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संशोधित बीजों पर नीति बनाना मुश्किल

Genetically Modified Seeds : यूपीए सरकार के दौरान बीटी बैंगन के वाणिज्यिक विमोचन के संबंध में तत्कालीन पर्यावरण एवं वन मंत्री जयराम रमेश के साथ सार्वजनिक सुनवाई हुई थी. सुनवाई के अंत में उन्होंने सुरक्षा चिंताओं का हवाला देते हुए बीटी बैंगन के वाणिज्यिक रिलीज पर रोक लगा दी थी.

Genetically Modified Seeds : हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में आनुवंशिक रूप से संशोधित (जेनेटिकली मोडीफाइड- जीएम) सरसों की व्यावसायिक खेती के संबंध में एक विभाजित निर्णय दिया है. न्यायमूर्ति नागरत्ना ने अनुमोदन प्रक्रिया में खामियों तथा पर्यावरण और स्वास्थ्य प्रभावों पर पर्याप्त विचार की कमी का हवाला देते हुए जीएम सरसों की व्यावसायिक बिक्री और पर्यावरण रिलीज के खिलाफ फैसला सुनाया, तो न्यायमूर्ति करोल ने फील्ड ट्रायल जारी रखने का समर्थन किया, पर, यह जोर दिया कि सख्त सुरक्षा उपायों के साथ आगे बढ़ना चाहिए. जीएम फसलों की व्यावसायिक खेती के संबंध में यह मामला (सुमन सहाय और अरुणा रोड्रिग्स और अन्य बनाम भारत सरकार एवं अन्य) 2004 से सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है, लेकिन जीएम फसलों के पैरोकार व्यावसायिक रिलीज के लिए अदालती मंजूरी अभी तक नहीं ले पाये. इस मामले से कई विवादास्पद मुद्दे जुड़े हैं, जिन पर अदालत निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पायी है. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बीते 23 जुलाई को दिया गया विभाजित निर्णय एक बार फिर मामले की जटिलताओं को दर्शाता है.


न्यायालय ने सरकार को विभिन्न हितधारकों और विशेषज्ञों के साथ परामर्श के बाद चार माह के भीतर जीएम पर नीति तैयार करने का निर्देश दिया है. यह एक ऐसा मुद्दा है, जिसने देश और दुनिया में बीते ढाई दशक से भी अधिक समय से भारी बहस पैदा की है, जहां विशेषज्ञ विभाजित हैं और लोग चिंतित हैं, जहां एक मजबूत नियामक तंत्र का अभाव है और इसके कारण न्यायालय जीएम के पक्ष में निर्णय देने के लिए तैयार नहीं है, जीएम फसलों के स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए सुरक्षित होने के भी सबूत नहीं हैं, कई देशों ने पहले ही प्रतिबंध लगाया हुआ है. ऐसे में बहुत कम संभावना है कि सरकार चार माह में राष्ट्रीय नीति तैयार करने का कार्य पूरा कर पायेगी. यह पहली बार नहीं है कि जीएम फसलों के लिए परामर्श तंत्र अपनाया जा रहा है.

यूपीए सरकार के दौरान बीटी बैंगन के वाणिज्यिक विमोचन के संबंध में तत्कालीन पर्यावरण एवं वन मंत्री जयराम रमेश के साथ सार्वजनिक सुनवाई हुई थी. सुनवाई के अंत में उन्होंने सुरक्षा चिंताओं का हवाला देते हुए बीटी बैंगन के वाणिज्यिक रिलीज पर रोक लगा दी थी. न्यायालय ने सरकार को परामर्श आयोजित करने का निर्देश दिया है, इस संदर्भ में प्रश्न यह है कि इन परामर्शों की संरचना क्या हो सकती है. सर्वोच्च न्यायालय की तकनीकी विशेषज्ञ समिति ने कई विवादास्पद मुद्दों को लंबे समय से सूचीबद्ध किया है, जो परामर्श प्रक्रिया का आधार बन सकते हैं और निष्कर्ष पर पहुंचने में मदद कर सकते हैं.


सबसे पहला मुद्दा, जिस पर विशेषज्ञों में सहमति का अभाव है, जीएम फसलों की उच्च उत्पादकता का दावा है. सरकार और जीएम समर्थकों का तर्क है कि देश बड़ी मात्रा में खाद्य तेलों का आयात कर रहा है, जिनमें से अधिकांश जीएम तेल हैं. सरकार का दावा है कि डीएमएच 11 को अपनाने से आयात पर निर्भरता कम करने और अधिक उत्पादकता के कारण किसानों की आय बढ़ाने में मदद मिल सकती है. लेकिन डीएमएच 11 के अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार भी इसकी उत्पादकता 2200 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से अधिक नहीं है. देश में सरसों की कई अन्य संकर किस्मों की अपेक्षित उपज 2500 से 4000 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक है.

भारतीय सरसों और रेपसीड संस्थान के पूर्व निदेशक डॉ धीरज सिंह के एक शोध पत्र के अनुसार, राजस्थान में किसानों द्वारा उगायी गयीं किस्मों- आरएस 1706, आरएच 1424 और आरएच 725 की उत्पादकता (जैसा सरकार ने खुद घोषित किया है) क्रमशः 2613, 2604 और 2642 किलोग्राम है. विवाद का दूसरा मुद्दा बौद्धिक संपदा अधिकारों का है. किसान संगठनों को चिंता है कि एक बार अपनाने के बाद बीज पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का एकाधिकार हो जायेगा और किसानों पर बीजों पर रॉयल्टी के रूप में बोझ बढ़ जायेगा. ये आशंकाएं बेवजह नहीं हैं. किसानों को असफल बीटी कपास के बीज के लिए बहुत अधिक कीमत (लगभग 8000 करोड़ रुपये) चुकानी पड़ी थी, क्योंकि उस बीज की कीमत का एक बड़ा हिस्सा विशेषता शुल्क था. डीएमएच 11 बीज को स्वदेशी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, पर उसमें भी बायर कंपनी की प्रौद्योगिकी के कुछ गुणों का उपयोग किया गया है, जिसके कारण बौद्धिक संपदा का विषय किसान हितों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है.


तीसरा महत्वपूर्ण मुद्दा अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर प्रभाव का है. जीएम समर्थक बिना किसी वैध तर्क के दावा करते हैं कि इससे आयातित खाद्य तेलों पर हमारी निर्भरता कम हो जायेगी, तथ्य यह है कि खाद्य फसलों में जीएम अपनाने के बाद हम अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भी अपना लाभ खो सकते हैं. आज हम गैर-जीएम टैग के कारण लगभग 54 अरब डॉलर मूल्य के खाद्य उत्पादों का निर्यात कर रहे हैं. जब खाद्य पदार्थों में जीएम की अनुमति दे दी जायेगी, तो हम इस महत्वपूर्ण लाभ को खो देंगे, क्योंकि आयात करने वाले देश, जहां जीएम की अनुमति नहीं है, भारतीय खाद्य आयातों पर प्रतिबंध लगा सकते हैं. चौथा विवादास्पद मुद्दा जीएम बीजों के भारतीय खाद्य और आयुर्वेद पर प्रभाव के बारे में है. जीएम फसलें खाद्य पदार्थों की उपलब्धता को बदल देती हैं, जो हमारे भोजन का आवश्यक हिस्सा हैं, मसलन- सरसों का साग. भारतीय सरसों के आयुर्वेद में कई औषधीय उपयोग हैं, जिन्हें हम खो सकते हैं. पांचवां मुद्दा शाकनाशी सहिष्णुता है. लगभग 88 प्रतिशत जीएम फसलों को शाकनाशी (हरबिसाइड) सहनशील बनाया गया है.

इसका मतलब है, ये फसलें शाकनाशियों के उपयोग को बढ़ाती हैं, जिससे विषाक्तता बढ़ जाती है. लगभग सभी प्रमुख शाकनाशी कैंसरकारी साबित हुए हैं. यह खेद की बात है कि जीएम सरसों के शाकनाशी सहनशील होने के तथ्य को शुरू में छुपाया गया था. डीएमएच11 के परीक्षण के दौरान इसकी शाकनाशी सहिष्णुता के बारे में कोई परीक्षण नहीं किया गया था. जब यह कृत्य उजागर हुआ, तो समिति ने हास्यास्पद शर्त लगा दी कि किसी भी स्थिति में किसान खरपतवारनाशकों का इस्तेमाल नहीं करेंगे.विवादास्पद मुद्दों की सूची में कई अन्य बिंदु शामिल हैं, जैसे- बीज संप्रभुता, जैव विविधता, उपभोक्ता संरक्षण व विकल्पों, खाद्य सुरक्षा, खाद्य संप्रभुता और पोषण सुरक्षा पर प्रभाव, हितों के टकराव का मुद्दा, स्वतंत्र परीक्षण का अभाव और खरपतवारनाशकों के प्रति सहनशील जीएमओ के उपयोग से संबंधित सामाजिक-आर्थिक विचार और मधुमक्खियों पर इनके दुष्प्रभाव. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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