भाषा की सेटिंग को समझें : अपने-अपने परिवेश में रहते हुए किसी भी व्यक्ति को भाषा के साथ व्याकरण इनबिल्ट पैकेज की तरह मिलता है, जैसे मोबाइल में खूब सारे ऑपरेशनल एप्स भी होते हैं, जिनमें से किसी भी एक को अगर आप डिलीट करते हैं तो मोबाइल की सेटिंग बिगड़ने का खतरा रहता है. हम उन्हें खोल कर, अलग से बरत कर कभी नहीं देखते, मगर वे अपना काम करते रहते हैं. ठीक उसी तरह हमारी वाणी यानी भाषा में व्याकरण अपना काम करता जाता है, पर कभी-कभी उसे समझने की जरूरत पड़ती है.
एप को बरतिये, डिलीट न करें : ‘तुम्हीं’ सही या ‘तुम्ही’ ? ‘तुमहि’ सही या ‘तुमही’ ? ‘तुम ही’ लिखने में क्या बुराई ? ऐसे तमाम सवाल और ऐसी ही अनेक जिज्ञासाएं अनेक बार भाषा को समझ कर बरतने वाले जिज्ञासुओं के मन में उपजती हैं, पर यह तय है कि व्याकरण को अलग से कोई पढ़ना पसंद नहीं करता. संज्ञा, सर्वनाम, प्रत्यय, उपसर्ग, अव्यय, अनुस्वार आदि न जाने कितने एप्स हैं जो भाषा में अपने-अपने ढंग से काम करते हैं. इनकी शिनाख्त की कभी जरूरत नहीं पड़ती.
‘ही’ के बिना गुजारा नहीं : हिंदी में बहुत सारे अव्यय हैं- जैसे ‘अभी’, ‘अब’, ‘ही’, ‘न’, ‘भी’, ‘नहीं’, ‘ओह’ आदि. इनके न जाने कितने भेद, उपभेद हैं. इनमें ‘ही’ और ‘भी’ दो ऐसे अव्यय हैं जिनके बिना कोई संवाद, वाक्य पूरा नहीं होता. उपरोक्त प्रश्न इसी ‘ही’ से जुड़े हैं. दरअसल, संस्कृत में जो ‘हि’ अव्यय है, वही हिंदी में बतौर ‘ही’ मौजूद है. ‘हि’ या ‘ही’ निश्चयात्मक अव्यय हैं. मिसाल के तौर पर ‘नहीं’ के साथ जो ‘ही’ जुड़ा है, वह यही निश्चयात्मक ‘ही’ अव्यय है. आगे इस ‘नहीं’ मिसाल के जरिये ही हमें ऊपर लिखे प्रश्नों का हल समझने में मदद मिलेगी.
‘न’ और ‘नहीं’ का अंतर : वाक्य रचना में अनेक तरह की निषेधात्मक अभिव्यक्तियां होती हैं. नकारवाची संज्ञा, उपसर्ग या अव्यय तक होते हैं. ‘न’ और ‘नहीं’ दोनों ही निषेधवाची अव्यय हैं. दरअसल ‘न’ और ‘ही’ दोनों अलग-अलग अव्यय हैं. ‘न’ में निषेध है और ‘ही’ में निश्चय. मगर संयुक्त होकर ‘नहीं’ अलग अव्यय बन कर निषेध को निश्चयकारी बनाता है. किसी चीज से बरजने, दृढ़ता के साथ विलग रहने की बात. ‘तुम न जाओ’ में सामान्य आग्रह है. ‘तुम्हें नहीं जाना है’ में दृढ़ता के साथ जाना निषिद्ध कर दिया गया है. यह ‘न’ के साथ जुड़े ‘ही’ की महिमा है. ‘ऐसा न करो’ और ‘ऐसा मत करो’ वाला फर्क याद है न!
अनुस्वार की महिमा : ‘न’ और ‘ही’ मिल कर नहीं बनना चाहिए, मगर संयुक्त होकर ‘नहीं’ में बिंदी लग रही है. ऐसा इसलिए क्योंकि यह अनुस्वार है. चूंकि ‘न’ नासिक्य ध्वनि है इसलिए ‘न’ ही के साथ संयुक्त होते ही ‘न’ का प्रभाव ही पर अनुस्वार के रूप में स्वतः आयेगा. इसका चिह्न बिंदी है, तो इस तरह तुम्हीं, हमीं, इन्हीं, उन्हीं में जो अनुस्वार है, वह ‘तुम ही’, ‘हम ही’, ‘इन ही’, ‘उन ही’ से पहले आ रहे ‘न’ या ‘म’ के संयुक्त हो जाने की वजह से है.
तुम ही न सुन सको अगर..: ‘तुम्हीं’ मूलतः ‘तुम ही’ का रूपभेद है. ‘ही’ और ‘तुम’ के साथ संयुक्त होकर दो लोकरूप बनते हैं. उनमें अनुनासिकता नहीं है जैसे ‘तुमहि’ या ‘तुमही’. हमई, तुमई रूप भी हैं. हिंदी की अपनी रवायत है जिसे उर्दू ने बखूबी अपनाया. इन्हीं, हमीं, उन्हीं जैसे रूपों की वजह से शायरी में रवानी आ गयी. कल्पना करें ‘उन ही’, ‘हम ही’ जैसे रूपों वाली कविताई कैसी होती! हालांकि कभी-कभी ‘तुम ही’ जैसे रूपों में ही का अलग से प्रयोग भी खूबसूरत लगता है जैसे- ‘तुम ही न सुन सको अगर, किस्सा ए गम सुनेगा कौन’.
अनुस्वार तो स्वरतंत्र का मामला है : कुछ लोग तुम्ही, हमी, उन्ही भी लिखते हैं, मगर सोचने वाली बात है कि ‘अनुस्वार’ भी भाषा का इनबिल्ट एप है. स्वरतंत्र के साथ स्वतः काम करता है. तुम के साथ ही जुड़ने के बाद उच्चार में ‘म’ की अनुनासिकता ‘ही’ के साथ स्वतः संयुक्त हो जाती है. बिना अनुस्वार के उच्चार करने में कठिनाई होती है. बस यही वजह है कि उन्हीं लिखना ज्यादा सही है. हालांकि, एक अपवाद नन्हा का है. नन्हीं में अनुस्वार लगता है, नन्हा में नहीं. जबकि उसका उच्चार नन्हां की तरह किया जाता है. ऐसे आपवादिक संदर्भ प्रायः हर भाषा में मिलेंगे.
चलते चलते ‘अभी भी’ की बात : भाषा के जिहादी अक्सर कहते हैं कि ‘अभी’ में ‘भी’ शामिल है, सो ‘अभी भी’ प्रयोग गलत है. दरअसल यह हिंदी के चिंदी बजाजों की बेहद जर्जर चिंदी है. हिंदी के तमाम महान साहित्यकारों के यहां भी ‘अभी भी’ का प्रयोग है. इसलिए नहीं कि वे गलत लिखते रहे, प्रचलित पद भी यही है. ‘भी’ अव्यय संस्कृत के ‘अपि’ का विकास है, आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ने सिद्ध किया है. सहज विकास करते हुए हिंदी ने अपने लिए जो वाक्य रचना क्रम तय किया, उसमें ‘अभी’ के साथ ‘भी’ का प्रयोग दृढ़ता प्रकट करने के लिए किया जाता है.
कुल मिला कर : ‘अभी’ अब+ही है. सभी में ‘सब’+’ही’ है ‘भी’ नहीं. ‘अभी’+’भी’ का ‘भी’ पुनरुक्ति नहीं, दृढ़ता के लिए है.और अंत में यह कि चूंकि अभी अब + ही है इसलिए यह कहना व्यर्थ है कि ‘अभी भी’ से ‘भी’ की पुनरुक्ति हो रही है. इसलिए ‘अभी भी’ प्रयोग गलत नहीं है. कोई व्याकरणाचार्य सिद्ध कर दे कि गलत है तो भी यह चलन रुक नहीं सकता क्योंकि इससे आशय स्पष्ट होता है. संस्कृत का अपि समुच्चायक अव्यय है. भी इसका विकास है जबकि ‘अब’ कालवाचक अव्यय है.