यूं ही राजभाषा नहीं है हिंदी
ई-कॉमर्स से लेकर सॉफ्टवेयर तक की दुनिया में हिंदी को लेकर आग्रह बढ़ा है. बाजार ने जिंदगी की तमाम परिधियों में हिंदी की जरूरत और उपयोग को देखते हुए हिंदी भाषी कर्मियों की तरफ ध्यान देना शुरू किया है.
राजभाषा के तौर पर हिंदी की स्वीकार्यता पर संविधान सभा के सदस्यों की सोच को इसी से समझा जा सकता है कि इस पर महज ढाई दिन ही बहस हुई और इसे स्वीकार कर लिया गया. बहस 12 सितंबर, 1949 की शाम को शुरू हुई और 14 सितंबर को सभा ने हिंदी को राजभाषा के तौर पर अंगीकार कर लिया. संविधान के अनुच्छेद 343 से 351 तक में राजभाषा के अधिकार और उसके कामकाज की व्यवस्था की गयी.
चूंकि 14 सितंबर को हिंदी को संविधान सभा ने अंगीकार किया, इसीलिए हर साल इस दिन हिंदी दिवस मनाया जाता है. हिंदी की इस स्वीकार्यता की सबसे बड़ी वजह यह है कि स्वाधीनता आंदोलन की यह धुरी रही. आंदोलन के सभी प्रमुख नाम हिंदी को भावी स्वाधीन भारत की संपर्क भाषा और राजभाषा के तौर पर स्थापित करने पर एकमत थे. स्वीकार्यता के पीछे गैर हिंदी भाषी विद्वानों और सामाजिक पुरोधाओं का भी बड़ा योगदान रहा.
हिंदी को राजकाज और भावी स्वाधीन भारत की संपर्क भाषा बनाने का सुझाव सबसे पहले बांग्ला भाषी केशव चंद्र सेन ने 1875 में दिया था. यह विचार जिस समय पूर्वी भारत में उठा, संयोग से उन्हीं दिनों देश के पश्चिमी छोर यानी गुजरात से भी ऐसा सुझाव आया. नर्मद नाम से विख्यात गुजराती कवि नर्मदाशंकर लालशंकर दवे ने 1880 के दशक में यह सुझाव रखा था.
साल 1905 में तिलक ने वाराणसी की यात्रा की थी और काशी नागरी प्रचारिणी सभा को संबोधित भी किया था. उन्होंने कहा था कि भावी भारत की राजभाषा नि:संदेह हिंदी ही हो सकती है. वर्ष 1918 में कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर भी उन्होंने घोषणा की कि हिंदी ही भारत की भावी राजभाषा होगी.
हिंदी को राजभाषा के तौर पर स्वीकार्य कराने में महात्मा गांधी की बड़ी भूमिका रही. सार्वजनिक तौर पर पहली बार 1917 में उन्होंने भरूच में आयोजित गुजरात शैक्षिक सम्मेलन में कहा था, ‘भारतीय भाषाओं में केवल हिंदी ही एक ऐसी भाषा है, जिसे राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाया जा सकता है.’ उन्हें पता था कि इस राह में चुनौतियां आ सकती हैं. इसीलिए उन्होंने अगले ही साल दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना की.
इस काम के लिए उन्होंने अपने बेटे देवदास गांधी के साथ पांच लोगों को दक्षिण भारत भेजा. इस प्रचार-प्रसार की व्यवस्था के लिए उन्होंने व्यवसायी और स्वाधीनता सेनानी जमनालाल बजाज को जिम्मा दिया, जिन्होंने तमिलनाडु में हिंदी के प्रसार के लिए चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को जोड़ा. गांधी जी ने भावी भारत की राजभाषा को लेकर अपनी सोच 1909 में लिखी पुस्तिका ‘हिंद स्वराज’ में जाहिर कर दी थी.
गांधी जी ने स्वतंत्र भारत की राजभाषा के लिए पांच मानक तय किये थे- प्रयोग करने वालों के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए, उस भाषा के द्वारा भारतवर्ष का आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवहार हो सकना चाहिए, यह जरूरी है कि भारतवर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को बोलते हों, राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए तथा उस भाषा का विचार करते समय किसी क्षणिक या अल्प स्थायी स्थिति पर जोर नहीं देना चाहिए.
हिंदी गांधीजी के इन मानकों पर भी खरी उतरती है. हिंदी साहित्य सम्मेलन के अपने भाषण में उन्होंने इसे अदालती भाषा बनाने का भी सुझाव दिया था. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी कहा करते थे कि हिंदी चूंकि बहुमत की भाषा है, इसलिए वह राजभाषा होने का दावा कर सकती है. गांधी जी की सोच और स्वाधीनता आंदोलन में हिंदी की भूमिका को इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि जब 1937 में प्रांतीय असेंबलियों के चुनाव हुए,
तब मद्रास प्रांत में जीत के बाद प्रीमियर बने राजगोपालाचारी ने मद्रास में हिंदी को अनिवार्य कर दिया था. अगर देखें, तो हिंदी विरोध की नींव भी यहीं से पड़ती है. राजगोपालाचारी के इस निर्णय के खिलाफ तत्कालीन मद्रास प्रांत, जिसे अब तमिलनाडु कहा जाता है, उसमें सीए अन्नादुरै की अगुवाई में विरोध शुरू हो गया, पर इस विरोध का संविधान सभा की बहसों में बहुत असर नहीं हुआ. खुद संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ भीमराव आंबेडकर भी हिंदी के समर्थन में थे. उन्होंने कहा था कि अहिंदी भाषी होने के बावजूद वे चाहते हैं कि हिंदी जल्दी ऐसी हो जाए कि वह अंग्रेजी का स्थान ले सके.
संविधान की व्यवस्था के अनुसार हिंदी को संविधान लागू होने के पंद्रह साल बाद अंग्रेजी का स्थान ले लेना था, लेकिन तमिलनाडु में हुए उग्र हिंदी विरोधी आंदोलन के चलते ऐसा संभव नहीं हुआ. तत्कालीन सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी ने जून, 1965 में एक प्रस्ताव पारित किया कि जब तक एक भी राज्य हिंदी का संघ की राजभाषा के तौर पर विरोध करेगा, उसे लागू नहीं किया जायेगा.
यह विरोध की आंच ही थी कि 1955 में बीजी खेर की अध्यक्षता में राजभाषा आयोग बनाया गया और 1963 में राजभाषा अधिनियम ही पारित कर दिया गया. इसमें कहा गया है कि केंद्र सरकार द्वारा राज्यों से पत्राचार में अंग्रेजी के प्रयोग को तभी समाप्त किया जायेगा, जब सभी अहिंदी भाषी राज्यों के विधान मंडल तथा संसद के दोनों सदन इसकी समाप्ति के लिए संकल्प पारित कर दें.
तब से हिंदी अपना स्थान ग्रहण करने की जद्दोजहद में जुटी हुई है. हालांकि 16 दिसंबर, 1967 को संसद के दोनों सदनों ने राजभाषा संकल्प पारित किया था, जिसमें राजकीय प्रयोजनों के लिए हिंदी के लगातार प्रयोग के लिए अधिक गहन और व्यापक कार्यक्रम तैयार करने, प्रगति की समीक्षा के लिए वार्षिक मूल्यांकन रिपोर्ट तैयार करने, त्रिभाषा सूत्र अपनाने, संघ सेवाओं के लिए भर्ती के समय हिंदी व अंग्रेजी में से किसी एक के ज्ञान की आवश्यकता अपेक्षित रखने की बात कही गयी है.
हिंदी इस संकल्प के हिसाब से आगे बढ़ रही है. राजकाज के अलावा हिंदी को गति दी है बाजार ने. चूंकि प्राथमिक स्तर पर पचास करोड़ और द्वितीयक स्तर को मिला दिया जाए, तो करीब नब्बे करोड़ लोग भारत में हिंदी का इस्तेमाल कर रहे हैं. इसलिए ई-कॉमर्स से लेकर सॉफ्टवेयर तक की दुनिया में हिंदी को लेकर आग्रह बढ़ा है. बाजार ने जिंदगी की तमाम परिधियों में हिंदी की जरूरत और उपयोग को देखते हुए हिंदी भाषी कर्मियों की तरफ ध्यान देना शुरू किया है. अब बड़ी कंपनियों तक को सोशल मीडिया मैनेजर, कंटेंट लेखक आदि की जरूरत हिंदी में पड़ रही है.