भूकंप एक ऐसी प्राकृतिक आपदा है, जिसके बारे में कोई पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है और यह धरती के किसी भी कोने में कहर बरपा सकता है. भूकंप के कारणों में सबसे प्रमुख है टेक्टोनिक प्लेट, जो पृथ्वी के गर्भ में लावा के उपर बहती रहती है और जब उनमें टकराव होता है, तब भूकंप आता है. ज्वालामुखी फटने के कारण भी भूकंपीय गतिविधियां देखी गयी हैं. भूमि के भीतर किसी भी तरह का कोई भी विस्फोट होगा, उसके कारण भी कंपन पैदा होते हैं. साथ ही, मनुष्य की अत्यधिक गतिविधियां भी इसका कारण बनती हैं.
माना गया है कि जिस तरह हम ढांचागत विकास कर रहे हैं और बड़े-बड़े बांध बना रहे हैं, वे कहीं पृथ्वी पर दबाव बनाते हैं और दबाव ऊर्जा भूकंप के रूप में हमारे सामने आती है. भूकंप की परिभाषा को केवल एक ही तरह से समझा जा सकता है कि किन्हीं कारणों से पृथ्वी के अंदर से कोई भी ऊर्जा, जो पृथ्वी की सतह यानी लिथोस्फेयर में आती है, भूकंप का कारण बनती है. पाया गया है कि 1960 और 1970 के बीच हर वर्ष करीब 100 छोटे-मोटे भूकंप आते रहे, पर 2000 और 2010 के बीच में इनकी संख्या बढ़कर 500 से 600 हो गयी. अपने देश के संदर्भ में देखें, तो जब-जब इंडियन प्लेट एशियन प्लेट से टकराती है, तो उससे पैदा भूकंप एशिया महाद्वीप के लिए ज्यादा घातक सिद्ध हुआ है.
इन प्लेटों के चलने की दर करीब 45 मिलीमीटर प्रति वर्ष है. हिमालय के संदर्भ में भूकंप ज्यादा गंभीर माना जाता है क्योंकि हिमालय में कई बड़े फॉल्ट (बड़ी दरारें) हैं. जब इनके नीचे कोई तीव्र गतिविधि होगी, वह ज्यादा घातक होगी. ऐसी संभावना भी जतायी जाती है कि हिमालय भूकंप के लिए संवेदनशील है. हिमालय के संदर्भ में महत्वपूर्ण बात यह भी है कि यह करीब एक लाख वर्ग किलोमीटर में ग्लेशियर से ढंका है, जिसका भार भी भूकंप के लिए मायने रखता है. यह ग्लेशियर भी पिघलता जा रहा है. आइपीसीसी की रिपोर्ट में भी बताया गया है कि हिमालय की यह क्षति आने वाले समय में हर रूप में बहुत भारी पड़ेगी.
वैज्ञानिकों के अनुसार, हिमालय में हिमखंडों में आइसोस्टेटिक एडजस्टमेंट की एक प्रक्रिया है, जिसका एक खास भार पृथ्वी पर पड़ता है और यह भार भी भूकंप की गति को बढ़ा सकता है. यह भी पाया गया है कि हिमालय का क्षेत्र इसलिए भी संवेदनशील है कि मानसून हर वर्ष बारिश से हिमालय को तर करता है और इसका भार बढ़ने से खासतौर से शीतकालीन भूकंप की आशंका बढ़ती है. साल 1960 में ही रेखांकित किया जा चुका है कि भूकंप में मानव गतिविधियों के प्रभाव को दरकिनार नहीं किया जा सकता है.
अगर हम भूकंप का इतिहास टटोलें, तो सबसे पुराने भूकंप की हमारी जानकारी चीन की है, जो 1177 बीसी में आया था. दूसरी जानकारी 1505 में आये नेपाल के भूकंप की है. साल 1555 में कश्मीर में बड़ा भूकंप आया था. साल 1618 में मुंबई में भूकंप आया और 1803 में उत्तराखंड में भूकंप ने जान-माल का बड़ा नुकसान किया. अभी हाल ही में अफगानिस्तान और नेपाल में आये भूकंप ने भारी तबाही मचायी. विभिन्न समयों में जिन गंभीर भूकंपों ने हमें घेरा, उनमें भुज का भी नाम आता है, जहां करीब नौ हजार लोगों ने अपना जीवन खोया था. इसकी तीव्रता 7.6 रही थी. इस इतिहास से कुछ बातें तो स्पष्ट रूप से सामने आती है कि यही एक ऐसी आपदा है, जिसका समय तय नहीं है और यह किसी भी रूप में कभी भी हमें घेर सकती है.
यह भी हम सबके सामने है कि लगातार कम समय में नेपाल में ही भूकंप की जो झड़ी लगी है, वह इस बात का संकेत है कि हम कभी भी इस बात को लेकर निश्चित नहीं हो सकते हैं कि इसका कोई खास स्थान और समय है. उदाहरण के लिए, अफगानिस्तान, तुर्की, भुज या नेपाल जैसे बड़े भूकंपों के बड़े नुकसान का कतई भी अनुमान नहीं था. यही कारण है कि अब हमें भूकंप को लेकर बहुत गंभीर होना होगा. वैसे सारी दुनिया में बहुत से भूकंप आये हैं, पर हिमालय की संवेदनशीलता अलग है. सबसे बड़ा पहलू यह है कि यहां किसी भी तरह की छेड़छाड़ ज्यादा नुकसान दे सकती है और यही हुआ भी है. चमोली, उत्तरकाशी और काठमांडू इसके उदाहरण हैं.
अब हमारे सामने दो-तीन बड़े सवाल हैं, जिनको हमें गंभीरता से लेना पड़ेगा. पहली बात तो यह है कि पृथ्वी के गर्भ में होने वाली गतिविधियों में हमारा कोई नियंत्रण नहीं है और हमारे पास यह जानकारी भी नहीं है कि भूकंप किस जगह के किस क्षेत्र को प्रभावित करेगा. बहुत से दावे, जो विज्ञानी स्तर पर किये गये हैं, वे सब खोखले साबित हुए. अगर उनमें दम होता, तो शायद हम बड़े नुकसान से तो बच पाते, कम से कम बहुत सी जानें बचायी जा सकती हैं. तो साफ बात है कि जब यह संभव ही नहीं है कि हम भूकंप के उन कारणों को भूगर्भ से जान लें कि कब किस जगह भूकंप हमें पीड़ित करेगा, तो शायद इस समय सबसे बड़ा सवाल यही होगा कि हम कैसे अपने को सुरक्षित रख सकते हैं. भूगर्भ की हलचल तो हमारे नियंत्रण में नहीं हैं, लेकिन पृथ्वी की सतह पर होने वाली तमाम गतिविधियां हमारे नियंत्रण में हैं, मसलन जो भी ढांचागत विकास हम पृथ्वी के ऊपर करने जा रहे हैं, उसके लिए हमें एक बार फिर सोचना पड़ेगा. खासतौर से तब, जब छोटे-छोटे कई भूकंप संकेत करते हैं कि कभी भी बड़ा भूकंप आ सकता है.
वैज्ञानिकों का मानना है कि आने वाले समय में आठ की तीव्रता का भूकंप हिमालय को हिला सकता है. ऐसे में जिस ओर हमारी समझ बननी चाहिए कि पृथ्वी के पर्यावरण सतह पर हम जो भी गतिविधि करें, वह कम से कम ऐसी हो कि जिससे प्रकृति को ज्यादा नुकसान न उठाना पड़े. यह तभी संभव है, जब हम इस ओर बड़ी बहस करें कि हम पृथ्वी के गर्भ के बारे में कुछ नहीं कर सकते है, लेकिन निश्चित रूप से हम पृथ्वी के सतह पर कार्य इस तरह कर सकते हैं कि आने वाले समय में नुकसान पर अपना नियंत्रण रख सकें. यही आज हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती भी होगी कि हम पृथ्वी के नियंत्रण के प्रति पृथ्वी के सतह में होने वाले हलचलों को जो मनुष्य-जनित हैं, उन पर गंभीरता से विचार करें. हम भूकंप को तो नहीं रोक पायेंगे, लेकिन भूकंप से होने वाले नुकसान से काफी हद तक बच पायेंगे.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)