गरीबों तक तेजी से पहुंचे अनाज

अजीत रानाडे सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन editor@thebillionpress.org एक मार्च के आधिकारिक आंकड़े के अनुसार, भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) के गोदामों में 7.77 करोड़ टन खाद्यान्न जमा थे. इसमें 2.75 करोड़ टन गेहूं और 5.02 करोड़ टन चावल शामिल है. चावल के भंडार में बड़ी मात्रा धान की भी है. सरकार के पास अन्न की यह […]

By अजीत रानाडे | April 16, 2020 8:15 AM
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अजीत रानाडे

सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन

editor@thebillionpress.org

एक मार्च के आधिकारिक आंकड़े के अनुसार, भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) के गोदामों में 7.77 करोड़ टन खाद्यान्न जमा थे. इसमें 2.75 करोड़ टन गेहूं और 5.02 करोड़ टन चावल शामिल है. चावल के भंडार में बड़ी मात्रा धान की भी है. सरकार के पास अन्न की यह मात्रा अब तक के सबसे ऊंचे स्तरों में एक है, जो सरकार द्वारा तय किये मानकों से भी बहुत ज्यादा है. काबिलेगौर है कि यह स्थिति रबी की उस फसल से पहले की है, जो इस बार काफी अच्छी होनेवाली है और सरकार को उससे भी खरीद करनी है. भारत में बढ़ती भूख और अनाज के संकट के बीच सरकार के पास मौजूद अन्न का यह विशाल भंडार भारत की एक अनोखी विडंबना है, जो इसके पहले भी कई बार सामने आ चुकी है.सरकार द्वारा खाद्यान्नों की खरीद और जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) की व्यवस्था के तीन उद्देश्य हैं: खाद्य सुरक्षा, खाद्य मूल्य स्थिरता तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के आधार पर किसानों के लिए पर्याप्त आय सुनिश्चित करना. एक ही साधन से इन तीनों साध्यों को साधने में एक अंतर्निहित खामी है.

इसके अलावा, यदि देश की विशाल नौकरशाही की अकुशलता, केंद्र तथा राज्यों की एजेंसियों के बीच समन्वय का अभाव, अनाजों की चोरी और बर्बादी और भंडारण क्षमता के नाकाफी होने को खाद्य पदार्थों के आयात-निर्यात को लेकर बगैर सोचे-समझे किये गये फैसले जैसे अन्य कारकों से जोड़ दिया जाये, तो इसमें कोई हैरत नहीं होनी चाहिए कि क्यों यह विशाल व्यवस्था भारत में भूख और पोषण की समस्याओं को हल करने में विफल रही है. पिछले वर्ष वैश्विक भूख सूचकांक पर 117 देशों के बीच नौ पायदान फिसल कर भारत की स्थिति 102 थी. तब सरकार ने इस रैंकिंग का विरोध करते हुए यह कहा था कि इसकी गणना प्रणाली में खामी है और इसने पुराने आंकड़े इस्तेमाल किये हैं. मगर स्वयं सरकार के ही अनुसार इस रैंकिंग में भारत 91वें पायदान पर होना चाहिए था, जिसे भी शायद ही गर्व करने लायक कहा जा सकता है.

अब कोविड-19 महामारी के बीच खाद्य सुरक्षा की समस्या और भी भीषण बन गयी है. लाखों प्रवासी मजदूरों और कई शहरों से अपने घरों की ओर वापस लौटते देखा गया. शहरी गरीबों समेत ये सब उस कमजोर वर्ग के लोग हैं, जो अपनी आजीविका छिन जाने के साथ अचानक ही खाद्य असुरक्षा के शिकार हो गये. सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर यह अनुरोध किया गया कि वह सरकार को तुरंत इन कामगारों और उनके परिवारों की तकलीफें दूर करने का निर्देश दे. अपने जवाब में सरकार ने निजी कंपनियों, गैर-सरकारी संगठनों तथा राज्य सरकारों के संयुक्त प्रयासों का हवाला देते हुए यह कहा कि ‘कुल मिलाकर 85 लाख से भी अधिक लोगों को खाद्य अथवा राशन मुहैया किया जा रहा है.’

मगर यह भी दयनीय रूप से नाकाफी है, क्योंकि खाद्य असुरक्षा झेल रहे लोगों की तादाद चार करोड़ से भी ज्यादा हो सकती है. हालांकि सरकार ने यथासंभव अधिकाधिक राहत देने की कोशिश की है, पर उसे और ज्यादा करने की जरूरत है. मिसाल के तौर पर, उसे इन कोशिशों में स्वयंसेवी समूहों को बड़ी संख्या में शामिल करना चाहिए था, ताकि वे सामुदायिक रसोइयों का संचालन कर शहरी और ग्रामीण इलाकों में पकाये भोजन या सूखे राशन का वितरण कर सकें. मगर इसके लिए ऐसे समूहों को नाममात्र की कीमत पर अथवा पूरी तरह मुफ्त में खाद्यान्न देने के अलावा तेल, सब्जियां और मसाले खरीदने हेतु अतिरिक्त आर्थिक मदद देने की जरूरत थी.

अभी तक जारी सरकारी निदेश के अनुसार स्थिति यही है कि एफसीआइ ‘खुला बाजार विक्रय योजना’ के अंतर्गत ही खाद्यान्न बेचेगा. इसकी दरें वास्तव में न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी ऊंची होने की वजह से ये संगठन ये खाद्यान्न हासिल नहीं कर सकते. फिर, राशन कार्ड धारकों के साथ ही सार्वजनिक वितरण प्रणाली का राशन उन्हें भी मुहैया करने की जरूरत है, जिनके पास ये कार्ड नहीं हैं. वरना, खाद्य संकट बदतर होते हुए भुखमरी या भोजन के लिए दंगों की वजह बन जायेगा. गरीबों के अलावा लॉकडाउन के वक्त देश जहां-तहां निम्न आय के लोगों के लिए भी खाद्यान के अभाव की स्थिति तक पहुंच सकता है. ऐसी रिपोर्टें हैं कि गेहूं, कामगारों और पैकेजिंग सामग्रियों के अभाव के कारण आटा मिलें अपनी चौथाई क्षमता पर ही उत्पादन कर रही हैं.

देश में इन मिलों की संख्या लगभग ढाई हजार है, जो सब मिल कर ढाई करोड़ टन आटा, सूजी और मैदा उत्पादित करती हैं. ऐसी कई मिलें इसलिए भी बंद पड़ी हैं, क्योंकि ट्रकों की आवाजाही ठप पड़ जाने की वजह से उनकी कार्यशील पूंजी उनके द्वारा उत्पादित बिस्किटों और ब्रेडों के रुके पड़े तैयार माल में फंस गयी है. हालांकि सरकार ने ट्रकों द्वारा ढुलाई की अनुमति देने में सक्रियता दिखायी है, पर सरकार के विभिन्न स्तरों और कई जगहों पर प्रशासनिक कार्रवाइयों में समन्वय की कमी से यह अनुमति समान रूप से लागू नहीं हो सकी है.

कोविड महामारी के पूर्व बीते अगस्त महीने में भी सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कर यह अनुरोध किया गया था कि वह राज्य समर्थित सामुदायिक किचेन का एक राष्ट्रीय ग्रिड स्थापित करने का निर्देश देते हुए शहरी एवं ग्रामीण गरीबों के साथ ही, जिनके पास राशन कार्ड नहीं हैं, उनके लिए भी खाद्य और पोषण की सुरक्षा सुनिश्चित कराये. इस याचिका ने तमिलनाडु, उत्तराखंड, ओडिशा, झारखंड और दिल्ली में चल रहे सूप किचेनों और कैंटीनों के संदर्भ में यह प्रस्ताव किया था कि ये ‘मध्याह्न भोजन योजना’ के पूरक के रूप में काम करें.

अभी हालत यह है कि तीन वर्ष पूर्व सरकार द्वारा शुरू किया गया ‘पोषण अभियान’ बीते दिसंबर तक अपने इस वर्ष के बजटीय फंड का सिर्फ 37 प्रतिशत ही खर्च कर सका था. ऐसे में स्पष्ट है कि भारत से भूख का खात्मा एक बड़ी मुश्किल चुनौती है. कोविड महामारी के इस प्रकोप काल में खाद्य असुरक्षा एक फौरी संकट के रूप में सामने आयी है. सौभाग्य से हमारे पास अन्न के पहाड़ मौजूद हैं, जिनका तीव्र और विवेकपूर्ण इस्तेमाल इस संकट को बड़ी हद तक सुलझा सकता है. इसलिए चाहे इसका राजकोषीय नतीजा जो भी हो, सरकार को यह अन्न राज्यों और स्वयंसेवी समूहों को शून्य लागत पर देने में बिल्कुल नहीं हिचकिचाना चाहिए.(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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