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जरूरी है लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ना

यह मामला केवल इतना भर नहीं है कि लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु बढ़ाने से समाज से रूढ़िवादिता हटेगी, बल्कि यह एक स्वस्थ भावी पीढ़ी के निर्माण और राष्ट्र के विकास के लिए भी जरूरी है.

ऋतु सारस्वत, समाजशास्त्री

dr.ritusaraswat.ajm@gmail.com

लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र बढ़ाने को लेकर तीन संदर्भ में बात होनी चाहिए. पहला, न्यूनतम आयु को लेकर पहली बार यह प्रश्न उठा था कि लड़के और लड़कियों के विवाह की निर्धारित आयु में अंतर क्यों है? इसे लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गयी और कहा गया कि यह समानता के संवैधानिक अधिकार के विरुद्ध है. दूसरी बात, मुस्लिम पर्सनल लाॅ के अनुसार, लड़की के रजस्वला हो जाने के बाद उसकी विवाह की अनुमति है. यह गुजरात उच्च न्यायालय का 2014 का निर्णय है. तीसरी बात, विवाह की न्यूनतम उम्र बढ़ाने की बात इसलिए उठी है, क्योंकि वैज्ञानिक रूप से यह प्रमाणित हो चुका है कि कम आयु में मां बनने पर लड़की के जीवन को खतरा रहता है.

कम आयु में विवाह होने पर लड़कियां घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं, क्योंकि उनसे शिक्षा का अधिकार छीन लिया जाता है. जब लड़कियां शिक्षित नहीं होंगी, तो आर्थिक तौर पर स्वावलंबी भी नहीं होंगी. कम आयु में विवाह होने पर लड़कियों में आत्मविश्वास की भी कमी हो जाती है. आत्मविश्वास न होने पर मनुष्य आत्मसम्मान के साथ जीवित नहीं रह पाता है. व्यक्ति की आवश्यकता केवल रोटी, कपड़ा और मकान ही नहीं है, बल्कि उसके आत्मसम्मान का बने रहना भी आवश्यक है.

आंकड़ों के अनुसार, हमारे देश में 27 प्रतिशत लड़कियों का विवाह किशोरवय में हो जाता है. लगभग सात प्रतिशत लड़कियों की शादी 15 वर्ष से पहले हो जाती है. तो, जो शेष लड़कियां हैं, न्यूनतम आयु बढ़ने के बाद कम से कम उनकी शादी तो 18 वर्ष के बाद होगी. यदि ऐसा होता है, तो उनके उच्च शिक्षित होने की संभावना बढ़ जायेगी. उनके साथ होनेवाले दुर्व्यवहार में कमी आयेगी, क्योंकि 18 से 21 वर्ष की समयावधि में व्यक्ति किशोरावस्था को पार कर युवावस्था की तरफ बढ़ और मानसिक तौर पर परिपक्व हो रहा होता है. वह शारीरिक और मानसिक तौर पर अपने को अधिक मजबूत महसूस करता है.

उसकी निर्णय लेने की क्षमता भी बढ़ चुकी होती है, जबकि यदि एक लड़की कम आयु में मां बनती है, तो उसके जीवन जीने की संभावना कम हो जाती है. यदि वह जीवित रहती भी है, तो उसका बच्चा कुपोषित होता है. ऐसी बच्चियां घरेलू हिंसा का बहुत अधिक शिकार होती हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े भी कहते हैं कि किशोरावस्था में एक लड़की के गर्भवती होने पर उसमें खून की कमी, एचआइवी जैसी बीमारियां होने की आशंका बढ़ जाती हैं. कम आयु में विवाह और प्रसव होने के बाद लड़कियों के अवसाद जैसे मानसिक विकार से ग्रस्त होने की भी बहुत ज्यादा संभावना रहती है.

विवाह की न्यूनतम आयु बढ़ाने का मुख्य उद्देश्य बेटियों को न केवल शिक्षित होने का मौका देना है, बल्कि बच्चे कुपोषित जन्म न लें, इस पर भी ध्यान रखना है. किशोरवय में जब लड़की मां बनती है, तो उसके बच्चे के जन्म लेने की संभावना भी कम हो जाती है, क्योंकि उसमें रक्त अल्पता होती है. यदि वह बच भी जाता है, तो कुपोषित रहता है और कुपोषित शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का विकास संभव नहीं है. दूसरी बात, एक शिक्षित मां ही अपने बच्चे के लिए शिक्षा के द्वार खोल सकती है. शिक्षा का अभाव सभी प्रकार की रूढ़िवादिता को जन्म देता है.

शिक्षा हमें भ्रम, तर्क विहीनता, अंधविश्वास और रूढ़ियों से मुक्ति दिलाता है. हमारे भीतर तर्कशीलता का भाव उत्पन्न करता है. मां यदि स्वयं शिक्षित नहीं है और आत्मसम्मान की स्वयं रक्षा नहीं कर पा रही है, तो वह कैसे अपने बच्चे को सर्वांगीण नागरिक बना सकेगी. इस स्थिति में देश का विकास ही अवरुद्ध हो जाता है. मामला केवल इतना नहीं है कि विवाह की न्यूनतम आयु बढ़ाने से समाज से रूढ़िवादिता हटेगी, बल्कि यह एक स्वस्थ भावी पीढ़ी के निर्माण और राष्ट्र के विकास के लिए भी जरूरी है. इस दिशा में ठोस व मजबूत पहल की जरूरत है.

आज जब हम लैंगिक समानता की बात कर रहे हैं, तो बेटियों के जीवन को बचाने की बात भी करनी जरूरी है. जब उनका जीवन बचेगा, तभी तो लैंगिक समानता की बात उठेगी. जब लड़कियां आत्मसम्मान को बचा कर रख पायेंगी, अपने अधिकारों के लिए भी लड़ पायेंगी. आप बेटियों को तमाम तरह के अधिकार दे दीजिए, लेकिन जब उन्हें पाने की समझ ही उनके भीतर पैदा नहीं होगी, तो वे अपने अधिकारों के लिए कैसे लड़ पायेंगी? जब मां अपने अधिकारों के प्रति सजग नहीं होगी, तो अपने बच्चों को कैसे सजग बना पायेगी?

समाज में जब भी परिवर्तन होता है, तो उसका विरोध होता है. इस बदलाव का भी विरोध होना तय है. विरोध का स्वरूप परिवर्तित करने और उसे सकारात्मक दिशा देने के लिए आमजन के मन में जो संशय है, उसे दूर करना आवश्यक है. किशोरवय में ब्याह के नुकसान के बारे में लोगों को जानकारी देने के भी सरकारी प्रयास होने चाहिए. स्कूलों में भी छात्र-छात्राओं को जागरूक किया जाना चाहिए.

इसके अलावा वर्ष में दो या तीन दिन निश्चित कर अभिभावकों को भी इसके विविध पहलुओं से अवगत कराने का प्रयास किया जाना चाहिए. ऐसे कदमों से यकीनन किशोरवय में विवाह में कमी आयेगी क्योंकि ऐसे विवाह करने का मूल मंतव्य बेटियों को नुकसान पहुंचाना नहीं, बल्कि अपने दायित्वों से मुक्ति पाना है.

(बातचीत पर आधारित)

Posted by : Pritish Sahay

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