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उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए अच्छी पहल

इस पहल का उद्देश्य है कि क्लासरूम में पढ़ाई के साथ-साथ छात्रों की बाह्य जगत के लिए भी तैयारी होती रहे. पर इसके लिए आवश्यक है कि इंडस्ट्री और एकेडेमिया आपस में बातचीत करें, सहयोग करें.

यूजीसी ने इंडस्ट्री एवं अन्य क्षेत्रों के पेशेवर विशेषज्ञों को अकादमिक संस्थानों में लाने के लिए नयी पहल की है. इसके लिए एक नयी श्रेणी का पद बनाया है, जिसे प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस नाम दिया गया है. विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस की नियुक्ति के प्रस्ताव को मंजूरी भी मिल गयी है, जो एक प्रशंसनीय पहल है. इस पहल से वास्तविक दुनिया के कार्यों एवं अनुभवों को क्लासरूम तक लाने में सहायता मिलेगी और उच्च शिक्षण संस्थानों में फैकल्टी रिसोर्सेज का संवर्धन होगा.

इस पहल का उद्देश्य है कि क्लासरूम में पढ़ाई के साथ-साथ छात्रों की बाह्य जगत के लिए भी तैयारी होती रहे. पर इसके लिए आवश्यक है कि इंडस्ट्री और एकेडेमिया आपस में बातचीत करें, सहयोग करें. जब पाठ्यक्रम बनाये जाएं, तो उसमें इस बात का ध्यान रखा जाये कि पढ़ाई के बाद जब छात्र बाहर की दुनिया में जाएं, वहां जाकर जब नवाचार करें, नौकरी करें, किसी इंडस्ट्री या प्रोडक्शन हाउस से जुड़ें, तो ये उसके उपयुक्त हों.

इंजीनियर, डॉक्टर समेत बाकी जो भी ग्रेजुएट्स हैं, वे जब मार्केट में जाएं, तो उनको लेने वाले वहां तैयार हों और इसे लेकर निश्चिंत हों कि इन ग्रेजुएट्स को वे कौशल आते हैं, जिनकी उन्हें आवश्यकता है. मान लीजिए कोई केमिस्ट्री पढ़ रहा है, तो वह स्टील इंडस्ट्री के बारे में जाने-समझे, उसकी व्यावहारिकता से परिचित हो जाये. कोई बायोलॉजी पढ़ रहा है, तो उससे संबंधित उपकरण जहां बनते हैं, उस इंडस्ट्री से उसका कहीं न कहीं जुड़ाव हो जाये, उसे वो जाने-समझे.

जब छात्र इन चीजों को समझेंगे तो उनके अंदर नये-नये विचार आयेंगे और वे नवाचार की ओर प्रवृत्त होंगे. तो प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस का मतलब है, अध्ययन के साथ-साथ जो व्यावहारिकता है, जो जीवन में उपयोगिता है, उन दोनों के बीच समन्वय स्थापित करना. समन्वय स्थापित होने का अर्थ है विषयों को पढ़ाने वाले और शोध कराने वाले के साथ ही, विश्वविद्यालय में ऐसे लोगों को भी लाना जिन्हें संबंधित विषय का व्यापक स्तर पर ज्ञान ताे हो ही, उन्हें उस विषय से संबंधित अनुभव भी हो.

ऐसा व्यक्ति जब युवाओं के सामने आयेगा, तो युवा उससे प्रभावित होंगे. दूसरे, वो बतायेगा कि संबंधित विषय के पाठ्यक्रम में, गतिविधियों में, प्रोजेक्ट में किस तरह का परिवर्तन किया जाए, ताकि छात्रों के भीतर वो कुशलता विकसित हो सके, जिससे वे उन्हें अपने यहां लेने के लिए तैयार हो जायें. या उन्हें जीवन में इधर-उधर भटकना ना पड़े.

विश्वविद्यालय को जब कभी लगे कि अमुक व्यक्ति अगर मेरे यहां थोड़े दिन के लिए आ जाये, तो मेरी प्रतिष्ठा बढ़ जायेगी, छात्रों को बहुत सी जानकारी मिल जायेगी, वे व्यावहारिकता सीख जायेंगे, तो ऐसी व्यवस्था बननी चाहिए. यह आवश्यक भी है. ऐसे व्यक्ति को विश्वविद्यालय में नियुक्त करते समय उसे छोटे-छोटे नियमों में नहीं बांधा जाना चाहिए.

जो व्यक्ति प्रतिष्ठित है और जिसे हम विश्वविद्यालय से जुड़ने के लिए राजी कर सकते हैं, उन्हें नियुक्त किया जाना चाहिए. जैसा पंडित मदन मोहन मालवीय ने किया था. मालवीय जी जब काशी हिंदू विश्वविद्यालय में नियुक्ति कर रहे थे, तो वे तमाम विशेषज्ञों के पास गये और आग्रह किया कि आप हमारे विश्वविद्यालय से जुड़ जाइए. मालवीय जी की साख और प्रतिष्ठा के कारण लोग काशी विश्वविद्यालय आये और अपना जीवन इस विश्वविद्यालय में समर्पित कर गये.

बहुत से लोग जो चार गुना कमा रहे थे, वे एक चौथाई पर विश्वविद्यालय में सेवा देने को तैयार हुए, क्योंकि वह देशहित में था. मालवीय जी ऐसे-ऐसे लोगों को लाये जो उस समय केवल बीए पास थे. ऐसे लोग भी अपने ज्ञान, कौशल, प्रतिष्ठा और योगदान के आधार पर प्रोफेसर हो गये और नाम कमा गये. तो ऐसे लोगों को प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस नियुक्त किया जाना चाहिए, जो देशहित में यह सब काम करें.

इस योजना की सफलता विश्वविद्यालय का जो नेतृत्व है, जैसे कुलपति या एग्जिक्यूटिव काउंसिल, उसके ऊपर निर्भर करेगा. नेतृत्व पूरी पारदर्शिता के साथ विशेषज्ञों को चिह्नित करे, उनसे चर्चा करे. इसमें हमें नियमों में नहीं बंधना चाहिए, औपचारिकताओं से दूर हट कर नियुक्ति करनी चाहिए. जैसे बहुत से लोग ऐसे भी होंगे जो विश्वविद्यालय में प्रतिदिन आने को तैयार नहीं होंगे, वहीं कुछ ऐसे भी होंगे जिनका एक बार आ जाना ही लोगों को प्रेरित कर सकता है.

इस योजना की सफलता के लिए, इस तरह के प्रावधान भी रखने होंगे. जैसे, रतन टाटा यदि किसी विश्वविद्यालय में जाकर एक दिन बोलें और उसे एक हजार विद्यार्थी सुनें, तो कम से कम चालीस-पचास तो ऐसे निकलेंगे जिनका दृष्टिकोण परिवर्तित हो जायेगा. यह अपने आप में बड़ी बात होगी. ऐसे लोग विद्यार्थियों के लिए प्रेरणास्रोत बन जायेंगे.

प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस विद्यार्थियों के लिए प्रेरणास्रोत बनें, इसका ध्यान सबसे पहले रखा जाना चाहिए. जहां तक विश्वविद्यालयों में गेस्ट लेक्चरर की व्यवस्था की बात है, तो वह अस्वीकार्य व्यवस्था है. प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस का गेस्ट लेक्चरर वाली योजना से कोई संबंध नहीं है. इसमें तो ऐसे वरिष्ठ लोग होंगे, जो केवल देशहित में आपके पास आने को तैयार होंगे.

मेरे विचार से विश्वविद्यालय में कुलपति पद पर ऐसे व्यक्तियों की नियुक्ति होनी चाहिए जिनकी ईमानदारी, कर्मठता, लगनशीलता और समर्पण के संबंध में कोई संदेह न हो. ऐसे व्यक्ति ही देश और विदेश में उन विशेषज्ञों की खोज कर सकते हैं, जो उनके विश्वविद्यालय में आकर वहां की स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, उनके छात्रों के प्रेरणास्रोत बन सकें. और इसके लिए उन्हें पूरी आजादी होनी चाहिए, उनके पास अधिकार होना चाहिए ऐसे व्यक्तियों को आमंत्रित करके लाने का, जहां तक संभव हो, उनकी नियुक्ति करने का भी.

कहने का अर्थ है कि प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस की खोज तो हो, साथ ही कुलपति को लेकर भी एक अच्छी व्यवस्था बननी चाहिए. जो व्यक्ति अपने क्षेत्र में नाम कमा चुका हो, केवल विद्वता में ही नहीं, बल्कि उसकी कर्मठता, ईमानदारी, मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पण, उसका व्यावहारिक आचरण भी अनुकरणीय हो. अनुकरणीय आचरण के व्यक्ति ही प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस योजना को सही तरीके से लागू कर पायेंगे और इसके लिए सही व्यक्ति का चुनाव कर पायेंगे.(बातचीत पर आधारित)

(ये लेखक के निजी िवचार है़)

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