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गांव का ऐतिहासिक-सांस्कृतिक अध्ययन

किसी गांव का नाम सुनने पर स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि उसका नाम कैसे पड़ा होगा. अमूमन हम इन प्रश्नों को नजरअंदाज कर देते हैं. लेकिन जब हम ऐसा करते हैं तो क्या उस स्थान से जुड़े ऐतिहासिक-सांस्कृतिक संदर्भों को विस्मृति की खाई में नहीं धकेल देते हैं

पुराने समय की बात है. रांची से सुदूर दक्षिण में मुंडा लोग सेंदेरा (शिकार) करने गये. उन्हें एक हिरण मिला. भागता हुआ हिरण अचानक कुत्ते के सामने आ गया. तेजी से अचानक सामने आये हिरण को देख कर कुत्ता डर गया. जिस स्थान पर कुत्ता डर गया था, मुंडाओं ने उस स्थान का नाम ‘बोरोसेता’ रख दिया. इसी तरह जिन-जिन जगहों से होकर हिरण गुजरा और जहां उसका सेंदेरा किया गया, उन स्थानों का उसी तरह नामकरण कर दिया गया.

इस तरह आस-पास के गांवों का नामकरण हुआ. बोरोसेता यानी ‘कुत्ता डर गया.’ मुंडारी भाषा का यह शब्द ‘बोरो’ और ‘सेता’ के समास से बना है. ‘बोरो’ का अर्थ है ‘डरना’ और ‘सेता’ का अर्थ ‘कुत्ता’ है. बोरोसेता झारखंड में सिमडेगा जिले के बानो प्रखंड के एक गांव का नाम है. उसके आसपास अब सड़क आदि परियोजनाओं की वजह से जंगल कम हो गये हैं, लेकिन यह गांव अपने नाम की व्युत्पत्ति में जंगल के होने के अर्थ को समाहित किये हुए है.

किसी गांव का नाम सुनने पर स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि उसका नाम कैसे पड़ा होगा. अमूमन हम इन प्रश्नों को नजरअंदाज कर देते हैं. लेकिन जब हम ऐसा करते हैं तो क्या उस स्थान से जुड़े ऐतिहासिक-सांस्कृतिक संदर्भों को विस्मृति की खाई में नहीं धकेल देते हैं? क्या हम अवचेतन में जड़ जमाये औपनिवेशिक मन:स्थितियों की वजह से ही ऐसा व्यवहार नहीं करते हैं? ये सामान्य सवाल नहीं हैं.

ब्रदर जोसेफ कंडुलना ने अपनी किताब ‘अबुअ: हतु बोरोसेता’ में इस गांव का विस्तृत कुर्सीनामा लिखा है. मुंडारी, हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं में सम्मिलित रूप से लिखी उनकी किताब सामाजिक संरचना के अध्ययन एवं स्थानीय इतिहास लेखन की दिशा में विलक्षण प्रयोग है. आदिवासी गांवों की विशेषता यह होती है कि उनमें प्राचीन काल से ही ‘पत्थलगड़ी’ की जाती है. गांव बसाने वाले प्रथम पूर्वज से लेकर अब तक के बुजुर्गों के बारे में विशाल पत्थरों पर खुदाई की जाती है.

किताब के लेखक के अनुसार बोरोसेता गांव को बसाने वाले प्रथम पूर्वज बड़सी मुंडा थे. उन्होंने बीहड़ जंगल को साफ कर गांव बसाया था. उनके द्वारा हमें मुंडाओं की ऐतिहासिक बसाहट और उनके भ्रमण के बारे में जानकारी मिलती है, साथ ही आदिवासियों के साथ गैर-आदिवासियों यानी सदानों के आदिवासी अंचलों में बसने की कथा भी मिलती है.

लेखक के अनुसार बोरोसेता में मूलत: ‘कंडुलना’ किली यानी गोत्र के लोगों का निवास है. ये लोग रांची के निकट खटंगा गांव से विभिन्न जगहों में बसते चले गये. किली या गोत्र के निर्माण की ऐतिहासिक एवं रोचक प्रक्रिया मुंडा जनश्रुतियों में मौजूद है. प्राचीन काल में झारखंड की वर्तमान राजधानी रांची मुंडाओं का गढ़ था. कालांतर में मुंडाओं का भ्रमण बड़े पैमाने पर रांची से पूरब और दक्षिण की ओर हुआ.

उसी क्रम में बड़सी मुंडा का आगमन इस ओर हुआ. बोरोसेता के पत्थर पर उल्लेखित कुर्सीनामा के अनुसार 1690 के लगभग बड़सी मुंडा यहां आये. बाद में दूसरे किली के मुंडा भी आकर यहां बसे, साथ ही साहू और सिंह समाज के लोग भी आये. कुर्सीनामा लिखते हुए लेखक ने सभी सामाजिक समूहों का ध्यान रखा है.

उन्होंने सभी समूहों की वंशावली प्रकाशित की है. आज इस गांव में जो चौक और बाजार बने हैं, उनका नामकरण भी गांव के पूर्वजों के नाम पर है. यह पूर्वजों के प्रति स्थानीय लोगों का सम्मान तो है ही, यह उस सांस्कृतिक वर्चस्व के विरुद्ध भी की गयी प्रतिक्रिया है, जो बाहर से संस्कृति के नाम पर आयातित होकर आता है.

यह गांव किसी समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक निर्मिति और उसके परिवर्तन का सूचक है. यह उस समाजशास्त्र का सूचक है, जिससे झारखंड का समाज बना है. यह भारतीय सामाजिक संरचना में मौजूद विविधता का द्योतक भी है. समाजशास्त्री एमएन श्रीनिवास ने अपनी पुस्तकों में गांव की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना को समझने की कोशिश की. ऐसा अध्ययन समाजशास्त्र के साथ इतिहास लेखन को भी नया आयाम देता है.

लेकिन इतिहास के मामले में कई बार हम इतने अभिजनवादी हो जाते हैं कि अपने ही पूर्वजों के इतिहास को नजरअंदाज कर जाते हैं. उनकी जिजीविषा और ज्ञान परंपरा से खुद को दूर कर लेते हैं. किसी गांव के नाम की व्युत्पत्ति के द्वारा उसके इतिहास को समझने की कोशिश के बहुत कम उदाहरण हैं. हमारे मानस में यह बात बैठी हुई है कि किसी स्थान या जगह को राजा-महाराजा या प्रभुत्वशाली लोगों द्वारा ही बसाया जाता है.

समाजशास्त्री बद्री नारायण के अनुसार लोक संस्कृति में निहित इतिहास को डिकोड किया जाना चाहिए. बोरोसेता गांव के नामकरण से जुड़ी लोक कथा को डिकोड करने पर हम आदिवासी जनों की रचनात्मकता, स्वायत्तता और जीवटता से परिचित होते हैं. यह ऐसी प्रवृत्ति है, जो उनकी मौलिक चेतना को दर्शाती है. हम अपने गांवों का अध्ययन कर इस दिशा में पहल कर सकते हैं और ज्ञान एवं संस्कृति के क्षेत्र में गहरे धंसे औपनिवेशिक वर्चस्व के विरुद्ध हस्तक्षेप कर सकते हैं.

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