिलता है. अक्सर देखा गया है कि निम्न आय वर्ग के परिवारों से आये बच्चे फुटबॉल खेलते हैं. उनके लिए समुचित स्कॉलरशिप की व्यवस्था हो, तो वे प्रोत्साहित होंगे और खेल में अधिक मन लगा सकेंगे.
वैसे तो विभिन्न सभ्यताओं में फुटबॉल की तरह के खेलों का अस्तित्व प्राचीन काल से ही है, पर आधुनिक फुटबॉल का उद्भव उन्नीसवीं सदी में इंग्लैंड से माना जाता है, जो मध्यकालीन खेल का परिष्कृत रूप है. आज इसे दुनिया के सभी देशों में खेला जाता है तथा यह सर्वाधिक लोकप्रिय खेल भी है. संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इस वर्ष से हर 25 मई को विश्व फुटबॉल दिवस मनाने का जो निर्णय लिया है, वह बेहद सराहनीय है. इस अवसर से फुटबॉल को बेहतर बनाने में अवश्य मदद मिलेगी.
इस खेल की स्वीकार्यता और इससे लगाव का पता इस तथ्य से भी मिलता है कि महासभा में लीबिया द्वारा लाये गये प्रस्ताव के साथ 160 से अधिक देश जुड़े तथा 193 देशों के समर्थन से इसे पारित किया गया. विश्व फुटबॉल दिवस के रूप में 25 मई को चुनने का कारण यह है कि इसी दिन सौ साल पहले 1924 में पेरिस ओलिंपिक के फुटबॉल आयोजन में दुनिया के सभी क्षेत्रों को प्रतिनिधित्व मिला था.
उल्लेखनीय है कि पेरिस में ही 1900 में हुए ओलिंपिक में पहली बार फुटबॉल को शामिल किया गया था, लेकिन लंबे समय तक केवल पुरुष टीम ही भाग लेती थी. वर्ष 1996 में अटलांटा ओलिंपिक में महिला फुटबॉल को शामिल किया गया. फीफा का गठन 1902 में हुआ था, जो धीरे-धीरे फुटबॉल की वैश्विक संस्था बन गयी. यह एक दिलचस्प तथ्य है कि फीफा में 211 सदस्य हैं. यह संख्या संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों से अधिक है.
आधुनिक फुटबॉल की आधिकारिक नींव तब पड़ी, जब 1863 में इंग्लैंड में फुटबॉल एसोसिएशन का गठन हुआ, जिसने इस खेल के शुरुआती नियम बनाये. उसी दौर में भारत में तथा दुनिया के अनेक हिस्सों में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन अपनी जड़ें जमा रहा था. अंग्रेजों के साथ-साथ आधुनिक फुटबॉल भी भारत समेत कई देशों में आया तथा जल्दी ही एक लोकप्रिय खेल बन गया. हमारे देश में डूरंड कप सबसे पुराना टूर्नामेंट है, जो एशिया का भी सबसे पुराना फुटबॉल आयोजन है.
पहली बार इसका आयोजन शिमला में 1888 में हुआ था. इसके पुराने होने की बात करें, तो यह दुनिया का पांचवां सबसे पुराना राष्ट्रीय आयोजन है. इसके संस्थापक तत्कालीन भारत सचिव सर हेनरी मोर्टिमर डूरंड थे. लेकिन फुटबॉल की मजबूत शुरुआत कोलकाता से होने के कारण उसे भारत में फुटबॉल की राजधानी भी कहा जाता है. यह स्वाभाविक भी था क्योंकि अंग्रेजों की राजधानी भी वहीं थी. कोलकाता से मोहन बागान, ईस्ट बंगाल, मोहम्मडन स्पोर्टिंग जैसे क्लब शुरू हुए, जिनसे बड़े-बड़े खिलाड़ी निकलते रहे. आज छोटे-बड़े फुटबॉल क्लबों और अकादमियों की संख्या हमारे देश में 50 हजार से अधिक है.
मशहूर पुराने खिलाड़ियों में पीके बनर्जी, अरुण घोष, सैलेन मन्ना, तुलसीदास बलराम, मोहम्मद सलीम, पीटर थंगराज, मेवालाल, करीम, जरनैल सिंह जैसे नाम शामिल हैं. नयी पीढ़ी के खिलाड़ियों में सुनील छेत्री, सुब्रत पाल, बाइचुंग भूटिया, लालपेखलुआ, गुरप्रीत संधु, संदेश झींगन, टेलम सिंह, धीरज सिंह, प्रणय हलदर, कुमाम सिंह, आशिक कुरुनिया ने अपनी प्रतिभा से बड़ी लोकप्रियता हासिल की है. आजादी से कुछ पहले और कुछ बाद में हमारे देश में फुटबॉल की स्थिति अच्छी थी और हमारी राष्ट्रीय टीम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छाप छोड़ती थी. साल 1952 में हमने एशियाई खेलों में जीत हासिल की. देश में कई टूर्नामेंट होते थे और देशभर से प्रतिभाएं आगे आती थीं. लेकिन सत्तर के दशक से हम पीछे होते गये. हालांकि अब बहुत तरह के आयोजन हो रहे हैं और नयी प्रतिभाएं सामने आ रही हैं, पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हम पीछे हैं.
ओलिंपिक में नहीं जा सकने और विश्व कप के लिए लगातार क्वालिफाई नहीं कर पाने से हमारे मनोबल और आत्मविश्वास को झटका लगता चला गया. इसी के साथ-साथ क्रिकेट में विश्व कप जीतने और निरंतर उपलब्धियां हासिल करते जाने से क्रिकेट को अभूतपूर्व लोकप्रियता मिली और किशोरों-युवाओं का रुझान उस तरफ अधिक होने लगा. जो फुटबॉल के साथ हुआ, लगभग वैसा ही हॉकी के साथ हुआ. उसमें भी हम धीरे-धीरे पीछे होने लगे, जबकि एक लंबे समय तक हम हॉकी में अग्रणी देशों में होते थे. फुटबॉल ही नहीं, कई खेलों में वैश्विक स्तर पर अच्छा प्रदर्शन करने की क्षमता भारत में है. लेकिन अगर फुटबॉल के मैदान में हमें अपने गौरव को वापस लाना है, तो योजनाबद्ध तरीके से व्यापक प्रयास की आवश्यकता होगी. देश में वैसे तो फुटबॉल क्लबों और अकादमियों की अच्छी-खासी संख्या है, पर इन्हें संगठित करने और परस्पर सहयोग बढ़ाने पर ध्यान दिया जाना चाहिए.
जिलों और राज्यों के स्तर पर अकादमियों की स्थापना करना बहुत जरूरी है ताकि नयी प्रतिभाओं की पहचान हो सके और उन्हें समुचित प्रशिक्षण एवं मार्गदर्शन मिल सके. जिन पुराने खिलाड़ियों ने अपने राज्यों के लिए कभी अच्छा खेला है, उनकी सेवाएं ली जानी चाहिए. मशहूर खिलाड़ियों से नये खिलाड़ियों की भेंट कराने के आयोजन होने चाहिए. इससे उन्हें प्रेरणा मिलेगी. फुटबॉल के विकास में एक बड़ी चुनौती यह है कि हमारे देश में प्रशिक्षकों (कोच) की बड़ी कमी है. इस पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है.
यह भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि भले ही हमारे देश में विभिन्न खेलों में पैसा आया है, लोकप्रियता मिली है, पर समाज में खेल संस्कृति का अभाव है. इसके लिए सबसे जरूरी है कि खेल के मैदान पर्याप्त संख्या में हों. कई स्कूलों में खेल के मैदान और बुनियादी संसाधन नहीं हैं. पढ़ाई की बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने बच्चों से खेल का समय छीन लिया है. अभिभावकों एवं शिक्षकों को इस ओर ध्यान देना चाहिए. खेल-कूद केवल करियर नहीं होते, वे स्वस्थ रहने के लिए भी जरूरी हैं तथा खेलों से जीवन के लिए आवश्यक मूल्य एवं सीख हासिल होती है.
राष्ट्रीय और राज्यों के स्तर पर फुटबॉल एसोसिएशन हैं. कुछ अकादमियों को कॉरपोरेट जगत से भी सहयोग मिलता है. अक्सर देखा गया है कि निम्न आय वर्ग के परिवारों से आये बच्चे फुटबॉल खेलते हैं. उनके लिए समुचित स्कॉलरशिप की व्यवस्था हो, तो वे प्रोत्साहित होंगे और खेल में अधिक मन लगा सकेंगे. शिक्षा और खेल से संबंधित सरकारी अधिकारियों को बचपन और किशोरावस्था में ही प्रतिभाओं की पहचान करने के लिए कार्यक्रम बनाने चाहिए. ऐसी प्रतिभाएं अक्सर गांवों और दूर-दराज के इलाकों में होती हैं. खेल नीति में भी इस पहलू पर ध्यान देने की जरूरत है. इन प्रयासों में कॉरपोरेट जगत को भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना चाहिए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)