यह सही है कि देश में हॉकी का वह दबदबा नहीं रहा, जो कई दशकों पहले था. देश क्रिकेट के आगे सोच ही नहीं रहा है. रांची या कोलकाता में कोई वनडे या फिर टी-20 मैच होने दीजिए, फिर देखिए टिकट को लेकर कैसी मारामारी होती है, लेकिन अपने पड़ोसी राज्य ओडिशा में हॉकी विश्व कप को लेकर लोगों का उत्साह एकदम ठंडा है. अधिकतर लोगों को तो यह जानकारी भी नहीं होगी कि हमारे पड़ोस में पुरुष हॉकी विश्व कप खेला जा रहा है. इसकी शुरुआत 13 जनवरी से हो रही है और फाइनल मुकाबला 29 जनवरी को खेला जायेगा. प्रतियोगिता का पहला मैच भारत और स्पेन के बीच होगा. मैचों का आयोजन ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर और राउरकेला में होगा. विदेशी टीमें आने लगी हैं, लेकिन मीडिया में इसकी वैसी चर्चा नहीं है, जैसी किसी विश्व कप के लिए होनी चाहिए. कप्तान हरमनप्रीत सिंह के नेतृत्व में हॉकी टीम राउरकेला पहुंच गयी है और वहां उसका जोरदार स्वागत हुआ. पूर्व उपविजेता नीदरलैंड, इंग्लैंड, स्पेन, पिछली चैंपियन बेल्जियम और ऑस्ट्रेलिया की टीमें भी आ गयी हैं.
भारतीय हॉकी टीम से बढ़ी उम्मीदें
टोक्यो ओलिंपिक में कांस्य पदक जीतने के बाद से भारतीय हॉकी टीम से उम्मीदें बढ़ गयी हैं. भारतीय टीम 41 साल के बाद ओलिंपिक में पदक हासिल करने में सफल रही थी. कप्तान हरमनप्रीत ने कहा कि टीम विश्व कप के लिए तैयार है. जब टीम राउरकेला पहुंची, तो हजारों लोग हमारे स्वागत के लिए खड़े थे. उनके इस प्यार के लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं. हॉकी को बढ़ावा देने में ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की जितनी भी तारीफ की जाए, वह कम है. उन्हीं के प्रयासों से हॉकी विश्व कप का आयोजन ओडिशा में हो पा रहा है. उन्होंने घोषणा की है कि यदि भारतीय टीम विश्व कप जीती, तो हर खिलाड़ी को एक-एक करोड़ रुपये की धनराशि पुरस्कार स्वरूप दी जायेगी. उन्होंने भारतीय टीम को शुभकामनाएं दीं और उम्मीद जतायी कि वह चैंपियन बन कर उभरेगी.
ओडिशा लगातार दूसरी बार कर रहा हॉकी विश्व कप की मेजबानी
राउरकेला में बिरसा मुंडा हॉकी स्टेडियम परिसर और विश्व कप गांव तैयार किया गया है, जिसमें सभी खिलाड़ी ठहरेंगे. इसी स्टेडियम में 13 जनवरी को पुरुष हॉकी विश्व कप विश्व कप का आगाज होगा. ओडिशा लगातार दूसरी बार हॉकी विश्व कप की मेजबानी कर रहा है. भारत ने ओलिंपिक में गिने-चुने ही स्वर्ण पदक जीते हैं, लेकिन हॉकी में भारत का प्रदर्शन काफी अच्छा रहा है. भारत ने हॉकी में अब तक ओलिंपिक में आठ स्वर्ण पदक जीते हैं. वर्ष 1928 ओलिंपिक में पहली बार खेलते हुए भारतीय हॉकी टीम ने स्वर्ण पदक जीता था. तब भारत ने पांच मैचों में कुल 29 गोल दागे थे और एक भी गोल भारतीय टीम के खिलाफ नहीं हुआ था. इस ओलिंपिक में ध्यान चंद ने अकेले 14 गोल किये थे. इसके बाद वे हीरो बन कर उभरे थे. वर्ष 1932 और 1936 ओलिंपिक में भी उन्होंने अपने दम पर भारत को दो और स्वर्ण पदक जितवाया था. जब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ओलिंपिक खेल फिर शुरू हुए, तो देश को ध्यान चंद के अलावा बलबीर सिंह सीनियर जैसा एक और सितारा मिल गया था. उन्होंने भी भारत को लगातार तीन स्वर्ण पदक दिलाया. स्वर्ण पदक की यह हैट्रिक 1948, 1952 और 1956 में हुई और यह इसलिए विशेष थी कि यह देश की आजादी के बाद की हैट्रिक थी. भारत ने अंतिम स्वर्ण पदक 1980 में मॉस्को ओलिंपिक में जीता था. वर्ष 1989 में धनराज पिल्लै के उभरने के साथ देश में हॉकी को लेकर फिर उम्मीदें जगी थीं. उन्होंने अकेले दम पर 1998 एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जितवाया था और वर्षों से चले आ रहे पदक के सूखे को खत्म किया था, लेकिन विपरीत परिस्थितियों के कारण पिल्लै भी भारतीय हॉकी की तस्वीर बदलने में सफल नहीं पाये थे.
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हॉकी खिलाड़ियों की खान रहा है झारखंड
झारखंड हमेशा से हॉकी खिलाड़ियों की खान रहा है. झारखंड की लड़कियों ने भी विषम परिस्थितियों के बावजूद समय-समय पर उन्होंने अपना करिश्मा दिखाया है. चाहे वह हॉकी में हो, तीरंदाजी में हो या मुक्केबाजी में, हर क्षेत्र में यहां की महिलाओं ने नाम कमाया है. झारखंड की सावित्री पूर्ति, असुंता लकड़ा, बिगन सोय ने अंतरराष्ट्रीय हॉकी में भारत का नाम रौशन किया. अभी भारतीय हॉकी टीम में झारखंड की चार बेटियां- निक्की प्रधान, सलीमा टेटे, संगीता कुमारी और ब्यूटी डुंगडुंग- खेल रही हैं. निक्की प्रधान दो बार ओलिंपिक खेल चुकी हैं. निक्की पिछले कई वर्षों से भारतीय टीम की नियमित सदस्य हैं. सलीमा टेटे भी पिछले टोक्यो ओलिंपिक में भारतीय टीम में शामिल थीं. ब्यूटी डुंगडुंग और संगीता कुमारी ने भारतीय जूनियर महिला हॉकी टीम में शानदार खेल दिखाया था, जिसके बाद इन्हें सीनियर महिला हॉकी टीम में स्थान दिया गया है.
गांव-देहात के कमजाेर पृष्ठभूमि से निकले खिलाड़ी भी अपनी प्रतिभा का मनवा रहे लोहा
अभी तक धारणा यह रही है कि खेलों में सुविधाओं के कारण समृद्ध देशों के खिलाड़ियों का प्रदर्शन बेहतर रहता है. कोई भी अंतरराष्ट्रीय खेल स्पर्धा हो, वहां अमेरिका और पश्चिमी देशों का दबदबा देखने को मिलता है, लेकिन इसके उलट हमारे देश में गांव-देहात से कमजोर पृष्ठभूमि से निकले खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं. किसी भी बड़ी प्रतियोगिता पर आप नजर डालें, तो भारत की कामयाबी में छोटे स्थानों से आये खिलाड़ियों, खास कर महिला खिलाड़ियों का बड़ा योगदान रहता है. हमारे प्रसार के तीनों राज्यों- झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल- को ही लें, तो यहां हॉकी व फुटबॉल खूब खेले जाते हैं.
देश में प्रतिभा की कोई कमी नहीं
कोरोना काल से पहले झारखंड के 15 युवा खिलाड़ियों का चयन ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन की प्रतिभा खोज के तहत नेशनल कैंप के लिए हुआ था. इसमें खूंटी, गुमला और जामताड़ा जैसी छोटी जगहों के नवयुवक शामिल थे. इसमें कोई शक नहीं है कि यदि युवा खिलाड़ियों को मौका और मार्गदर्शन मिलेगा, तो वे आने वाले दिनों देश का नाम रौशन करेंगे. हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमारे खेल संघों पर नेताओं ने कब्जा कर रखा है. देश में खेल संस्कृति पनपे, इसके लिए खेल प्रशासन पेशेवर लोगों के हाथ में होना चाहिए, लेकिन हुआ इसके ठीक उलट. नतीजतन अधिकतर खेल संघ राजनीति का अखाड़ा बन गये. खेल संघों में फैले भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार और निहित स्वार्थों ने खेलों और खिलाड़ियों का भारी नुकसान पहुंचाया है. यही वजह है कि हम आज भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कहीं नहीं ठहरते हैं. हमारे देश में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है. यदि बेहतर माहौल तैयार किया जाये और युवा खिलाड़ियों को उचित मार्गदर्शन मिले, तो हम हर खेल में अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं.
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