हमारे संचार माध्यमों की हिंदी
भाषा की मर्यादा से किसी तरह का कोई समझौता न हो. उसके लिए पत्रकार एवं लेखक व्यक्तिगत और पेशेवर जीवन में गंभीर अध्ययन करते थे, ताकि भाषा के स्थापित मानकों के साथ कोई समझौता न हो. आज पाठकों का आयुवर्ग, सामाजिक दायरा, रुचियां, प्राथमिकताएं बदल गयी हैं.
सुरेश पंत
भाषाविद्
drsureshpant@gmail.com
साहित्य, आलोचना और सृजनशील साहित्यकारों के संसार से मीडिया कुछ अलग तरह का क्षेत्र है. मीडिया को सृजनशील रचना की अपेक्षा दैनंदिन जीवन की घटनाओं को यथातथ्य प्रस्तुत करना होता है. इसलिए, उसे अपनी अलग भाषा चाहिए, एक सीमा तक अंग्रेजी के आम शब्द आना स्वाभाविक है, क्योंकि देश में अंग्रेजी का वर्चस्व है. मध्य और निम्न मध्यवर्ग ही नहीं, आर्थिक रूप से सबसे निचले पायदान वाले वर्ग को भी अपनी पहचान के लिए अंग्रेजी का तड़का चाहिए. शिक्षा, चिकित्सा, न्यायालय, विधायिका और प्रायः हर जगह अंग्रेजी का बोलबाला है. जिसका बोलबाला होता है, लोग उसकी नकल करते हैं. इसका आशय यह नहीं है कि जो सृजनशील साहित्य नहीं है, उसमें अंग्रेजी को खुली छूट मिले.
प्रश्न भी उठता है कि नकल कितनी और कैसी हो. ऐसी भी क्या नकल कि कथित हिंदी वाक्य में केवल क्रियापद को छोड़ कर सारे शब्द अंग्रेजी के ठूंसे हुए हों. स्वभाविक रूप से प्रयुक्त अंग्रेजी और ठूंस-ठूंस कर डाली हुई अंग्रेजी में अंतर पहचानना चाहिए. मीडिया शायद यह भूल जाता है कि ऐसी हिंदी से लपेट कर परोसी जानेवाली सामग्री के प्रति पाठकों में भी अरुचि पैदा होती है.
द्विवेदी युग में पत्रकारिता में सहज, बोलचाल की हिंदी का ही रास्ता था. उस हिंदी की बुनावट में अरबी, फारसी, तुर्की, अंग्रेजी, पश्तो आदि से भी ऐसे शब्दों को लिया गया, जो आम लोगों के दैनिक व्यवहार का हिस्सा थे. पिछली सदी के सातवें-आठवें दशक तक भी आमफहम भाषा से आशय यही था कि जो भाषा चाय के ढाबे में, मजदूरों की टोली में, बाजार में खरीद-बिक्री कर रहे लोगों की समझ में आये और साथ ही साथ पढ़े-लिखे मध्यमवर्ग को भी उससे जुड़ाव महसूस हो. सभी माध्यम (तब समाचार पत्र ही अधिक थे) कमोबेश यही नीति अपना रहे थे.
एक ओर अज्ञेय, धर्मवीर भारती, विद्यानिवास मिश्र, रघुवीर सहाय जैसे चोटी के साहित्यकार भी पत्रकारिता कर रहे थे और दूसरी ओर राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, एसपी सिंह, ज्ञानरंजन जैसे भी थे, जो प्रथम दृष्टया हिंदी साहित्य के मूर्धन्य लेखकों में नहीं गिने जाते, किंतु पत्रकारिता में उनका अमूल्य योगदान है. परंपरागत मीडिया की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि भाषा की मर्यादा से किसी तरह का कोई समझौता न हो. उसके लिए पत्रकार एवं लेखक व्यक्तिगत और पेशेवर जीवन में गंभीर अध्ययन करते थे, ताकि भाषा के स्थापित मानकों के साथ कोई समझौता न हो. आज पाठकों का आयुवर्ग, सामाजिक दायरा, रुचियां, प्राथमिकताएं बदल गयी हैं. परिणामस्वरूप विषय, भाषा और शैली में भी बदलाव जरूरी हो गया. इस बदलाव का आशय यह नहीं हो सकता कि संवाददाता फील्ड से या प्रस्तोता स्टूडियो से जो दे रहे हैं, उसका संपादकीय कक्ष में पूर्व संपादन न हो, उन पर भाषा का कोई अंकुश न हो, परंतु दुर्भाग्य से जो मीडिया उत्पाद परोसा जा रहा है, उसमें भाषा के प्रति बड़ी ही लापरवाही का दृष्टिकोण है.
यदि मीडिया की हिंदी को आम लोगों के करीब लाना है, तो वह ऐसी परिष्कृत हिंदी या किताबी हिंदी नहीं हो सकती, जो बोलचाल की हिंदी से अपने को दूर रखती आयी है. समय के साथ मीडिया की बढ़ी ताकत ने उसे एक जिम्मेदारी भी दी है कि वह नयी पीढ़ी को भाषा के संस्कार भी दे. इस जिम्मेदारी को समझे जाने की जरूरत है. प्राय: तर्क दिया जाता है कि समाचार पत्रों की भाषा विशुद्ध साहित्यिक नहीं होती. तर्क अपनी जगह ठीक है, किंतु वह गली-चौराहे की आमफहम भाषा भी तो नहीं हो सकती. इन दोनों सिरों के बीच में ही कहीं मीडिया की भाषा की स्थिति होनी चाहिए और प्रत्येक संस्थान को अपनी भाषा नीति तय करनी चाहिए. यदि आवश्यक हो तो समय-समय पर उसमें बदलाव भी हो. तेज गति से बदलते परिवेश, मान्यताएं, तकनीक और दूसरी ओर पाठक/ दर्शक वर्ग के जीवन स्तर, शिक्षा स्तर आदि को देखते हुए मीडिया में पिछली सदी की लगभग स्थिर-सी हो गयी हिंदी की अपेक्षा करना भी तर्कसंगत नहीं है. कोई भी जीवित भाषा बदलते परिवेश के साथ नयी शब्दावली, शैली और नयी अभिव्यक्तियों को ग्रहण करती है. फिर भी, सहजता और सरलता जैसे अनिवार्य गुणों से समझौता करने की अनुमति नहीं दी जा सकती.
प्रश्न भी उठता है कि सहज-सरल भाषा कहा किसे जाए? यह पहचान करना असंभव है कि अमुक शब्द ग्राह्य होना चाहिए, फिर भी एक मोटी, लचीली सीमा रेखा (काल्पनिक ही सही) बनानी तो पड़ेगी. नयी पीढ़ी को संबोधित करने या प्रगतिशीलता की आड़ में अंग्रेजी का अंधाधुंध प्रयोग चर्चा में रहता है. कुछ अखबार युवा पाठकों के नाम पर अनावश्यक हिंग्लिश परोस रहे हैं और इससे एक नयी (क्रेयॉल) भाषा जनम रही है, जो न तो हिंदी है और न अंग्रेजी. विविध भाषा-भाषी लोगों के साथ रहने से एक-दूसरे की भाषा पर भी प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है.
आज विदेशी भाषाओं (अंग्रेजी, फारसी, तुर्की आदि) से आगत शब्दों का हिंदी में ही नहीं, सभी भारतीय भाषाओं में प्रयोग हो रहा है. अंग्रेजी के सैकड़ों शब्द हिंदी में सहज रूप से चल रहे हैं जिन्हें अब हिंदी शब्दावली का ही माना जाना चाहिए. क्योंकि, इनके कथित हिंदी अनुवाद अधिक जटिल और अबूझ हैं. किंतु अंग्रेजी के जिन शब्दों के लिए बोलचाल की हिंदी में प्रचलित शब्द उपलब्ध हैं, उनके स्थान पर अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग हास्यास्पद लगता है. इसी के लिए माध्यमों को प्रायः दोष दिया जाता है- चाहे मुद्रित माध्यम हों या इलेक्ट्रॉनिक.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)