डॉ अभिषेक कुमार
औपनिवेशिक भारत के दिनों में हिंद स्वराज में शिक्षा की विवेचना करते हुए गांधी जी लिखते हैं कि “शिक्षा का साधारण अर्थ अक्षर ज्ञान ही होता है. लोगों को लिखना – पढ़ना और हिसाब लगाना सीखना इसे ही मूल अथवा प्राथमिक शिक्षक मान लिया जाता है. किसान ईमानदारी से खेती करके रोटी कमाता है. उसे साधारण सांसारिक ज्ञान है. उसे इन सब बातों का पर्याप्त ज्ञान है कि मां-बाप के प्रति कैसा आचरण किया जाए. अपनी स्त्री और बच्चों की तरफ कैसा बर्ताव किया जाए और जिस गांव में वह रहता है. वहां, वह कैसा व्यवहार रखे, यह नीति के नियमों को समझता है और उसका पालन करता है. किंतु, उसे अपना हस्ताक्षर करना नहीं आता. इस व्यक्ति को अक्षर ज्ञान देकर आप क्या करना चाहते हैं? उसके सुख में आप क्या वृद्धि करेंगे? क्या आप उसके मन में उसकी झोपड़ी अथवा उसकी स्थिति के विषय में असंतोष पैदा करना चाहते हैं! ऐसा करना हो तो भी उसे अक्षर ज्ञान देने की आवश्यकता नहीं है. परिचय के प्रभाव में जाकर हमने इस यह बात पकड़ ली है कि लोगों को शिक्षा दिया जाए. किंतु हम इसमें आगे पीछे की बात नहीं सोचते.” तात्पर्य यह कि गांधी जी का पूरा जोर शिक्षा कैसे दी जाए के बनिस्पत शिक्षा कैसी दी जाए पर था.
21वीं सदी में घटते रोजगार के अवसर और बिखरते मानव मूल्य हमें आर्थिक – सामाजिक मोर्चे पर जूझती हुई परिस्थिति में खड़े कर देते हैं. बढ़ती हुई आबादी के साथ युवाओं को सक्षम बनाना एक चुनौती है. ताकि, उनके बेहतर जीवन के सपने को पूरा किया जा सके. साथ ही लोगों में बढ़ते तनाव के बीच एकल परिवार की बढ़ती संकल्पना हमें आधुनिकतावाद की कीमत अदा करने पर मजबूर करती है. इन जैसी अन्य कई समस्याओं के समाधान की आज अत्यंत आवश्यकता है और इस परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के शिक्षा संबंधी विचार हमारे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बन पड़ते हैं. उन्होंने प्रचलित शिक्षण पद्धतियों से इतर हमें एक नई शिक्षा पद्धति की राह दिखाई थी. जिन्हें बुनियादी शिक्षा, वर्धा शिक्षा योजना, नई ताली या बेसिक एजुकेशन पॉलिसी भी कहते हैं.
किसी भी अन्य शिक्षा पद्धति की तरह यदि इस पद्धति के सारे आयामों की चर्चा की जाए तो यह एक जटिल और विस्तृत कार्य होगा. इसलिए इनके मूल तत्वों पर प्रकाश डालने की आवश्यकता है. जिससे इसके प्रभाव को समझा जा सकता है. यहां तीन बातों अहिंसा, स्वावलंबन और समवाय के महत्व को जानकर गांधी जी की बुनियादी शिक्षा पद्धति की बेहतर समझ विकसित की जा सकती है. अहिंसा की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए गांधी जी ने कहा था कि “मैं जो अहिंसा चाहता हूं वह सिर्फ अंग्रेजों के साथ के युद्ध तक ही सीमित नहीं है. मैं चाहता हूं कि वह हमारे तमाम भीतरी सवालों और समस्याओं पर भी लागू हों. सच्ची और सक्रिय अहिंसा तो तभी होगी जब वह एकता को जन्म दे सकेगी और हमें तमाम भय से भी दूर रखे l” आज समाज में बात बात में हिंसा से समाधान निकालने की प्रवृति बढ़ रही है. लोगों का अहिंसक तरीके से समाधान निकाले जाने पर विश्वास कुछ कम होता दिखता है.
सद्भाव और सौहार्द का रास्ता सभी के दिलों में अहिंसा पर मजबूत होते विश्वास से निकलेगा. जब सभी लोग अहिंसा का मूल्य समझेंगे, तभी शांति और समृद्धि आएगी. इसके लिए हमारे शिक्षालय में सक्रिय अहिंसा की भावना पर काम करना होगा. इस बारे में गांधी जी का अभिप्राय केवल किसी को नुकसान न पंहुचाने भर से नहीं था. बल्कि, किसी के साथ अन्याय होने की स्थिति में सामाजिक स्वतः स्फूर्त चेतना के उभरने से था. इसे ऐसे समझते हैं कि आप यदि किसी भय अथवा मजबूरी से वशीभूत होकर अनुचित कार्य का यह कहकर विरोध नहीं करते कि आप अहिंसावादी हैं, तो आप सच्चे अहिंसक नहीं हैं. एक सक्रिय अहिंसक होना अत्यंत साहस का काम है. इसके लिए शारीरिक से ज्यादा आत्मिक बल की आवश्यकता होती है. अहिंसा का अर्थ इतना गहरा है कि इस पर अनेकों शोध ग्रंथों की रचना की जा सकती है. परंतु यह कहने में अतिशयोक्ति न होगी कि आवश्यकता होने पर आपका विरोध उचित वजह से हो और आप निर्भीक होकर विरोध प्रकट करते हैं तो आप सक्रिय अहिंसावादी की कतार में खड़े हो सकते हैं.
जहां तक स्वावलंबन की बात है यह न केवल हमारे स्व के विकास के लिए अति आवश्यक है बल्कि, देश के विकास के लिए भी अति आवश्यक है. शिक्षा में स्वावलंबन के बारे में गांधी जी ने कहा था कि “मैं स्वावलंबन को अपनी योजना की सच्ची कसौटी कहता हूं. जिन उद्योगों द्वारा शिक्षा देने के लिए मैं कहता हूं वे केवल बालकों के मनोरंजन, खेल अथवा शिक्षा के लिए नियोजित कृत्रिम उद्योग या प्रवृत्तियां नहीं हैं, बल्कि देश के लाखों अथवा करोड़ों लोगों के जीवन निर्वाह के साधन बन सकने वाले सच्चे उद्योग हैं.” देश के हर युवा के हाथ को काम हो यह आज किस देशवासी का सपना नहीं है. परंतु, क्या सच में हमारे शिक्षालय स्वावलंबन को अपना रहे हैं? हम सभी ने देखा है, हमारी माताएं अपने बच्चों को छोटपन से ही दो रोटी ज्यादा खिलाती हैं. इससे उन्हें लगता है कि उनका बच्चा आगे चलकर स्वस्थ बनेगा परंतु “ओवर ईटिंग” के बदले उन्हें जो हासिल होता है वह है, मोटापा और बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य. ठीक इसी प्रकार हमारे शिक्षालयों में बच्चों को हम “केयर” के नाम पर क्या साझा करते हैं! उन्हें श्रमशील होने से रोकते हैं. आज “एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज” के नाम पर क्या मिलता है! कितने चित्रकार, कितने लेखक या कितने खिलाड़ियों को तैयार करने का हमारे विद्यालयों में लक्षित साहस है यह बात किसी से छुपी नहीं है. हमारे बच्चे स्वयं स्वावलंबन के नाम पर एक गिलास पानी तक खुद से नहीं ले सकते और ऐसी कोई कोशिश हमारे शिक्षालय में भी नहीं हो रही है कि स्वावलंबन की मानसिकता को सभी की सहज स्वीकृति मिले. गांधी जी की शिक्षा नीति यहां हमें झकझोड़ती है.
उनकी बुनियादी शिक्षा पद्धति में समवाय का बेहद महत्वपूर्ण स्थान है. जिसके द्वारा कक्षा – कक्ष में शिक्षार्थियों को प्रश्न पूछने की आजादी दी जाती है और उत्तर के फलक को विस्तृत किया जाता है. इससे उन्हें प्रश्न उत्तर की तैयारी मात्र से आगे का दिशाबोध प्राप्त होता है. उदाहरण स्वरूप “निर्झर बहता ही रहता है” कविता के पाठ के दौरान यदि बच्चे ने यह पूछ लिया कि निर्झर में जल कैसे आता है? तो शिक्षाक यह बोलकर पल्ला नहीं झाड़ सकते कि यह सवाल भूगोल के शिक्षक से पूछ लेना! बल्कि, शिक्षकों की पहली जिम्मेवारी है कि वह विषय अवरोध से ऊपर उठकर बच्चों की समस्त जिज्ञासा को शांत करे. गांधी जी ने गुलाम भारत में शिक्षा में समवाय की आवश्यकता को उजागर करते हुए टिप्पणी की थी जो आज भी प्रासंगिक है. वे कहते हैं कि “स्कूल में जो शिक्षा मिलती है वह उपयोगी नहीं होती. मसलन भारतीय विद्यार्थी इंग्लैंड का भूगोल तो अच्छी तरह जानता है. पर स्वयं अपने देश के भूगोल का उसे यथेष्ठ ज्ञान नहीं होता. उन्हें भारत का जो इतिहास पढ़ाया जाता है, वह बहुत कुछ विकृत होता है. आजकल शिक्षा प्राप्त करने का उद्देश्य सरकारी नौकरी पाना है.” देखा जाए तो हमारे शिक्षालयों ने हर क्षेत्र में कुशल कर्मी तो पैदा किए हैं. परंतु, समष्टि से तारतम्य बिठा कर जीने वाला संतुष्ट नागरिक खोजने के लिए हमें काफी परिश्रम करना होगा.
यहां गांधी जी को समर्पित इस लेखन का उद्देश्य समस्याओं को रेखांकित करना भर नहीं है, अपितु आज के शिक्षाई संदर्भ में निदान की ओर ध्यान आकृष्ट करना है. इस परिप्रेक्ष्य में गांधी जी के अत्यंत व्यापक वैचारिक फलक में से बोधकेंद्रित शिक्षाई विमर्श की चर्चा के माध्यम से शिक्षा में अहिंसा, स्वावलंबन और समवाय जैसे बिंदुओं पर रौशनी डालने की अल्पज्ञ कोशिश की गई है, जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति की आत्मा को परिलक्षित करती है.
यह लेखक के निजी विचार हैं, आप असहमत हो सकते हैं.