चीनी कर्ज का बढ़ता शिकंजा
चीन की रणनीति स्पष्ट है- किसी देश के नेतृत्व को प्रभाव में लेकर कर्ज देना और वहां के संसाधनों और बाजार तक अपनी दीर्घकालिक पहुंच बनाना.
श्रीलंका द्वारा कर्जों की अदायगी न कर पाने के मामले ने दुनिया का ध्यान चीन के कर्ज शिकंजे की ओर एक बार फिर खींचा है. कर्ज की शर्तों में बदलाव करने के श्रीलंकाई अनुरोध को चीन अभी मानने के लिए तैयार नहीं है. कर्ज के शिकंजे (डेट ट्रैप) का मामला पहले के दौर के साहूकारों द्वारा दिये जानेवाले कर्ज की तरह है, जिसे नहीं चुकाने की स्थिति में वे गिरवी रखी चीज पर कब्जा कर लेते थे.
देशों के मामले में ऐसा सीधे नहीं किया जा सकता है क्योंकि संप्रभुता आड़े आ जाती है. जब कोई देश पैसा चुकाने में समर्थ नहीं होता, तो वह या तो मोहलत मांगता है या कर्ज देनेवाला देश परियोजना या संसाधन को लेकर भरपाई करने की कोशिश करता है. जब भी कोई देश किसी देश को कर्ज देता है, तो वह अपना रणनीतिक प्रभाव स्थापित करने तथा अपने हितों को साधने का भी प्रयास करता है.
चूंकि चीन के पास बहुत पैसा है और विकासशील व अविकसित देशों को धन की जरूरत भी है, तो उसने एशिया, लैटिन अमेरिका और अफ्रीका में बड़े पैमाने पर कर्ज दिया हुआ है. उससे कर्ज लेनेवाले देशों की संख्या 130 से अधिक है और उसके अधिकांश कर्ज बेल्ट-रोड परियोजना के तहत दिये गये हैं.
इस संबंध में यह भी उल्लेखनीय है कि निवेश या कर्ज की जरूरत के अलावा कर्जदार देशों के राजनीतिक नेतृत्व को भ्रष्टाचार के जरिये भी लुभाया जाता है. साथ ही, किसी परियोजना को जल्दी पूरा करने की चीन की क्षमता का भी असर पड़ता है. चीन की रणनीति यह रही है कि वह बड़े-बड़े कर्ज दे देता है, जिन्हें चुका पाने में कर्जदार देश असमर्थ हो जाते हैं. इस कारण परिसंपत्तियों के प्रबंधन का सारा काम चीनियों के हाथ में चला जाता है.
श्रीलंका पर अभी 45 अरब डॉलर का विदेशी कर्ज है, जो उसकी नॉमिनल सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का 60 प्रतिशत है. इसमें से कम से कम आठ अरब डॉलर चीन का उधार है. पाकिस्तान का विदेशी कर्ज उसका कुल घरेलू उत्पादन का लगभग 40 फीसदी है. चीन ने वहां भी बड़े पैमाने पर निवेश किया हुआ है. ऐसे कर्ज से अनेक देशों में चीन के प्रति असंतोष भी बढ़ रहा है, जैसे म्यांमार में चीन के पैसे से बन रही परियोजनाओं का कई वर्षों से विरोध हो रहा है.
पाकिस्तान और श्रीलंका में भी सवाल उठाये जा रहे हैं. चीन के ऐसे पैंतरों को अनेक अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने नव-उपनिवेशवाद की संज्ञा दी है. ऐसे कम से कम 30-40 देश हैं, जिनकी जीडीपी का न्यूनतम 20 फीसदी चीनी कर्ज है. पाकिस्तान का तो आधा कर्ज चीन के मार्फत हासिल हुआ है. ऐसे में यह स्वाभाविक है कि जिन देशों में भारी चीनी कर्ज है, वहां इसका असर राजनीतिक निर्णय लेने की प्रक्रिया पर पड़ता है. श्रीलंका इसका ताजा उदाहरण है.
भारत ने पड़ोसी और मित्र देश होने के नाते उसे फौरी राहत देते हुए 912 मिलियन डॉलर का कर्ज मुहैया कराया है. इसके अलावा भारत से खाद्य पदार्थ और ईंधन खरीदने के लिए 1.5 अरब डॉलर की दो क्रेडिट लाइन भी दिया गया है. इसे चीन के बढ़ते वर्चस्व की काट के रूप में भी देखा जा सकता है.
कर्ज के शिकंजे का एक पहलू उस देश की आंतरिक स्थिरता तथा क्षेत्रीय शांति से भी जुड़ा हुआ है. जैसे हमने पहले बात की कि कई देशों में चीन की आर्थिक रणनीति को लेकर असहजता उत्पन्न होने लगी है. उन्हें लगने लगा है कि चीन उनकी आंतरिक परिस्थितियों का लाभ उठाकर राष्ट्रीय संसाधनों के दोहन में लगा हुआ है. इससे चीन को भी परेशानी होने लगी है.
कुछ समय पहले पाकिस्तान में चीन के अनेक लोगों की हत्या हुई थी. उसके बाद चीन ने पाकिस्तानी सुरक्षा व्यवस्था को अपर्याप्त मानते हुए कहा कि उसके लोगों और कारोबार की सुरक्षा का जिम्मा चीनी सुरक्षाकर्मी संभालेंगे तथा उसने अपने लोगों को हथियार आदि दे दिया. अब अगर किसी भी देश में दूसरे देश के लोग हथियार लेकर घूमेंगे और अपना आधिपत्य जमाने की कोशिश करेंगे, तो वहां के लोग इसे स्वीकार नहीं करेंगे.
चीन को लगातार ऐसी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा तथा उन देशों में अस्थिरता का वातावरण बनेगा. जहां तक चीन की कर्ज रणनीति और कूटनीति में अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के हस्तक्षेप का सवाल है, तो यह बड़ा उलझा हुआ मसला है. कुछ समय पहले अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने चीन की बेल्ट-रोड परियोजना के बरक्स बिल्ड बैक बेटर परियोजना लाने की बात कही थी, लेकिन इस पर मुहर नहीं लग सकी है.
यूरोप ने भी गेटवे प्रोजेक्ट लाने की योजना बनायी थी, लेकिन उसमें भी कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है. पश्चिमी देशों का दावा है कि उनका इरादा उगाही करना या संसाधनों पर दखल करना नहीं है, बल्कि यह मूल्य-आधारित सहयोग है. जब तक ये विकल्प ठोस रूप में सामने नहीं आ जाते, चीन को रोक पाना मुश्किल है.
चीन की रणनीति स्पष्ट है- किसी देश के नेतृत्व को प्रभाव में लेकर कर्ज देना और वहां के संसाधनों और बाजार तक अपनी पहुंच बनाना. यह सब वह एक दीर्घकालिक दृष्टिकोण के साथ करता है. यह भी है कि जब पश्चिम के देश उन देशों में जाकर बताते हैं कि यह चीन का नव-उपनिवेशवाद है और इससे सावधान रहना चाहिए, तो यह भी उत्तर मिलता है कि जब आप का शासन हुआ करता था, तब भी तो उपनिवेशवाद था.
इस विश्वास की कमी का फायदा भी चीन को मिलता है. अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जब भी कोई विवादित विषय आता है, तो बहुत सारे देशों के नेता चीन के साथ खड़े हो जाते हैं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि जमीनी स्तर पर उन देशों के नागरिकों में चीनी रवैये को लेकर असंतोष नहीं है. देर-सबेर चीन को उनके रोष का सामना करना पड़ेगा और शायद उसे अपने रुख में बदलाव भी लाना होगा.
दक्षिण एशिया में ही देखें, तो चीन और भारत में इस क्षेत्र में प्रतियोगिता रहती है. श्रीलंका में हंबनटोटा बंदरगाह, जो कई अरब डॉलर की परियोजना है, चीन के हाथ लग सकता है. एक नया बंदरगाह कोलंबो में बनाया जाना है. अब श्रीलंका भारत से मदद की गुहार कर रहा है. मालदीव में भी चीन ने यह पासा फेंका था, पर भारत ने क्रेडिट लाइन मुहैया कर उसे फंसने से बचा लिया. ऐसे वैश्विक प्रयास ही चीनी शिकंजे का प्रतिकार हो सकते हैं, पर ऐसी कोई बड़ी संभावना नहीं दिखती.