आबादी का बड़ा हिस्सा गांवों में रहता है. ऐसे लोगों के सामने स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर दो तरह की चुनौतियां हैं- पहली गुणवत्ता की और दूसरी, इलाज खर्च वहन करने के सामर्थ्य की. केंद्र की हालिया ग्रामीण स्वास्थ्य रिपोर्ट बताती है कि ग्रामीण भारत में सर्जन, पीडिट्रिशियन, ऑब्स्टेट्रिशियन व गाइनोकोलॉजिस्ट और फिजिशियन जैसे स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की 68 प्रतिशत तक कमी है.
ग्रामीण इलाकों के 5000 से अधिक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी) में 22 हजार स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की दरकार है. इसके बनिस्पत स्वीकृत पद 13,637 ही हैं, जिसमें अभी भी 9268 पदों पर नियुक्ति नहीं है. मध्य प्रदेश में 945 स्वीकृत पदों में 902, बिहार में 836 में से 730, झारखंड में 498 में से 684 पद रिक्त हैं.
हालांकि, दक्षिण भारतीय राज्यों में यह स्थिति थोड़ी बेहतर है. केरल ही मात्र ऐसा राज्य है, जहां कोई रिक्ति नहीं है. डॉक्टरों द्वारा कॉरपोरेट अस्पतालों का रुख कर लेने से यह स्थिति कई राज्यों में साल दर साल खराब होती गयी. साल 2005 में स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की 46 प्रतिशत कमी थी, जो वर्तमान में 68 प्रतिशत हो चुकी है.
ग्रामीण स्वास्थ्य देखभाल को लेकर सरकारी उदासीनता भी चिंताजनक है, वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और यूनिसेफ जैसी संस्थाओं द्वारा भी इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास नहीं दिखता. भारी-भरकम फीस देकर मेडिकल की पढ़ाई करनेवाले छात्र सरकारी सेवाओं की बजाय निजी क्षेत्र का रुख कर लेते हैं. ग्रामीण इलाकों में रेडियोग्राफर, नर्सिंग स्टाफ और लैब टेक्नीशियन जैसे सहयोगी मेडिकल स्टाफ की भी कमी बनी हुई है.
बिहार के ग्रामीण इलाके में एक भी रेडियोग्राफर नहीं है. अमूमन, गांवों के मरीज अस्पताल तब पहुंचते हैं, जब बीमारी चरम दशा में होती है. बीमारियों का स्पष्ट लक्षण दिखने तक वे इसे नजरअंदाज करते रहते हैं, जिससे इलाज मुश्किल हो जाता है. दूसरा, ग्रामीण भारत में प्रति 10000 आबादी पर सरकारी अस्पतालों में बिस्तर मात्र 3.2 ही हैं, जो डब्ल्यूएचओ के अनुशंसित स्तर से काफी कम हैं.
हालांकि, सार्वभौमिक, सस्ती और गुणवत्तायुक्त स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के मकसद से सरकार अनेक कार्यक्रम संचालित कर रही है. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन और आयुष्मान भारत इस दिशा में सकारात्मक पहल है. फिर भी, आबादी का बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच से बाहर बना हुआ है.
इसमें निजी क्षेत्रों की अहम भूमिका हो सकती है. साथ ही, जागरूकता कार्यक्रमों, स्वास्थ्य कैंपों से लोगों को गंभीर बीमारियों के प्रति सचेत किया जा सकता है. टेलीमेडिसिन स्वास्थ्य सेवाओं में व्याप्त असमानता को भरने में महत्वपूर्ण है. टेलीकंसल्टेशन विधा दूरदराज इलाकों में भी बीमारियों के लक्षण पहचानने और उसके उपचार में सहायक साबित हो सकती है. यदि सार्वजनिक और निजी क्षेत्र संयुक्त रूप से सार्थक और समुचित प्रयास करें, तो ग्रामीण भारत को स्वास्थ्य देखभाल के मामलों में आत्मनिर्भर बनाया जा सकेगा.