अतीत और वर्तमान की बाधाओं से जूझती हिंदी

Hindi Diwas 2024 : हिंदी की राह में आजादी के पहले ज्यादा बाधाएं नहीं थीं. इसकी शायद यह बड़ी वजह रही कि भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के अगुआ महात्मा गांधी स्वयं हिंदी के हिमायती थे. उनके पहले केशव चंद्र सेन, लोकमान्य तिलक जैसी व्यक्तित्व भी हिंदी की सामर्थ्य को पहचान चुके थे.

By उमेश चतुर्वेदी | September 13, 2024 7:05 AM

Hindi Diwas 2024 : हिंदी की जब भी चर्चा होती है, दो तरह के भाव आते हैं. पहला भाव उत्साह और गर्वबोध का होता है. हिंदी के क्षितिज के विस्तार और उसके गर्वीले अतीत को लेकर हिंदीप्रेमी जहां उत्साह से भर उठते हैं, वहीं अंग्रेजी माध्यम से पढ़े गुलामी की मानसिकता वालों के चेहरे पर व्यंग्यभरी मुस्कान चिपक जाती है. दक्षिण और पूर्वी भारत के कुछ इलाकों के राजनीतिक तो हिंदी से अछूत जैसा व्यवहार करने में जहां गर्वबोध का अनुभव करते हैं, वहीं अपने समर्थकों को हिंदी को दुश्मन की तरह मानने के लिए उकसाने में भी पीछे नहीं रहते. इसके बावजूद हिंदी का प्रभाव क्षेत्र बढ़ता जा रहा है, विशेषकर आमजन की बोली-बानी के रूप में यह स्थापित होती जा रही है. हिंदी के इस प्रभावी हश्र पर इकबाल की पंक्तियां याद आना स्वाभाविक है- ‘कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी/ सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जमां हमारा.

हिंदी की राह में आजादी के पहले ज्यादा बाधाएं नहीं थीं. इसकी शायद यह बड़ी वजह रही कि भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के अगुआ महात्मा गांधी स्वयं हिंदी के हिमायती थे. उनके पहले केशव चंद्र सेन, लोकमान्य तिलक जैसी व्यक्तित्व भी हिंदी की सामर्थ्य को पहचान चुके थे. गैरहिंदीभाषी होने के बावजूद उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन की केंद्रीय भाषा हिंदी को बनाने की कोशिश की और भावी भारत की भाषायी जरूरतों के लिहाज से हिंदी को तैयार करने की कोशिश भी की.


दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, कर्नाटक हिंदी प्रचार सभा, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति जैसी संस्थाओं की स्थापना का उद्देश्य हिंदी को भावी भारत की भाषायी जरूरत के लिहाज से ना सिर्फ तैयार करना था, बल्कि भारतीय भाषाओं के बीच मजबूत सेतु के रूप में स्थापित करना भी था. हिंदी इस दिशा में आगे बढ़ती रही. वर्ष 1938 में कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने के बाद हिंदी के प्रभाव को सुभाष चंद्र बोस ने भी समझा और हिंदी सीखी. पार्टी के वार्षिक अधिवेशन को उन्होंने हिंदी में ही संबोधित किया था, जिसकी रिकॉर्डिंग आकाशवाणी के पास सुरक्षित है. उनकी मीठी हिंदी सुन कर लगता है कि स्वाधीनता संग्राम में हिंदी सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ रही थी. जिस हिंदी का ऐसा इतिहास रहा हो, जिसे विनोबा जैसे संघर्षशील और त्यागी-तपस्वी व्यक्ति ने माध्यम बनाया हो, उसे स्वाधीनता के बाद तेजी से विस्तारित होना चाहिए था. वह विस्तारित तो हुई, लेकिन उस रूप में स्थापित नहीं हुई, जिस रूप में स्वाधीनता सेनानियों ने सोचा था. राजभाषा की भूमिका सरकारी दफ्तरों में सिर्फ हिंदी पखवाड़े या महीने में कार्यालयों में रस्मी निबंध, कहानी और कविता प्रतियोगिता आयोजित करने और किसी हिंदी विद्वान को बुलाकर उंघते और उबते कर्मचारियों के बीच भाषण कराने तक सीमित रह गयी. हिंदी दिवस पाखंड बन कर रह गया.


इस परंपरा को विकसित करने में संविधान सभा के उस विधान की बड़ी भूमिका रही, जिसके तहत हिंदी को संविधान लागू होने से पंद्रह वर्षों तक के लिए टाल दिया गया और कहा गया कि इतने दिनों में हिंदी राजकाज में स्थापित अंग्रेजी का स्थान लेने लायक हो जायेगी. पर अंग्रेजी समर्थकों, हिंदी विरोधी कहना ज्यादा समीचीन होगा, ने हिंदी के खिलाफ षडयंत्र जारी रखा. दूसरी भारतीय भाषाओं के मन में हिंदी को लेकर लगातार जहर भरा जाता रहा. इसमें अंग्रेजी शिक्षा और उसके जरिये मिलने वाली बेहतर नौकरियों ने बड़ा योगदान दिया. अगर आजादी के तुरंत बाद हिंदी को लागू कर दिया जाता, तो आज हिंदी कुछ उसी तरह स्थापित होती, जैसे इंडोनेशिया और तुर्की में हुआ. इन देशों में स्वतंत्रता के साथ ही अपनी भाषाओं को लागू कर दिया गया. स्वाधीन भारत से एक और गलती हुई- नौकरशाही की भाषा अंग्रेजी ही रही. भारतीय भाषाओं को संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं का माध्यम बनाने के लिए आंदोलन के दबाव में भारतीय भाषाएं परीक्षाओं का माध्यम बनीं, पर परीक्षाओं और चयन प्रक्रिया का ढांचा ऐसा बना रहा कि अंग्रेजी माध्यम के छात्र ही ज्यादा चुने जाते रहे. नरेंद्र मोदी के उभार और मोदी-शाह की जोड़ी के हिंदी प्रेम के चलते नौकरशाही में हिंदी के प्रति रूझान दिखा. पर अब पीछे मुड़कर देखते हैं, तो लगता है कि वह नौकरशाही की रणनीतिक चाल रही. हिंदी और भारतीय भाषाएं राजकाज में फिर पीछे हो गयी हैं. राजकाज एक बार फिर पुरानी पटरी पर कम से कम भाषाई लिहाज से लौटने लगा है.


हिंदी की राह में यूं तो कई बाधाएं हैं, लेकिन सबसे बड़ी बाधा शासन में उसकी उपेक्षा और अंग्रेजीदां नौकरशाही का वर्चस्ववादी रवैया है. यह मोटा तथ्य है कि किसी व्यक्ति या इलाके की समस्याओं को वही गहराई से समझ सकता है, जो उस व्यक्ति की अपनी भाषा में सोचता हो, उस इलाका विशेष की माटी की संस्कृति से जुड़ा हो. इसे उलटबांसी ही कहेंगे कि ज्यादातर नौकरशाही ऐसी सोच से कोसों से दूर है. इसीलिए हिंदी समेत भारतीय भाषाएं राजकाज के स्तर पर अंग्रेजी से बहुत पीछे हैं. उच्च स्तर पर प्रभाव के लिहाज से भी हिंदी का स्थान कुछ खास नहीं है. हिंदी दिवस पर क्या हम इस नजरिये से हिंदी की स्थिति को देखेंगे? वक्त आ गया है कि इस सवाल से गंभीरता से जूझा जाए. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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