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हरियाणा चुनाव परिणाम के दूरगामी असर होंगे

लोकसभा चुनाव के नतीजों से उत्साहित होकर कांग्रेस अनेक सपने देखने लगी थी कि हरियाणा के बाद महाराष्ट्र, फिर झारखंड, फिर बिहार और दिल्ली भी इंडिया गठबंधन की सरकारें बनेंगी.

कांग्रेस के सामने इस नतीजे से अनेक मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं. हरियाणा में वह आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं कर सकी थी. यह बात भी उठेगी. साथ ही, कद्दावर कांग्रेस नेता शैलजा के साथ पार्टी के भीतर जो हुआ और उन्हें हाशिये पर रखने की कोशिश हुई, वह मसला भी अब उभरकर सामने आयेगा. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के नतीजों के बाद अब हरियाणा के परिणाम ने भी साफ कर दिया है कि जब भी कांग्रेस किसी राज्य में अपने क्षत्रप के भरोसे चुनाव लड़ती है, तो उसे हार का मुंह देखना पड़ता है.

भाजपा हरियाणा में पूर्ण बहुमत के साथ तीसरी बार सरकार बनाने जा रही है. इस नतीजे के राजनीतिक असर दूर तक होंगे. अगर हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात करें, तो वे राजनीतिक रूप से सशक्त हुए हैं. केंद्र सरकार में उनके गठबंधन में शामिल दल राज्यों के चुनाव को बड़ी गंभीरता से देख रहे हैं, उन्हें यह अहसास हो गया है कि मोदी में अभी बहुत दम-खम बाकी है और भाजपा अपने बूते पर चुनाव जीतने में सक्षम है. उसके विरोधी, खासकर कांग्रेस, आमने-सामने की लड़ाई में भाजपा के सामने कमजोर पड़ जाती है. एनडीए के घटक दलों को अपनी मांगों को लेकर प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा पर दबाव बनाना पहले की अपेक्षा मुश्किल हो जायेगा. आगामी दिनों में महाराष्ट्र और झारखंड में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. महाराष्ट्र में शिंदे शिव सेना और अजीत पवार की एनसीपी के सामने भाजपा का कद बहुत बढ़ गया है. हरियाणा में भाजपा का कोई क्षत्रप भी नहीं था. यह चुनाव कांग्रेस मोदी सरकार की नीतियों- किसान, जवान, पहलवान- को मुद्दा बनाकर लड़ी थी. इन आलोचनाओं को मतदाताओं ने नकार दिया है. एक अहम पहलू दलित और पिछड़े वर्ग के वोटरों से जुड़ा हुआ है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी संविधान के खतरे में होने की जो बात कह रहे थे, वह मुद्दा भी कामयाब नहीं रहा. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और इंडिया गठबंधन को उसका फायदा हुआ था, पर हरियाणा में उस मुद्दे पर अंकुश लग गया है. अब आगे अगर राहुल गांधी ऐसे मुद्दे उठायेंगे, तो संभव है कि पार्टी में ही उसका विरोध हो कि इन मसलों का असर नहीं हो रहा है.
कांग्रेस के सामने इस नतीजे से अनेक मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं. हरियाणा में वह आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं कर सकी थी. यह बात भी उठेगी. साथ ही, कद्दावर कांग्रेस नेता शैलजा के साथ पार्टी के भीतर जो हुआ और उन्हें हाशिये पर रखने की कोशिश हुई, वह मसला भी अब उभरकर सामने आयेगा. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के नतीजों के बाद अब हरियाणा के परिणाम ने भी साफ कर दिया है कि जब भी कांग्रेस किसी राज्य में अपने क्षत्रप के भरोसे चुनाव लड़ती है, तो उसे हार का मुंह देखना पड़ता है. मध्य प्रदेश में कमलनाथ, राजस्थान में अशोक गहलोत और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल के भरोसे पार्टी ने पूरा चुनाव छोड़ा था. हरियाणा में भूपेंद्र हुड्डा के हाथ में पूरी कमान दे दी गयी थी. हुड्डा को लगभग 72 सीटों पर उम्मीदवार चुनने की छूट दी गयी थी. चुनावी रणनीति बनाने का काम भी उन्हीं के जिम्मे था. पर राज्य में सत्ता हासिल करने की तमन्ना पूरी नहीं हो सकी. सुनील कानूगोलू कांग्रेस पार्टी का चुनाव प्रबंधन का काम देखते हैं. उन्हें प्रशांत किशोर की तरह चुनावी रणनीतिकार माना जाता है और उन्हें कर्नाटक में मंत्री पद के समकक्ष ओहदा भी दिया गया है. उनके नेतृत्व में हुए कांग्रेस के आंतरिक सर्वेक्षण के आधार पर जो दावे हुए, जो रणनीति बनायी गयी, वे सब नाकाम साबित हुए.
किसी राज्य या क्षेत्र में क्या राजनीतिक स्थिति है, उसे समझना कोई मुश्किल काम नहीं होता. जम्मू-कश्मीर के जम्मू क्षेत्र में कांग्रेस को पता था कि उसकी स्थिति ठीक नहीं है. उसे लेकर पार्टी ने कोई बड़े दावे नहीं किये. फिर यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर हरियाणा में ऐसा कैसे हुआ. राहुल गांधी का तो आत्मविश्वास इतना था कि वे चुनाव घोषित होने के बाद अमेरिका चले गये. कहा जा सकता है कि अत्यधिक आत्मविश्वास, क्षत्रप पर पूरा भरोसा और नेताओं की महत्वाकांक्षाओं का टकराव कांग्रेस की हार के मुख्य कारण हैं. यह तथ्य है कि जाट समुदाय को लेकर दलितों में डर और आशंका का माहौल होता है, उसको लेकर गंभीरता नहीं दिखाई गयी. कुमारी शैलजा 14 दिनों तक कोप भवन में रहीं. समय रहते उनको मनाने की कोशिश क्यों नहीं की गयी? वे राज्य में पार्टी की अध्यक्ष हैं और उन्होंने खुद अपने इंटरव्यू में कहा है कि उन्हें याद नहीं कि पिछली बार कब उनकी बातचीत हुड्डा से हुई थी. सुरजेवाला और हुड्डा की भी नहीं पटती. जब शीर्ष नेताओं के बीच ऐसे रिश्ते होंगे, तो फिर चुनाव कैसे जीता जा सकता है! अब कांग्रेस को महाराष्ट्र में भी शरद पवार और उद्धव ठाकरे के साथ गठबंधन बनाने में मुश्किलें आयेंगी क्योंकि वे सीटों के बंटवारे पर आसानी से तैयार नहीं होंगे.
लोकसभा चुनाव के नतीजों से उत्साहित होकर कांग्रेस अनेक सपने देखने लगी थी कि हरियाणा के बाद महाराष्ट्र, फिर झारखंड, फिर बिहार और दिल्ली भी इंडिया गठबंधन की सरकारें बनेंगी. योगेंद्र यादव ने कह भी दिया था कि जीतों के इस सिलसिले के बाद मोदी जी के विदाई का समय आ जायेगा. हालांकि हरियाणा जीतना कोई अनहोनी बात भी नहीं लगती थी क्योंकि राज्य में दस साल से भाजपा सत्ता में है, चुनाव से कुछ समय पहले एक मुख्यमंत्री को दूसरे व्यक्ति को कमान दी गयी, कई मुद्दों पर जनता में भी नाराजगी थी, लेकिन फिर भी जमीनी स्तर पर कांग्रेस हकीकत को ठीक से नहीं समझ सकी. यह बड़ी चूक है और मुझे लगता है कि इससे उबरने में पार्टी को समय लगेगा. इस चुनाव ने फिर साबित किया है कि किसी भी पार्टी को अपनी मजबूती से चुनाव लड़ना चाहिए. भाजपा ने जम्मू-कश्मीर में, खासकर घाटी में, वोट बांटने की रणनीति अपनायी थी, पर वह सफल नहीं रही क्योंकि इसके लिए वह दूसरों के भरोसे थी. हरियाणा में भी अन्य दलों ने अपनी भूमिका निभायी है, पर कांग्रेस अगर आम आदमी पार्टी से गठबंधन कर लेती और टिकट बंटवारा बेहतर होता, तो शायद आज नतीजे अलग होते.
भाजपा की यह जीत उसके लिए एक तरह से संजीवनी ही कही जायेगी. लोकसभा चुनाव में पार्टी की अपेक्षाएं पूरी नहीं हो पायी थीं. अगर भाजपा हरियाणा हार जाती, तो यही संदेश जाता कि हिंदी भाषी राज्यों में कांग्रेस के उभार का दौर शुरू हो गया है और भाजपा अब एक तरह से सियासी ढलान पर है. जैसे हरियाणा में जाट समुदाय है, वैसे ही महाराष्ट्र में मराठा हैं. वहां भी बड़ी तादाद में दलित और पिछड़े समुदाय हैं, जिनका वोट है. इस चुनाव के बाद एक बार फिर अब कांग्रेस के समक्ष एक बड़ी चुनौती आ खड़ी हो गयी है कि वे महाराष्ट्र में सहयोगी दलों और मतदाताओं के विभिन्न समूहों को लेकर कैसे एक ठोस एवं संतुलित रणनीति अपनायें. यही बात झारखंड एवं अन्य राज्यों के बारे में कही जा सकती है, जहां आगामी महीनों में विधानसभा के चुनाव संभावित हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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