अविचलित प्रतिरोध की वह परंपरा
साप्ताहिक ‘उदंत मार्तंड’ के प्रकाशन से हिंदी पत्रकारिता की जो परंपरा शुरू की गयी, वह अन्यायी सत्ताओं के प्रतिरोध की ही रही है.
कोलकाता में सक्रिय कानपुर के वकील पंडित जुगलकिशोर शुक्ला द्वारा 30 मई, 1826 को बड़ा बाजार के पास स्थित 37, अमर तल्ला लेन, कोलूटोला (कोलकाता) से ‘हिंदुस्तानियों के हित’ में साप्ताहिक ‘उदंत मार्तंड’ के प्रकाशन से हिंदी पत्रकारिता की जो परंपरा शुरू की गयी, वह अन्यायी सत्ताओं के प्रतिरोध की ही रही है.
साल 1854 में श्यामसुंदर सेन द्वारा प्रकाशित व संपादित हिंदी के पहले दैनिक ‘समाचार सुधा वर्षण’ ने प्रतिरोध की इस परंपरा को प्राण-प्रण से समृद्ध करना आरंभ किया और 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के सिलसिले में तत्कालीन मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर द्वारा जारी अंग्रेजों को हर हाल में देश से निकालने के फरमान को प्रमुखता से प्रकाशित कर दिया.
अंग्रेजों ने उस पर देशद्रोह का आरोप लगा दिया, लेकिन सेन ने ऐसी कुशलता से अपना पक्ष रखा कि खुद अंग्रेजी अदालत ने ही जफर को देश का वास्तविक शासक और अंग्रेजों को उस पर अवैध रूप से काबिज करार दे दिया. यह भी कहा कि समाचार सुधा वर्षण ने उनका उनका फरमान छाप कर अपना कर्तव्य निभाया है.
इस परंपरा का अलम स्वतंत्रता सेनानी गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ द्वारा संपादित कानपुर के दैनिक ‘प्रताप’ के हाथ आया, तो उसने भी गोरी सत्ता की आंखों की किरकिरी बनने में कुछ भी उठा नहीं रखा. स्वाभाविक ही उसे क्रूर दमन का सामना करना पड़ा, लेकिन वह उसे उसके पथ से विचलित नहीं कर सका.
अवध में अंग्रेजों और उनके ‘आज्ञाकारी’ तालुकदारों के अत्याचारों से त्रस्त किसान 1920-21 में अचानक हिंसक आंदोलन पर उतर आये, तो गोरी सत्ता ने उनका तो दमन किया ही, उनके पक्षधर समाचार पत्रों और पत्रकारों को भी नहीं छोड़ा. अपनी खुली पक्षधरता के कारण ‘प्रताप’ उनके दमन का कुछ ज्यादा ही शिकार हुआ.
उसका ध्येय वाक्य था-‘दुश्मन की गोलियों का सामना हम करेंगे, आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे.’ तिस पर उसकी संपादकीय नीति अंग्रेजों को इतनी भी गुंजाइश नहीं देती थी कि वे महात्मा गांधी के अहिंसक और चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में क्रांतिकारियों द्वारा संचालित सशस्त्र अभियानों के अंतर्विरोधों का लाभ उठा सकें.
उसमें दोनों अभियानों का लगभग एक जैसा समर्थन और सम्मान किया जाता था. गणेश शंकर विद्यार्थी ने 13 जनवरी, 1921 के अंक में ‘डायरशाही और ओ’डायरशाही’ शीर्षक अग्रलेख लिखा, तो अंग्रेज बदला लेने पर उतर आये. विद्यार्थी ने लिखा था, ‘ड्यूक आफ कनॉट के आगमन के साथ ही अवध में जलियांवाला बाग जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति शुरू हो गयी है, जिसमें जनता को कुछ भी न समझते हुए न सिर्फ उसके अधिकारों और आत्मा को अत्यंत निरंकुशता के साथ पैरों तले रौंदा, बल्कि उसकी मान-मर्यादा का भी विध्वंस किया जा रहा है.
डायर ने जलियांवाला बाग में जो कुछ भी किया था, रायबरेली के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ने मुंशीगंज (रायबरेली) में उससे कुछ कम नहीं किया.’ यही नहीं, ‘प्रताप’ ने रायबरेली के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट एजी शेरिफ के चहेते एमएलसी और खुरेहटी के तालुकदार वीरपाल सिंह की, जिसने मुंशीगंज में किसानों पर फायरिंग की शुरुआत की थी, ‘कीर्तिकथा’ छापते हुए उसे ‘डायर का भाई’ बताया और यह जोड़ना भी नहीं भूला कि ‘देश के दुर्भाग्य से इस भारतीय ने ही सर्वाधिक गोलियां चलायीं.’
फिर तो अंग्रेजों ने वीरपाल सिंह को मोहरा बनाकर संपादक व मुद्रक को मानहानि का नोटिस भिजवाया और उनके क्षमायाचना न करने पर मुकदमा करा दिया. इस मुकदमे में सुप्रसिद्ध उपन्यासकार और अधिवक्ता वृंदावनलाल वर्मा ने ‘प्रताप’ की पैरवी की. उन्होंने 65 गवाह पेश कराये, जिनमें राष्ट्रीय नेताओं- मोतीलाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू और विश्वंभरनाथ त्रिपाठी आदि के अलावा महिलाएं और किसान भी शामिल थे.
जिरह में गणेश शंकर विद्यार्थी ने मजबूती से अपना पक्ष रखा और लिखित उत्तर में कहा कि उन्होंने जो कुछ भी छापा, वह जनहित में था और उसके पीछे संपादक या लेखक का कोई खराब विचार नहीं था. फिर भी प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट मकसूद अली खां ने प्रताप के संपादक व मुद्रक को एक-एक हजार रुपये जुर्माने और छह-छह महीने कैद की सजा सुना दी.
लेकिन न ‘प्रताप’ ने अपना रास्ता बदला, न ही गणेश शंकर विद्यार्थी ने. उन्होंने पांच बार जेल यात्राएं कीं, तो ‘प्रताप’ से बार-बार जमानत मांगी गयी, लेकिन इस सबसे अविचलित ‘प्रताप’ समय के साथ ‘आजादी की लड़ाई का मुखपत्र’ कहलाया.
इस सिलसिले में इलाहाबाद से प्रकाशित उर्दू साप्ताहिक ‘स्वराज’ का जिक्र न करना नाइंसाफी होगा. भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के इतिहास में शायद ही कोई दूसरा पत्र हो, जिसके एक-एक कर आठ संपादकों ने विदेशी सत्ता का कहर झेलते हुए देश निकाले समेत कुल मिलाकर 125 वर्ष से ज्यादा की सजाएं भोगी हो.
उसके संपादक जेल भेज दिये जाते, तो उसमें विज्ञापन छपता- संपादक चाहिए: वेतन दो सूखे ठिक्कड़ (रोटी), एक गिलास ठंडा पानी और हर संपादकीय लिखने पर 10 वर्ष काले पानी की कैद. इसके बावजूद स्वराज के लिए संपादकों की कमी नहीं पड़ी और वह संपादकों की कमी के कारण नहीं, जब्त कर ली गयी दो हजार रुपये की नकद जमानत फिर से न जुट पाने के कारण बंद हुआ. एक और बात काबिलेगौर है. उर्दू में छपने वाले ‘स्वराज’ के आठों संपादकों में कोई भी मुसलमान नहीं था और न ही उसके सोच में हिंदू-मुस्लिम जैसा कोई बंटवारा था. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)