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रोजगारपरक शिक्षा का माध्यम बने हिंदी

रोजगार के बाजार में अंग्रेजी की मांग अधिक है, किंतु यह भी सत्य है कि व्यवस्था ने अन्य भाषाओं के ढांचे को ऐसा नहीं बनाया कि उन्हें भी बाजार में ऐसी ही पैठ प्राप्त हो.

पिछले दिनों मध्य प्रदेश में एमबीबीएस पाठ्यक्रम के लिए हिंदी की कुछ पुस्तकों का विमोचन किया गया, तो इसके पक्ष-विपक्ष में बहस शुरू हो गयी. यह बहस तुरंत ही, जैसा कि होता आया है, हिंदी बनाम अंग्रेजी में बदल गयी. जबकि मुद्दा यह होना चाहिए था कि माध्यम अंग्रेजी ही रहे या भारतीय भाषाएं भी हों, जिनमें हिंदी भी एक है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 शिक्षा के अनेक क्षेत्रों में बदलाव लाने की कोशिश करती है और उनमें से एक शिक्षा का माध्यम है, जिसमें विद्यालयों-महाविद्यालयों में, जहां तक संभव हो मातृभाषा में शिक्षा दी जायेगी.

इस नीति में कहा गया है कि सभी स्कूलों में कक्षा पांच तक की शिक्षा का माध्यम मातृभाषा (घर बोली) होगी और उच्चतर संस्थानों में भी हिंदी को वरीयता दी जायेगी. यह कोई अनोखी संस्तुति नहीं थी. शिक्षा क्षेत्र में कोठारी आयोग (1966) से लेकर आज तक जितने आयोग और समितियां बनी हैं, सब ने इसकी संस्तुति की है, किंतु संस्तुतियां धरी रह जाती हैं. राजनीति आड़े आ जाती है और मामला जस का तस बना रहता है.

विश्वभर के प्रतिष्ठित भाषा विज्ञानी और मनोविज्ञानी यह मानते हैं कि मातृभाषा से भिन्न माध्यम से पढ़ाई करने से रचनात्मक प्रतिभा नहीं आती है. माध्यम मातृभाषा न होने पर विद्यार्थी विषय को समझे बिना, गहराई से परखे बिना केवल रटकर उत्तर दे देता है और डिग्री पा जाता है, किंतु विशेषज्ञता और कौशल नहीं प्राप्त कर पाता. मेडिकल किताबों का अनुवाद चीनी, जापानी, रूसी में भी हुआ है, तो ऐसा हिंदी या अन्य प्रमुख भारतीय भाषाओं में क्यों नहीं हो सकता! लेकिन ऐसा करने के लिए पहले एक पूरा ढांचा तैयार करना होगा, जिसमें मुख्य समस्या पारिभाषिक शब्दावली की होगी.

मुख्य परिभाषिक शब्द मेडिकल साइंस और अन्य तकनीकी विषयों में अन्य भाषाओं में अपना लिये गये हैं क्योंकि ऐसा करने से उनकी ग्राह्यता और संप्रेषणीयता बनी रहती है. अच्छा होता भारतीय विद्यार्थियों के लिए कुछ तकनीकी शब्दों के सरल हिंदी या भारतीय भाषाओं में प्रचलित शब्द भी दिये जाते और कोष्ठक में अंग्रेजी के वैश्विक शब्द भी. ऐसा नहीं हो पाया है, किंतु यह शुरुआत है.

आलोचना का दूसरा पहलू है कि हिंदी माध्यम से पढ़े हुए छात्र का स्तर अंग्रेजी माध्यम के छात्र से कम होगा. इसका कोई तर्कसंगत आधार नहीं है. यदि शिक्षक अच्छे हैं, अच्छे संसाधन उपलब्ध हैं (पुस्तकें भी जिनमें आती हैं), तो स्तर कम नहीं हो सकता. यह अवश्य है कि भिन्न भाषा से पढ़े हुए डॉक्टर पढ़ाई के बाद विदेश में उच्च शिक्षा या रोजगार के लिए संभवतः नहीं जा सकेंगे, किंतु आज भी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले सारे डॉक्टर तो विदेश नहीं चले जाते. देश के रोगियों से देश की भाषा में अच्छा संवाद हो सकता है.

हमें बड़ी संख्या में डॉक्टरों की आवश्यकता भी है. प्रारंभिक स्तर से लेकर उच्चतर स्तर तक अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा पाये हुए डॉक्टर संभ्रांत परिवारों से होते हैं और उनका लक्ष्य ब्रिटेन, अमेरिका में सेवा करना न भी हो, तो भी वे बड़े या अच्छे शहरों में रहना पसंद करते हैं. इसके विपरीत हिंदी माध्यम से पढ़कर डॉक्टर बने लोग खुशी-खुशी गांव-देहात की नियुक्तियां स्वीकार करेंगे, यह आशा की जा सकती है. बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा न देना मानवाधिकारों का हनन है और एक लोकतांत्रिक देश में मानवाधिकारों की रक्षा करना सरकार का काम है.

प्रबंधन, तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा देने वाले संस्थानों में केवल अंग्रेजी माध्यम होने से लाखों नवयुवक तकनीकी शिक्षा पाने से वंचित हो जाते हैं. कुछ अभ्यर्थी साहस करके एकाधिक प्रयासों में या आरक्षण से प्रवेश पा जाते हैं, किंतु केवल भाषा के अवरोध के कारण कुंठाग्रस्त होते हैं. आंकड़े गवाह हैं कि अभियांत्रिकी, चिकित्सा, प्रबंधन के शिक्षा संस्थानों में हर साल कुछ प्रतिभाशाली विद्यार्थी केवल इसलिए आत्महत्या कर लेते हैं कि उनकी अंग्रेजी कमजोर होती है और वे अपने सहपाठियों-शिक्षकों के उपहास व अकादमिक असफलता से टूट जाते हैं.

रोजगार के बाजार में अंग्रेजी की मांग अधिक है, किंतु यह भी सत्य है कि व्यवस्था ने अन्य भाषाओं के ढांचे को ऐसा नहीं बनाया कि उन्हें भी बाजार में ऐसी ही पैठ प्राप्त हो. अंग्रेजी को ऐसा आभामंडल दे दिया गया है कि माता-पिता अपनी वित्तीय स्थिति की परवाह किये बिना बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में भेज रहे हैं. किंतु उनका क्या, जो इतनी अच्छी आर्थिक स्थिति में नहीं हैं? आज मेडिकल की पढ़ाई का बजट लाखों रुपये प्रतिवर्ष का होता है, जो बहुत से माता-पिताओं की पहुंच के बाहर होता है.

अंग्रेजी माध्यम से मेडिकल या अन्य तकनीकी विषयों की पढ़ाई करने से उन छात्रों या अभिभावकों को हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं से शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों से कोई कठिनाई कैसे हो सकती है? इसके विपरीत रोजगार के बाजार में उनके सामने संभवत: अधिक अवसर होंगे और कम प्रतिस्पर्धा होगी.

इसलिए कुछ पुस्तकों के हिंदी में आ जाने से तिल का ताड़ बनाना व्यर्थ है. यह एक पहल है, जो आजमायी जा रही है. यदि जनसमर्थन मिला और कसौटी में खरी उतरी, तो धीरे-धीरे गति पकड़ेगी. इतना तय है कि इससे अंग्रेजी का वर्चस्व समाप्त नहीं होगा और ऐसा होना भी नहीं चाहिए.

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