Loading election data...

गणेश शंकर विद्यार्थी और उनका ‘प्रताप’

‘प्रताप’ के संपादक के तौर पर गणेश शंकर विद्यार्थी ने उक्त नरसंहार को लेकर जब उसके 13 जनवरी, 2021 के अंक में ‘डायरशाही और ओ डायरशाही’ शीर्षक अग्रलेख लिखा, तो अंग्रेज न सिर्फ तिलमिला गये, बल्कि बदला लेने पर उतर आये.

By कृष्ण प्रताप | October 26, 2023 8:14 AM

हिंदी पत्रकारिता के उन्नयन और उसके माध्यम से देश की गुलामी के खात्मे की कोशिशों को परवान चढ़ाने वाले, अपने समय के अग्रगण्य संपादक व स्वतंत्रता सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी की जयंती पर आज उनके पुण्यों का स्मरण करें, तो सबसे पहले यही याद आता है कि उनका समय किसान आंदोलनों के देशव्यापी उभार का समय था. खासकर सूबा-ए-अवध में उन दिनों किसानों ने अपने आंदोलनों से गोरी सत्ता की नाक में दम कर रखा था. ऐसे ही एक आंदोलन के सिलसिले में 1920-21 में उग्र होकर किसान हिंसक आंदोलनों पर उतर आये, तो गोरी सत्ता ने उनका तो बेरहमी से दमन किया ही, उनके पक्षधर समाचारपत्रों व पत्रकारों को भी नहीं छोड़ा. इनमें गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा संपादित कानपुर का दैनिक ‘प्रताप’ उसकी आंखों में कुछ ज्यादा ही चुभा, क्योंकि वह बिना किसी लाग-लपेट के खुलकर किसानों का समर्थन करता था. देश की आजादी के प्रति समर्पित और किसानों के हितों को लेकर अति की हद तक मुखर इस पत्र का ध्येय वाक्य था- ‘दुश्मन की गोलियों का सामना हम करेंगे, आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे.’

इस पत्र की संपादकीय नीति अंग्रेजों को इतनी भी गुंजाइश नहीं देती थी कि वे आजादी के लिए महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस द्वारा चलाये जा रहे अहिंसक और चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में क्रांतिकारियों द्वारा संचालित सशस्त्र अभियानों के अंतर्विरोधों का रंचमात्र भी लाभ उठा सकें. क्योंकि उसमें इन दोनों ही पक्षों के अभियानों का एक जैसा समर्थन और सम्मान किया जाता था. अंग्रेजों की सेना और पुलिस ने सात जनवरी, 1921 को अपने नेताओं की गिरफ्तारी का विरोध कर रहे किसानों को रायबरेली शहर के मुंशीगंज में सई नदी पर बने पुल पर गोलियां बरसाकर भून डाला, तो ‘प्रताप’ पहला ऐसा पत्र था जिसने उसे ‘एक और जलियांवाला’ की संज्ञा दी. उन दिनों के दमनकारी हालात में यह जानबूझकर सरकार के कोप को आमंत्रित करने जैसा था. ‘प्रताप’ के संपादक के तौर पर गणेश शंकर विद्यार्थी ने उक्त नरसंहार को लेकर जब उसके 13 जनवरी, 2021 के अंक में ‘डायरशाही और ओ डायरशाही’ शीर्षक अग्रलेख लिखा, तो अंग्रेज न सिर्फ तिलमिला गये, बल्कि बदला लेने पर उतर आये.

उतरते भी क्यों नहीं, अग्रलेख में विद्यार्थी जी ने लिखा था, ‘ड्यूक ऑफ कनॉट के आगमन के साथ ही अवध में जलियांवाला बाग जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति शुरू हो गयी है, जिसमें जनता को कुछ भी न समझते हुए न केवल उसके अधिकारों और आत्मा को अत्यंत निरंकुशता के साथ पैरों तले रौंदा, बल्कि उसकी मान-मर्यादा का भी विध्वंस किया जा रहा है. डायर ने जलियांवाला बाग में जो कुछ भी किया था, रायबरेली के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ने मुंशीगंज में उससे कुछ कम नहीं किया. वहां एक घिरा हुआ बाग था और सई नदी का किनारा तथा क्रूरता, निर्दयता और पशुता की मात्रा में किसी प्रकार की कमी नहीं थी.’

यही नहीं, ‘प्रताप’ ने रायबरेली के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट एजी शेरिफ के चहेते एमएलसी और खुरेहटी के तालुकेदार वीरपाल सिंह की, जिसने मुंशीगंज में किसानों पर फायरिंग की शुरुआत की थी, ‘कीर्ति कथा’ छापते हुए उसे ‘डायर का भाई’ बताया और यह भी लिखा कि ‘देश के दुर्भाग्य से इस भारतीय ने ही सर्वाधिक गोलियां चलाईं.’ फिर तो अंग्रेजों ने वीरपाल सिंह को मोहरा बना प्रताप के संपादक व मुद्रक को मानहानि का नोटिस भिजवाया और क्षमा याचना न करने पर रायबरेली के सर्किट मजिस्ट्रेट की अदालत में मुकदमा दायर करा दिया. इस मुकदमे में सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यासकार और अधिवक्ता वृंदावनलाल वर्मा ने ‘प्रताप’ की पैरवी की. उन्होंने 65 गवाह पेश कराये, जिनमें मोतीलाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू और विश्वंभरनाथ त्रिपाठी आदि के अलावा किसान और महिलाएं भी थीं.

रायबरेली के कई डॉक्टरों, वकीलों और म्युनिसिपल कमिश्नरों ने भी ‘प्रताप’ की खबरों और विश्लेषणों की सच्चाई की पुष्टि की. बाद में जिरह में गणेश शंकर विद्यार्थी ने खुद भी मजबूती से अपना पक्ष रखा और लिखित उत्तर में कहा कि उन्होंने जो कुछ भी छापा, वह जनहित में था और उसके पीछे संपादक या लेखक का कोई खराब विचार नहीं था. यहां तक कि वे वीरपाल को व्यक्तिगत रूप से जानते तक नहीं थे. बाइस मार्च, 1921 को अपनी बहस में वृंदावनलाल वर्मा ने भी उनका जोरदार बचाव किया. फिर भी, 30 जुलाई, 1921 को अव्वल दर्जा मजिस्ट्रेट मकसूद अली खां ने ‘प्रताप’ के संपादक व मुद्रक दोनों को एक-एक हजार रुपये का जुर्माना और छह-छह महीने कैद की सजा सुना दी. परंतु, न ‘प्रताप’ ने अपना रास्ता बदला, न ही गणेश शंकर विद्यार्थी ने. अपने संपादन काल में विद्यार्थी पांच बार जेल गये और ‘प्रताप’ से बार-बार जमानत मांगी गयी. परंतु उन्होंने विदेशी सत्ता के प्रतिरोध का रास्ता नहीं छोड़ा.

Next Article

Exit mobile version