दिवंगत कांग्रेसी नेता वीएन गाडगिल ने देश की बुनावट से कांग्रेस के जुड़ाव को विश्लेषित करते हुए कहा था कि आप देश के किसी भी गांव में जाएं, आपको तीन चीजें तो जरूर मिलेंगी- डाकिया, पुलिसकर्मी और कांग्रेस पार्टी. खैर, यह तो बहुत पुरानी बात है, लेकिन जब तक पार्टी का कुछ जमीनी जुड़ाव बना रहा, पार्टी के पास अपने जनाधार को समझने, उससे जुड़ने और उसे बढ़ाने तथा अपने एजेंडे में जनता को शामिल करने की प्रणाली भी रही थी.
धीरे-धीरे यह जुड़ाव खत्म होता गया और पार्टी का नियंत्रण एक ब्यूरोक्रेट के हाथों में दे दिया गया, जिन्होंने दो कार्यकाल शासन किया, जिसके खात्मे के साथ भाजपा देश की सबसे प्रभावशाली पार्टी बन गयी. डॉ मनमोहन सिंह के दौर में नीचे तक जुड़ाव नहीं हो सकता था. वे प्रबंधन करने के माहिर थे. आर्थिक संकट के कारण उन्होंने अपने पूर्ववर्ती पीवी नरसिम्हाराव के दौर में सुधारों को लागू किया था.
इस क्रम में सरकार और कांग्रेस की भाषा चाहे-अनचाहे जनता से हट कर उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण की भाषा में बदल गयी, जिसका देश की अधिकांश आबादी से कोई लेना-देना नहीं था. डॉ सिंह मुंबई तो लगातार जाते रहे, पर कार्यकर्ताओं की एक भी बड़ी सभा नहीं कर सके. मुंबई में वे अक्सर क्रिकेट क्लब ऑफ इंडिया में भोजन करते थे, जिसका इंतजाम तब के मुंबई पार्टी प्रमुख और व्यवसायी मुरली देवड़ा करते थे.
आज जब कांग्रेस कुछ खुलने, चुनाव कराने और लोकतांत्रिक ढंग से चुने नेता के हाथ पार्टी को देने की कवायद कर रही है, तो ऐसे कुछ आख्यानों को याद करना अहम हो जाता है. भारत के सबसे पुराने राजनीतिक दल के इतिहास में यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव है. पार्टी को बदलने की दरकार है, आंतरिक लोकतंत्र से इसका भला ही होगा. पारिवारिक नियंत्रण एक समस्या अवश्य है, पर यह सब इस पार्टी के गहरे पतन को इंगित नहीं करते, जो आम और मेहनतकश जनता की आवश्यकताओं व आकांक्षाओं से दूर जा चुकी है.
कांग्रेस ने अपने को ठीक करने के कई प्रयास किये हैं. वह मनरेगा के साथ काम के अधिकार और मिड-डे मील स्कीम को लेकर आक्रामक हुई, लेकिन उसका तौर-तरीका नहीं बदल सका. उसकी छवि जनता से विमुख, भ्रष्ट, सत्ता की होड़ में लगे नेताओं वाली पार्टी की बनी रही. नतीजा यह है कि भारतीय राजनीति में यह पार्टी आज सबसे नीचे है. पार्टी के असंतुष्ट नेताओं को लेकर मीडिया में चर्चा तो हुई, पर एक बात इसमें उल्लिखित नहीं की गयी कि ये नेता या इनमें से अधिकतर खुद ही जनता से कटे हुए रहे हैं.
वे एक ऐसी पार्टी में बड़े हुए, जो जनता से विमुख रही या उसकी ऐसी छवि रही. कोई भी पार्टी अगर कुछ और होती, तो इन असंतुष्ट नेताओं के लिए उसका कोई उपयोग नहीं होता. ये वोट नहीं जुटा सकते थे. उनकी प्रतिबद्धता एक सीमा तक ही थी. जब तक स्थितियां उनके अनुकूल थीं, वे तुष्ट थे. पर इन पहुंचे हुए समृद्ध असंतुष्टों को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता है, पर वे ऐसे नेता नहीं थे, जो जनता की नब्ज समझ सकते थे.
आज कांग्रेस को एक ऐसे प्रमुख की आवश्यकता है, जो पार्टी में कुछ बुनियादी बदलाव कर सके तथा सत्ता में बैठी मौजूदा सरकार के सामने एक स्पष्ट विकल्प प्रस्तुत कर सके. स्वाभाविक रूप से पहली जरूरत यह है कि पार्टी पूरे देश को एकजुट करे, जो कि राहुल गांधी के ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के संदेश के अनुरूप ही है, लेकिन इसे अर्थव्यवस्था, शांति और सतत विकास पर एक नया आख्यान भी तैयार करना होगा.
इन सभी समझदारियों को सोच-विचारकर आकर्षक ढंग से देश की जनता के सामने ले जाना होगा. यह काम विशेष रूप से उत्तर भारत के राज्यों में करना होगा, जहां पार्टी को बड़े झटके लगे हैं और उसने भारतीय जनता पार्टी के लिए सारा मैदान छोड़ दिया है. पार्टी अध्यक्ष के चुनाव में उतरे शशि थरूर वह व्यक्ति नहीं हो सकते हैं. वे भले, आकर्षक और प्रभावशाली व्यक्ति हो सकते हैं, लेकिन वे असंतुष्टों के गुट जी-23 के प्रतिनिधि हैं.
केवल कांग्रेस नेतृत्व के विरुद्ध बोलने के कारण इस गुट का विरोध जरूरी नहीं है, पर यह रेखांकित और अभिव्यक्त किया जाना चाहिए कि ये लोग उसी असफल समूह से आते हैं, जिन्होंने पार्टी के चलते रसूख हासिल किया, लेकिन उसे आगे बढ़ाने के लिए नाममात्र का योगदान किया. थरूरवाद जैसी चीजें ट्विटर के लिए ठीक हैं, पर उनसे वोट नहीं हासिल किया जा सकता है, लोगों से जुड़ाव नहीं बनाया जा सकता है या एक असरदार आख्यान को नहीं गढ़ा जा सकता है, जो आज की सबसे बड़ी जरूरत है.
शशि थरूर का अध्यक्ष पद के लिए खड़ा होना या अपने को उस जिम्मेदारी के लायक मानना ही यह बताने के लिए बहुत है कि उन्हें और उनके समर्थकों को कांग्रेस के समक्ष मौजूद चुनौतियों का अहसास नहीं है. यह दिलचस्प है कि जो एक व्यक्ति सही काम कर रहा है, वे राहुल गांधी हैं, जो देशव्यापी यात्रा कर रहे हैं. उन्होंने इसे ‘तपस्या’ कहा है. वे जनता के साथ जुड़ने और माहौल को समझने की कोशिश करने के साथ यह भी रास्ता खोज रहे हैं कि देश के नफरत और बंटवारे की मौजूदा स्थिति को पार्टी कैसे लोगों के सामने विश्लेषित कर सकती है.
राहुल गांधी की भाषा अच्छी दिख रही है, उनके बयानों में अर्थ हैं तथा अभी यह लग रहा है कि एक मजबूत आख्यान आकार ले रहा है, हालांकि इसकी असली परीक्षा तब होगी, जब यात्रा उत्तर भारत में पहुंचेगी. इसका संदेश सरल शब्दों में कहता है कि एक भारतीय पर हमला भारत पर हमला है, ध्वज का आदर होना चाहिए, पर तिरंगे के मूल्यों का भी सम्मान होना चाहिए. ऐसे कुछ संदेश पार्टी और देश के पुनर्निर्माण में बड़ा योगदान दे सकते हैं.
इसके साथ ही, पार्टी को निर्वाचित प्रमुख बनाना चाहिए और अन्य पदों के लिए भी ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए. अंतत: पार्टी ऐसे लोगों की ओर मुड़ेगी, जो जनता से जुड़े हुए हैं और वोट ला सकते हैं. अगर ‘भारत जोड़ो’ यात्रा को ऐसे ही समर्थन मिलता रहा, तो वह वांछित नेता बाद में राहुल गांधी हो सकते हैं और तब वे यह दावा भी कर सकेंगे कि उन्होंने यह पद प्रयासों से हासिल किया है, जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में नहीं.