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चीन के हाथों से फिसलता जी-20

चीन इस बात को हजम नहीं कर पा रहा है कि इससे पहले जी-20 की बैठकों में 55 देशों वाले अफ्रीकी संघ का समर्थन वह करता रहा, लेकिन जी-20 में सदस्यता उसे भारत ने दिलवायी.

दिल्ली में जी-20 बैठक के समाप्त होने के साथ चीन जरूर उस नयी वैश्विक व्यवस्था के बारे में सोच रहा होगा, जो उसके हाथ से फिसलती लग रही है. कोरोना के बाद की की दुनिया में भारत पूरब-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण की दीवारों के बीच, एक समावेशी और बहुपक्षीय क्षेत्रीय और वैश्विक व्यवस्था बनाने की कोशिश कर रहा है. चीन हमेशा से जी-20 के केंद्र में रहता रहा है.

अपनी 19 ट्रिलियन डॉलर की विशाल अर्थव्यवस्था, 1980 से 2010 के बीच 10 प्रतिशत की विकास दर, और पिछले दशक में सात प्रतिशत से ज्यादा के विकास की बदौलत, चीन जी-20 में अपनी एक अहम उपस्थिति दर्ज करवा चुका है. वह जी-20 के कई सदस्यों के सबसे बड़े व्यापार सहयोगियों में से एक है. पिछले दो दशकों में, चीन ने वैश्विक व्यापार, निवेश, वित्तीय स्थिरता और सतत विकास जैसे मुद्दों पर जी-20 की चर्चाओं को प्रभावित करना भी शुरू कर दिया था.

चीन ने वर्ष 2016 में हांग्जू में जी-20 के सम्मेलन की मेजबानी की थी और अपनी नीतियों और हितों के पक्ष में आवाज उठायी थी. उसने वहां वित्तीय बाजारों में सुधार, व्यापार में उदारता, आधारभूत ढांचे में विकास जैसे मुद्दे उठाकर बड़ी मात्रा में पूंजी, तकनीक और बाजारों को आकर्षित किया था. लेकिन, लगता है उसकी इस शानदार कहानी में मोड़ आ रहा है और इस कहानी से उसे अब तक जो फायदे हुए अब उनका सिलसिला थम रहा है.

चीन की आर्थिक वृद्धि की दर पिछले वर्ष घटकर लगभग तीन प्रतिशत रह गयी. ऐसा कुछ उसकी घरेलू नीतियों की वजह से हुआ जिसके तहत निर्यात की जगह घरेलू खपत बढ़ाने पर जोर दिया गया और मेड इन चाइना 2025 के स्थान पर आयात को बढ़ावा दिया गया. कोरोना महामारी ने भी असर डाला, जिसका जन्म वुहान में हुआ था. उसके सबसे बड़े साझेदारों ने भी चीन में बाजार वाली अर्थव्यवस्था में कमी पर सवाल उठाने शुरू कर दिये जिसका विश्व व्यापार संगठन की संधियों में वादा किया गया था.

साथ ही, उसकी सौम्य सुरक्षावादी नीतियों, गैर-शुल्क बाधाओं तथा मुद्रा कीमतों में छेड़छाड़ पर भी सवाल उठे. साथ ही अन्य भू-राजनीतिक कारणों के अतिरिक्त कोरोना, यूक्रेन संघर्ष, अमेरिका-चीन संबंधों में आते बदलाव, यूरोप के कारोबार सीमित करने जैसी घटनाएं हाल में चीन की परीक्षा ले रही हैं. चीन इन चुनौतियों का कोई जवाब देता नहीं दिखता और ऐसे में, भारत जैसे दूसरे किरदार उभर रहे हैं.

चीन की कई आपत्तियों के बावजूद जी-20 का घोषणापत्र सर्वसम्मति से आया. सबसे पहले, यूक्रेन पर बयान पिछले बाली घोषणापत्र से थोड़ा नर्म है, मगर यह वर्तमान परिस्थितियों को दर्शाता है. जैसा कि विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा, आज की परिस्थिति बहुत बदल गयी है- वह इस लड़ाई के विकासशील देशों पर पड़े प्रभाव की ओर इशारा कर रहे थे.

इसके अलावा, पिछले समय में अमेरिका के कई बड़े राजनेताओं के लगातार हुए दौरों के बावजूद, चीन के रवैये में नरमी के संकेत नहीं मिल रहे. ऐसे में बाइडेन प्रशासन को अड़ियल दिखते चीन के इर्द-गिर्द उभरती भू-राजनीतिक स्थिति को समझना होगा.

दूसरा, जी-20 में चीन का प्रतिनिधित्व राष्ट्रपति जिनपिंग की जगह प्रधानमंत्री ली कियांग ने किया, जिन्होंने मार्च में ही जिम्मेदारी संभाली है. ली ने सम्मेलन में एक संक्षिप्त भाषण दिया, जिसमें उन्होंने एक साझा लक्ष्य वाला समुदाय बनाने के लिए चीन के हाल में किये गये प्रयासों का जिक्र किया, और वैश्विक विकास, वैश्विक सुरक्षा, वैश्विक सभ्यता के प्रयासों का जिक्र किया.

लेकिन, जी-20 देशों ने इनमें से किसी पर मुहर नहीं लगायी जो इन विचारों के जरिये चीन के लंबे समय से प्रभाव जमाने की कोशिशों को समझने लगे हैं. पिछले वर्ष चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस के बाद से ही, चीनी नेताओं ने चीन का सामना करने के मकसद से छोटी गुटबाजियां करने के लिए अमेरिका और दूसरे देशों की आलोचना शुरू कर दी है.

इससे पहले, चीन ने अरुणाचल प्रदेश और श्रीनगर में हुई जी-20 की बैठकों का बहिष्कार किया था, तथा बैठक के लोगो से वसुधैव कुटुंबकम को हटाने का भी सुझाव दिया था. जोहानिसबर्ग में चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग के पश्चिमी सेक्टर से फौजों की त्वरित वापसी की मांग को ठुकराने, और चीन के नये नक्शे में अरुणाचल और लद्दाख के बड़े क्षेत्रों को शामिल करने से भी दोनों देशों के बीच की दरार बढ़ी थी.

तीसरा, अगले महीने चीन की बीआरआइ परियोजना के बारे में तीसरी शिखर बैठक की योजना के बावजूद बात आगे बढ़ती नहीं दिख रही. और उधर, भारत-मध्य पूर्व-यूरोप को जोड़नेवाले आर्थिक गलियारे की योजना में सभी देशों की ओर से बंदरगाह, सड़क, रेल और हाइड्रोजन पाइपलाइन के अलावा डिजिटल संपर्क के लिए सरकारी और निजी भागीदारी की व्यवस्था है.

वहीं जी-20 की बैठक से ठीक पहले, जकार्ता में दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के सम्मेलन में, प्रधानमंत्री मोदी ने दक्षिण पूर्व एशिया को भारत के रास्ते पश्चिम एशिया से जोड़नेवाले ‘आर्थिक गलियारे’ की घोषणा की. इन महत्वाकांक्षी परियोजनाओं से बीआरआई पर ग्रहण लग सकता है. चौथा, चीन एक समय तीसरी दुनिया की सोच का समर्थन करता था. उसने हाल ही में बीआरआइ में हिस्सा लेनेवाले विकासशील देशों में निवेश किया.

लेकिन, लगता है वह आधार भी उसके हाथ से निकल रहा है. चीन के कई विश्लेषकों ने जी-20 के जरिये भारत के विकासशील देशों का अगुआ बनते जाने पर चिंता प्रकट की है. चीन इस बात को हजम नहीं कर पा रहा है कि इससे पहले जी-20 की बैठकों में 55 देशों वाले अफ्रीकी संघ का समर्थन वह करता रहा, लेकिन जी-20 में सदस्यता उसे भारत ने दिलवायी.

पांचवां, हाल के समय में जी-20 ने ऐसे कुछ प्रयास शुरु किए हैं, जिनका उद्देश्य कर्ज में बुरी तरह डूबे विकासशील देशों की मदद करना है. चीन इससे भी चिंता में पड़ गया है क्योंकि उसने बहुत सारे देशोंं को, और अक्सर काफी ऊंचे ब्याज पर, कर्ज दिया हुआ है. उदाहरण के लिए, अफ्रीका के कुल विदेशी कर्ज में चीन का हिस्सा 24 फीसदी है, जबकि निजी बैंकों से उसे 32 प्रतिशत कर्ज मिला है, जिनमें चीन के बैंक शामिल नहीं हैं.

विश्व बैंक से उसे 16 प्रतिशत, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और दूसरे संस्थानों से 19 प्रतिशत, और पेरिस क्लब से 10 प्रतिशत कर्ज मिला है. अफ्रीकी संघ के लगभग आधे सदस्य कर्ज में डूबे हैं, ज्यादातर चीन के सरकारी बैंक के कर्ज में. दिल्ली सम्मेलन में हालांकि इस कर्ज संकट के हल के लिए केवल अपील भर की गयी, लेकिन इससे चीन के ऊपर भी तलवार लटकती प्रतीत हो रही है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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