ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य
इलाज पर होनेवाला आधे से अधिक खर्च जेब से होता है. अगर पीएचसी में सुधार हो, तो इस खर्च से राहत मिल सकती है.
इलाज के लिए ग्रामीण इलाके के किसी सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र पर जायें, तो यह संभावना अधिक है कि डॉक्टर या स्वास्थ्यकर्मी वहां मौजूद ही न हों. दो तिहाई से अधिक भारतीय ग्रामीण इलाकों में रहते हैं. लेकिन, स्वास्थ्य सेवाओं की तुलना अगर शहरी इलाकों से करें, तो वहां बेशुमार खामियां नजर आयेंगी. हालांकि, अनेक शहरी इलाकों में भी सार्वजनिक स्वास्थ्य की स्थिति संतोषजनक नहीं है.
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 2005 के बाद स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की बजाय गिरावट ही आ रही है. साल 2005 में 17.49 फीसदी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) और उपकेंद्रों (एससी) में डॉक्टरों की तैनाती नहीं थी, 2021 में यह अनुपात 21.83 प्रतिशत तक पहुंच गया. जहां 17 साल पहले लगभग आधे सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) स्पेशलिस्ट डॉक्टरों से वंचित थे, वहीं 2021 में यह रिक्ति 67.96 प्रतिशत हो गयी.
महिला स्वास्थ्यकर्मियों या सहायक नर्सिंग मिडवाइव्स (एएनएम) से रहित पीएचसी और उपकेंद्रों की संख्या 2005 में 4.75 प्रतिशत थी, जो 2021 में 27.16 प्रतिशत हो गयी. इस बीच देश ने भयावह कोविड-19 महामारी का भी सामना किया. आश्चर्यजनक है कि सिक्किम के सभी और मध्य प्रदेश के 95 फीसदी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर स्पेशलिस्ट डॉक्टर नहीं हैं.
वहीं छत्तीसगढ़ के 43.2 प्रतिशत और पश्चिम बंगाल के 37.7 प्रतिशत पीएचसी डॉक्टरों से महरूम हैं. बिहार में 72.12 प्रतिशत उपकेंद्रों पर कोई महिला स्वास्थ्यकर्मी नहीं है. स्वास्थ्य देखभाल तंत्र अरसे से संसाधानों की कमी से जूझ रहा है. पर्याप्त स्वास्थ्य संसाधनों और बुनियादी सुविधाओं का निरंतर अभाव स्पष्ट करता है कि स्वास्थ्य पर कभी पर्याप्त खर्च नहीं हुआ.
स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा आयुष्मान भारत के स्वतंत्र मूल्यांकन में भी स्पष्ट है कि धन आवंटन में देरी, कर्मचारियों की कमी जैसी समस्याएं बनी हुई हैं. बिहार के 31 प्रतिशत स्वास्थ्य केंद्रों पर न पानी की सुविधा है और न ही बिजली की. ऐसे में अनेक तरह के दुष्परिणाम लाजिमी हैं. गरीब तबके में नवजात मृत्युदर तीन गुना ज्यादा है. असमानता की यह मार मासूमों पर सबसे अधिक है.
गरीब परिवारों का जीवनकाल शीर्ष 20 प्रतिशत समृद्ध परिवारों के मुकाबले औसतन 7.6 साल तक छोटा होता है. आंकड़े बताते हैं कि इलाज पर होनेवाला आधे से अधिक खर्च जेब से होता है. अगर पीएचसी में सुधार हो, तो इस खर्च से राहत मिल सकती है. इलाज पर भारी-भरकम खर्च परिवारों को गरीबी की दलदल में धकेल देता है. देशभर में स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता, एक समान व्यवस्था और जवाबदेही के लिए राष्ट्रीय स्तर पर नियामक और विकास ढांचा आवश्यक है.
साथ ही सार्वजनिक-निजी भागीदारी भी अंतिम व्यक्ति तक स्वास्थ्य सेवाओं को पहुंचाने का जरिया बन सकती है. जेनरिक दवाओं और जनऔषधि केंद्रों को बढ़ाने जैसे उपाय भी करने होंगे, तभी आमजन तक सस्ती और सुलभ स्वास्थ्य सेवाएं पहुंच पायेंगी.