हरिशंकर परसाई ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिनको लगातार याद किया जाना चाहिए, बहाना चाहे जो भी हो. उनकी जन्मशती की शुरुआत हो या उनकी सालगिरह, उन्हें याद किया जाना चाहिए. इसकी कई ठोस वजहें हैं. परसाई से पहले व्यंग्य को हिंदी साहित्य में कोई खास स्थान नहीं दिया जाता था. परसाई ने अपने लेखन की लोकप्रियता से खुद को मनवाया, खुद को पढ़वाया. कोई लेखक अपने पाठक खुद बना ले, तो उसके पीछे आलोचक वगैरह को आना पड़ता है. ना आयें, तो भी कोई फर्क ना पड़ता. परसाई पर उसने लिखा, उसने ना लिखा, यह बेकार की बहस है, परसाई पर कोई ना लिखे, तो भी वह अपने लिखे के बूते पर हिंदी साहित्य में स्थापित हैं.
परसाई की चिंतन दृष्टि वाम की तरफ झुकाव वाली थी, पर वाम के छद्म को भी उन्होंने पर्याप्त उद्घाटित किया है. ‘क्रांतिकारी की कथा’ में परसाई उस युवक को ही रेखांकित कर रहे हैं, जो विकट लफ्फाज है, पर मुद्दों की तरफ से नासमझ. परसाई ने व्यंग्य को इस तरह से प्रभावित किया है कि सीनियर जूनियर किसी का काम परसाई के बगैर नहीं चलता. परसाई हिंदी व्यंग्य में देवता की तरह पूजनीय हो लिये, जिनके नाम पर प्रवचन-भंडारा करा दो, तो सही चढ़ावा आ जाता है, अब भी. कई व्यंग्य-पंडे अब भी उनके नाम पर चढ़ावा खा रहे हैं और बता रहे हैं कि परसाई के साथ के फोटो में उधर कोने में जो तीसरा बंदा खड़ा हुआ है, वह मैं हूं.
परसाई वाम झुकाव के लेखक थे, वाम झुकाव के लेखकों का झुकाव 70-80 के दशक में कांग्रेस के प्रति हुआ. परसाई के कभी करीब रहे और महत्वपूर्ण व्यंग्यकार शरद जोशी ने तंज में लिखा था- अपनी तुलना कबीर से करेंगे और अपनी चदरिया मुख्यमंत्री के चरणों में बिछाए रखेंगे. वह एक अद्भुत दौर था, जब साथ बंदा क्रांतिकारी भी हो सकता था और सरकार से वजीफा भी ले सकता था. पर परसाई की जीवन शैली से कभी भी साफ ना हुआ कि उन्होंने कुछ भी व्यक्तिगत उपलब्धि के लिए किया.
परसाई जैसी बुद्धिमत्ता और संपर्क के व्यक्ति बहुत कुछ हो सकते थे. वैसा कुछ ना हुआ, परसाई के अंदर एक परम स्वाभिमानी व्यक्ति हमेशा रहा. परसाई ने लिखा है- ‘कोई लाभ खुद चल कर दरवाजे पर नहीं आता. उसे मनाना पड़ता है. चिरौरी करनी पड़ती है. लाभ थूकता है तो उसे हथेली पर लेना पड़ता है. इस कोशिश में बड़ी तकलीफ हुई. बड़ी गर्दिश भोगी.’ लाभ थूके और हथेली पर लें, ऐसा परसाई से कभी ना बना. इसीलिए परसाई परसाई थे, परसाई हैं और परसाई रहेंगे, हिंदी व्यंग्य के पितृ-पुरुष.
उन्होंने व्यंग्य कथाएं लिखीं, व्यंग्य लेख लिखे और सवाल-जवाब की शैली में व्यंग्य पेश किया. पर समय के पार क्लासिक की श्रेणी में उनकी व्यंग्य कथाएं ही गयीं. उनके व्यंग्य लेख अब वैसे प्रासंगिक नहीं हैं, क्योंकि जिन नामों और व्यक्तियों को लेकर उन्होंने लिखा, वो ही अब अप्रासंगिक हो गये है. पर कहानी विधा का कमाल यह है कि यह अप्रासंगिक नहीं होती. परसाई आज याद किये जाते हैं- ‘इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’जैसी कहानी के लिए, जिसके पात्र क्लासिक थे और क्लासिक रहेंगे.
परसाई चिंतन से मार्क्सवादी थे, तो उन्हें बाजार के छद्म खूब समझ आते थे. उनका निधन 1995 में हुआ, 1991 के आर्थिक सुधारों के लागू होने के करीब चार साल बाद. आर्थिक सुधार लागू होने के बाद बाजार का अलग स्वरूप सामने आया, भारतीय अर्थव्यवस्था में बाजार को खुलकर खेलने का मौका मिला. विज्ञापनों में नारी देह का अलग तरीके से इस्तेमाल हुआ. हालांकि परसाई बहुत पहले ही लिख चुके थे- ‘अगर कोई सुंदरी तुम्हारे पांवों की तरफ देख रही है, तो वह ‘सतयुगी समर्पिता’ नारी नहीं है. वह तुम्हारे पांवों में पड़े धर्मपाल शू कंपनी के जूते पर मुग्ध है.
सुंदरी आंखों में देखे तो जरूरी नहीं कि वह आंख मिला रही है. वह शायद ‘नेशनल ऑप्टिशियंस’ के चश्मे से आंख मिला रही है. प्रेम व सौंदर्य का सारा स्टॉक कंपनियों ने खरीद लिया है. ’ क्या क्लासिक बात कही परसाई ने. इधर हमारा कोई खिलाड़ी कामयाबी हासिल करता है, कुछ वक्त बाद बताता मिलता है कि फलां कोल्ड ड्रिंक या फलां शैंपू को उसकी कामयाबी का क्रेडिट मिलना चाहिए. परसाई की रचनावली हर नये व्यंग्यकार के लिए बुनियादी स्टडी मैटेरियल है, कि व्यंग्य लिखने के लिए राजनीति, अर्थशास्त्र, दर्शन, लोक-परंपरा, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का गहन अध्ययन कितना जरूरी होता है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)