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विश्वसनीय बने उच्च शिक्षा एवं परीक्षा तंत्र

एकता एक वांछनीय गुण है, जैसे एक राष्ट्रीय पहचान गढ़ना. लेकिन हर जगह समरूपता पर जोर देना नियंत्रण की मानसिकता का एक रूप है.

परीक्षाओं में धांधली ने ‘एक राष्ट्र, एक परीक्षा’ की सोच पर पुनर्विचार के लिए विवश कर दिया है. हमें एकताबद्ध देश चाहिए, एक समान देश नहीं. एकरूपता विविधता, भिन्नता, लोकतंत्र और असहमति की अनुमति नहीं देती. प्रश्नपत्रों के लीक होने की घटनाओं ने भारत को ऐसे निम्न स्तर पर ला खड़ा किया है, जहां परीक्षाओं एवं संस्थानों की विश्वसनीयता खतरे में है. यह एक चेतावनी है कि परीक्षा प्रणाली में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. स्तर बनाये रखना राष्ट्रीय एजेंसियों की ही नहीं, बल्कि सबकी जवाबदेही है. उच्च शिक्षा संस्थानों में स्वायत्तता और गुणवत्ता साथ चलते हैं. विकसित भारत के विचार को साकार करने में भारतीय शिक्षा तंत्र आधारभूत भूमिका निभा सकता है. यह तकनीकी हड़बड़ी तथा कुछ लोगों की मनमानी की जगह नहीं बननी चाहिए.

इसलिए सोच-समझकर संतुलित दृष्टि से इस मसले पर विचार होना चाहिए ताकि शिक्षा व्यवस्था की विश्वसनीयता बहाल हो सके. जरूरी नहीं है कि तकनीकी और सस्ते समाधान बेहतर भी हों. तकनीक पर अत्यधिक निर्भरता और टिक लगाने जैसे परीक्षा के तरीके कुछ लोगों के निहित स्वार्थों को पूरा करने में मददगार होते हैं. अधपके विचार आकर्षक लग सकते हैं, पर अंततः हमें ऐसी प्रतिक्रियाओं से सावधान रहना चाहिए, जो छात्रों, परिवारों और विषयों के लिए नुकसानदेह हो सकते हैं. इंटरनेट के इस युग में पर्चा लीक होना स्थानीय घटना नहीं होती, इसका प्रसार तुरंत व्यापक स्तर पर हो जाता है. टिक मार्क वाले पर्चों और उत्तरों को हैक करना बहुत आसान है. परीक्षा माफिया के अपराधियों की कोई विचारधारा नहीं है. परीक्षा की समरूपता खतरनाक है क्योंकि यह सरकार के लिए आपदा हो सकती है और इससे करोड़ों छात्र और उनके परिजन तबाह हो सकते हैं.

राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी (एनटीए) तथा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के नेतृत्व में दूरदृष्टि एवं जवाबदेही के अभाव ने इस प्रकरण को और भी त्रासद बना दिया है. गड़बड़ियों से लगातार इनकार करने, गलत दिशा चुनने और बरगलाने वाले बयान देने से देश गुस्से में है. अखिल भारतीय परीक्षा कराना जटिल कार्य अवश्य है, पर एनटीए और यूजीसी का नेतृत्व तमाम संसाधनों के बावजूद चुनौतियों से आगाह क्यों नहीं था, समुचित उपाय क्यों नहीं किये गये? क्या ऐसा पैसा बचाने के लिए किया गया? परिणाम आने तक गड़बड़ियों की भनक तक क्यों नहीं लग पायी? समझना होगा कि शिक्षा में विवेक और समावेशी दृष्टि से निवेश होना चाहिए. हड़बड़ी समस्या को और बिगाड़ेगी. बहरहाल, सरकार का रवैया निर्णायक रहा है.

शिक्षा मंत्री ने मामले की ‘नैतिक जिम्मेदारी’ ली है और एनटीए के प्रभारी अधिकारी को हटा दिया गया है. नीट परीक्षा में धांधली की जांच सीबीआइ कर रही है तथा यूजीसी-नेट की गड़बड़ी की जांच के आदेश भी दे दिये गये हैं. परीक्षाओं में स्वच्छता और पारदर्शिता तथा उनके समुचित संचालन को सुनिश्चित करने के लिए विशेषज्ञों की एक उच्च-स्तरीय समिति गठित की गयी है, जो दो माह के भीतर अपने सुझाव पेश करेगी. कदाचार रोकने के कानून को भी 21 जून से लागू कर दिया गया है. इसमें दोषियों के लिए कठोर दंड का प्रावधान है. सरकार ने स्पष्ट इंगित कर दिया है कि परीक्षाओं में किसी भी तरह के कदाचार को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा.

सरकार द्वारा उठाये गये कदम सराहनीय हैं, पर कुछ अन्य उपायों को भी अपनाने की आवश्यकता है ताकि भारतीय शिक्षा प्रणाली में विश्वसनीयता फिर से बहाल हो सके. हमें छात्रों से अपनी अपेक्षाओं के बारे में नयी समझ विकसित करने की आवश्यकता है. इसका मतलब यह है कि हमें परीक्षा प्रणाली पर पुनर्विचार करना चाहिए. तथ्य बनाम मूल्य की बहस का निपटारा अस्सी के दशक में ही हो चुका है. फिर भी, हम अभी भी बहु-वैकल्पिक प्रश्न व्यवस्था जैसे परिमाणात्मक उपायों पर बहुत अधिक निर्भर हैं, मानो वे चमत्कारिक हों. गुणात्मक कौशल अभी भी आवश्यक हैं क्योंकि वास्तविक जीवन में समस्याओं को समझने और उनका समाधान करने के लिए इंजीनियरों और डॉक्टरों को अपनी गुणात्मक क्षमताओं का इस्तेमाल करना पड़ता है.

जटिल मानवीय संदर्भों में मूल्यों की बड़ी भूमिका है, जिन्हें पूर्वाग्रह कहकर खारिज किया जा सकता है. लेकिन वास्तविकता यह है कि आज की परीक्षाएं बस सूचना को रटने और प्रस्तुत करने की क्षमता की जांच तक सीमित रह गयी हैं तथा वे अन्य आवश्यक कौशलों की अनदेखी करती हैं. हमें आलोचनात्मक और विश्लेषणात्मक सोच, पाठन और लेखन जैसे कौशलों के विकास पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. सोच और लेखन में स्पष्टता जैसे कौशलों की परीक्षा होनी चाहिए तथा अध्यापन इनके विकास पर केंद्रित होना चाहिए.

एकता एक वांछनीय गुण है, जैसे एक राष्ट्रीय पहचान गढ़ना. लेकिन हर जगह समरूपता पर जोर देना नियंत्रण की मानसिकता का एक रूप है. जैसा कि हम भारतीय ज्ञान परंपरा से जानते हैं, विविधता और परिवर्तन जीवन के विधान हैं तथा छोटी चीज भी सुंदर होती है. शायद अब वह समय आ गया है कि हम क्षेत्रवार या समूहवार परीक्षाओं पर विचार करें, जिनमें वस्तुनिष्ठ प्रश्न भी हों और विश्लेषणात्मक भी. इससे पर्चों के लीक होने या हैक होने की आशंका कम हो सकती है. साथ ही, छात्रों की विश्लेषणात्मक और आलोचनात्मक क्षमता के परीक्षण का भी माध्यम मिलेगा. कदाचार के जोखिम को कम करने के लिए कई तरह के प्रश्नपत्र बनाये जा सकते हैं. नेतृत्व के स्तर पर हमें नये तंत्र और लोगों की आवश्यकता है, जिनमें सहृदयता हो, दूरदृष्टि हो, जिनके विचारों में खुलापन हो.

एक पुरानी कहावत है- ‘अगर आप मूंगफली देंगे, तो आपको बंदर ही मिलेंगे.’ यह बात शिक्षा पर भी लागू होती है. अगर हमारे संस्थान अपने लोगों पर समुचित खर्च नहीं करेंगे, तो उच्च गुणवत्ता से युक्त कार्यबल उपलब्ध नहीं हो सकेगा. देश में शिक्षा को लेकर जो समझ है, उस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए. शिक्षा का संबंध केवल रोजगार से नहीं है, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बदलाव से भी है. इसलिए शिक्षा में निवेश बढ़ना चाहिए. मौजूदा संकट गलतियों के परीक्षण तथा एनटीए और यूजीसी के भरोसे को बहाल करने का एक अवसर होना चाहिए. जिन केंद्रों पर शक है, उनकी ठीक से जांच होनी चाहिए. एनटीए और यूजीसी में पारदर्शिता के अभाव को तुरंत ठीक किया जाना चाहिए. शिक्षा नीतियां तब तक सफल नहीं हो सकती हैं, जब तक उनमें ईमानदारी के साथ-साथ अन्वेषण और समावेशी भाव, विशिष्टता के साथ-साथ सहृदयता एवं समता तथा विविधता के साथ-साथ लोकतंत्र, पारदर्शिता और जवाबदेही न हो.

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