वर्षों से मुफ्तखोरी की सियासत चुनावी दंगल का अटूट हिस्सा रही है. चुनाव दर चुनाव राजनीतिक पार्टियां मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, बेरोजगारी भत्ते, स्कूटर, स्मार्टफोन, टेलीविजन जैसे अनेक अव्यावहारिक वायदे करती रही हैं. इसका राज्यों के बजट पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ता है. इन वायदों से लोगों की मूल जरूरतें पूरी नहीं होती. यह वोट बटोरने के लिए पार्टियों का आजमाया और परखा हुआ हथकंडा है. इससे सरकारी कार्यालयों में भ्रष्टाचार को बढ़ावा भी मिलता है.
देश के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना की अगुवाई वाली खंडपीठ ने अव्यावहारिक चुनावी वायदों और मुफ्तखोरी को चिंताजनक बताया है. साथ ही, इसे नियंत्रित करने की आवश्यकता बतायी है. इस मसले पर वित्त आयोग के विचार भी आमंत्रित किये गये हैं. एक जनहित याचिका के जवाब में चुनाव आयोग ने अपने हलफनामे में कहा है कि मतदाता ही मुफ्तखोरी की सियासत को स्वीकारते हैं, जिससे उसके पास कार्रवाई का विकल्प नहीं बचता.
खंडपीठ ने कहा है कि ऐसे मामलों की जांच हो और उसे नियंत्रित किया जाये. केंद्र सरकार की तरफ से औपचारिक जवाब नहीं आने पर नाराजगी जाहिर करते हुए खंडपीठ ने एक हफ्ते के भीतर पक्ष स्पष्ट करने को कहा है. इससे पहले प्रधानमंत्री मोदी ने भी ‘रेवड़ी संस्कृति’ को देश के विकास में बड़ा बाधक बताया था. उन्होंने कहा कि मुफ्तखोरी की राजनीति करनेवाले एक्सप्रेस-वे, एयरपोर्ट और डिफेंस कोरिडोर आदि के निर्माण में विश्वास नहीं करते. राजनीति से ऐसी सोच को हटाने की जरूरत है.
अप्रैल में वरिष्ठ नौकरशाहों की एक टीम ने भी प्रधानमंत्री से कहा था कि मुफ्तखोरी की संस्कृति राज्यों को दिवालिया बना सकती है. चुनावी घोषणापत्र और मुफ्त उपहारों के मुद्दे पर साल 2013 में एस सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु सरकार आदि मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि किसी भी प्रकार की मुफ्तखोरी नि:संदेह बड़े स्तर पर लोगों को प्रभावित करती है. इससे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की बुनियाद कमजोर होती है.
चुनाव आयोग ने भी अपने हलफनामे और बयान में स्वीकारते हुए कहा था कि सरकारी स्तर पर मुफ्तखोरी चुनावी प्रतिस्पर्धा और प्रक्रिया को प्रभावित करती है. इस संदर्भ में शीर्ष अदालत द्वारा किसी निर्देश या निर्णय को चुनावी आयोग ने लागू करने की इच्छा भी जाहिर की थी. मतदाताओं को रिझाने के लिए ‘रेवड़ी संस्कृति’ राजकोषीय आपदा बन सकती है. यह देश की दीर्घावधिक विकास की राह में रोड़ा है, लिहाजा कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर होनेवाले खर्चों को उत्पादक और अनुत्पादक नजरिये से भी देखने की जरूरत है.
राजकोषीय स्थिरता केवल व्यय ही नहीं, बल्कि राजस्व से भी संबंधित है. अत: मुफ्तखोरी के असर को आर्थिक बोझ समझते हुए इसे करदाताओं के धन से भी जोड़ने की जरूरत है. अन्यथा, मुफ्तखोरी का चलन आर्थिकी के नुकसान के साथ-साथ लोकतांत्रिक मूल्यों को भी नष्ट कर देगा.