Opinion : धर्मनिरपेक्षता विरोधी नहीं है हिंदू एकता
हिंदू धर्म को बुराई मानने की अदूरदर्शिता इतनी प्रबल है कि सावरकर या आंबेडकर जैसे लोगों के तर्कों की गुणवत्ता या सत्यता चाहे जितनी भी हो, उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है. जाति विभाजन की उनकी आलोचना पर गंभीरता से विचार नहीं किया जाता है.
Hindu Unity : डाॅ एस राधाकृष्णन का कथन है कि हिंदू धर्म एक प्रक्रिया है, परिणाम नहीं, बढ़ती हुई परंपरा है, अन्य धर्मों की तरह निश्चित रहस्योद्घाटन नहीं. हिंदू धर्म और संस्कृति का उपहास करना फैशन बन गया है. असल में, हिंदू धर्म को दोष देने से ज्यादा कोई बात उदारवादी साख को नहीं बढ़ा सकती. ऐसा चलन घरेलू ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय भी है. मान लें कि कोई न्यूयॉर्क टाइम्स या वाशिंगटन पोस्ट जैसे अखबारों में स्तंभकार होना चाहता है, तो उसे हिंदू संस्कृति के प्रति अपनी अवमानना को दर्शाना होगा. यह निंदा के विभिन्न संस्करणों के माध्यम से किया जाता है, चाहे वह सामाजिक हो, आर्थिक हो या राजनीतिक हो. यहां तक कि खालिस्तानी चरमपंथियों में भी हिंदूफोबिया है, जो उनके गुरुओं के सिद्धांतों के विपरीत है.
हिंदू एकता से कुछ लोग घबराते हैं
जब ईरान इस्लामी एकता का आह्वान करता है, तो कोई नहीं चौंकता, क्योंकि पश्चिम में जिस उदारवाद और डीप स्टेट को वह नियंत्रित करता है, वह धर्मनिरपेक्ष है. हिंदू एकता का कोई भी आह्वान उन लोगों के लिए खतरा है, जो धर्मनिरपेक्षता चाहते हैं, जबकि वे स्वयं धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं. भारत एक बहुलतावादी देश है. हिंदू एकता अच्छी बात है, क्योंकि इसे जाति से ऊपर उठना होगा, जो राजनीति में भिन्न-भिन्न रूपों में दिक्कत है. इसे गंभीरता से लेने की बात बाबासाहेब आंबेडकर के साथ-साथ वीर सावरकर की ओर से आयी थी.
जातिवाद एक दक्षिण एशियाई परिघटना है
हिंदू धर्म के आलोचकों की अक्सर निंदा जातिवाद को लेकर होती है. इस बारे में और बात करने से पहले, यह कहना जरूरी है कि जातिवाद एक बुरी प्रथा है और इसे, जैसा कि डॉ आंबेडकर कहते हैं, ‘समाप्त’ कर देना चाहिए. फिर भी, हिंदू धर्म के आलोचकों के बारे में जो बात चौंकाने वाली है, वह है हिंदू धर्म को जाति के दायरे से परे देखने की उनकी अज्ञानता और अनिच्छा. इस तथ्य के बारे में जागरूकता की भी आम तौर पर कमी है कि जाति केवल हिंदू धर्म से जुड़ी प्रथा नहीं है. जातिवाद एक दक्षिण एशियाई परिघटना है. यह मुसलमानों और ईसाइयों में भी है, क्योंकि वे आरक्षण का लाभ उठाते हैं. हिंदू धर्म छोड़ने के लिए जो आंबेडकर की उचित सराहना करते हैं, वे कभी यह नहीं पूछते कि उन्होंने बौद्ध धर्म क्यों अपनाया, इस्लाम क्यों नहीं. वे इस्लाम को हिंदू धर्म से बेहतर नहीं मानते थे. उन्होंने कहा था- ‘इस्लाम या ईसाई धर्म में धर्मांतरण से दलित वर्ग का राष्ट्रवाद खत्म हो जायेगा.’ कांग्रेस और गांधी के बारे में भी उनके विचारों को नहीं भूलना चाहिए, जिनसे भारत में जातिवाद एवं अस्पृश्यता के बारे में पाखंड उजागर हुए. कांग्रेस की तुष्टीकरण की राजनीति खिलाफत आंदोलन (1922) से शुरू होती है, जिसने देश को धार्मिक आधार पर विभाजित कर दिया था. जातिवाद बुरा था, पर इसे कायम रहने देना भी अपराध था. आज हिंदू एकता की बातें वैसी गलती से बचने पर आधारित हैं.
कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत द्वारा हिंदू एकता के आह्वान को जातिवाद त्यागने के प्रयास के रूप में नहीं, बल्कि एक धार्मिक वर्चस्ववादी प्रयास के रूप में देखा जाता है. हिंदू धर्म को बुराई मानने की अदूरदर्शिता इतनी प्रबल है कि सावरकर या आंबेडकर जैसे लोगों के तर्कों की गुणवत्ता या सत्यता चाहे जितनी भी हो, उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है. जाति विभाजन की उनकी आलोचना पर गंभीरता से विचार नहीं किया जाता है. ऐसे आलोचकों के लिए सावरकर सिर्फ एक अहंकारी व्यक्ति हैं, न कि उन्मूलनवादी, जो जाति विभाजन को हिंदू और भारतीय पहचान के लिए बाधक मानते थे, जो आक्रांताओं और साम्राज्यवादी अंग्रेजों द्वारा खंडित कर दिया गया था.
हिंदू एकता को अल्पसंख्यकों के लिए खतरा माना जाता है
भागवत और मोदी के एकता के आह्वान को भड़काना और अल्पसंख्यकों के लिए खतरा बताया जाता है. इसे ‘सांप्रदायिक’ माना जाता है, पर यह विडंबना ही है कि वही आलोचक ईरान के सभी मुसलमानों से इस्राइल के खिलाफ एकजुट होने के आह्वान को स्वीकार करते हैं. इसे कट्टरवाद, उकसावा या वर्चस्ववाद नहीं, बल्कि एकता का प्रदर्शन माना जाता है. क्या एकता का अधिकार कुछ खास धार्मिक समूहों या जातीय पहचानों के लिए आरक्षित है?
पीएम मोदी के भाषण को सराहना नहीं मिली
अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा इस साल के प्रमुख कार्यक्रमों में रहा. इस कार्यक्रम में दिये गये प्रधानमंत्री के भाषण को समुचित सराहना नहीं मिली. उस भाषण को हिंदुओं और हिंदू विचारों के लिए समर्पित माना गया. प्रधानमंत्री मोदी ने एक मुद्दे- भारत की एकता और आगे का रास्ता- पर निरंतर बात की. पूरा भाषण देश के भविष्य के लिए विचारों और महत्वाकांक्षाओं से भरा था. इसका मतलब यह नहीं है कि उनके भाषण में हिंदू धर्म और उसके आदर्श गायब थे. उन्होंने समाज और देश की भलाई के बारे में बात करने में उन विचारों का उपयोग किया.
जब भी उन्होंने भगवान राम या रामायण या अयोध्या के संदर्भों का उपयोग किया, तो यह भगवान राम के संघर्षों और समाज की भलाई के लिए उच्च मूल्यों और आदर्शों पर खड़े होने के उनके अटूट आग्रह को उजागर करने के लिए एक प्रतीकात्मक अर्थ में था. प्रधानमंत्री मोदी ने न तो किसी को हिंदू बनने के लिए कहा और न ही उन्होंने केवल हिंदुओं से आह्वान किया. उनका आह्वान भारतीयों से था, और यह संक्षिप्त था- मजबूत भारत के लिए काम करें. फिर भी, उस भाषण को सांप्रदायिक बता कर उपहास किया गया, पर ईरान के धार्मिक नेता द्वारा मुसलमानों से एकजुट होने के आह्वान को प्रेरणादायक माना गया है.
कोई व्यक्ति धर्मनिरपेक्षता विरोधी हुए बिना भी हिंदू हो सकता है, क्योंकि हिंदू धर्म लेबल लगाने और खुद को बदलने के लिए मजबूर करने के बारे में नहीं है. यह सही मार्ग को प्रोत्साहित करता है. सभी इसका अनुसरण करने के लिए स्वतंत्र हैं. हिंदू धर्म में कोई अंतिम न्याय दिवस नहीं है, जिससे किसी को डरना पड़े. केवल अपने कार्य और अपनी कमियां ही कर्म के रूप में वापस आती हैं. इस तरह, हिंदू धर्म भौतिक और अलौकिक सद्भाव के बारे में है. यह सही मार्ग पर चलने के बारे में है, जिसका अनुसरण धर्मनिरपेक्ष लोगों सहित गैर-हिंदू भी कर सकते हैं. हिंदू धर्म के लिए कोई बाहरी दुश्मन नहीं है, बल्कि खुद के अंदर ही दुश्मन है और सही रास्ते पर चलकर ही कोई उस दुश्मन पर विजय पा सकता है. यह समाज और देश के लिए एक अच्छी ताकत बन सकता है. हिंदुओं की एकता हथियारों का नहीं, बल्कि उच्च मूल्यों और स्वार्थ से परे एक राष्ट्र के रूप में एकीकृत होने का आह्वान है.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)