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होली तो अहंकार विसर्जन का है पर्व

आदिवासी समाज में प्रत्येक कृषि उत्पाद के लिए ‘नवा खाई’ पर्व होता है, जो भी नयी फसल आयी, उसके लिए प्रकृति का धन्यवाद. होली भी किसानों के लिए कुछ ऐसा ही पर्व है.

होली भारत में किसी एक जाति, धर्म या क्षेत्र विशेष का पर्व नहीं है. इसकी पहचान देश की संस्कृति के रूप में है. वसंत ऋतु जनजीवन में नयी चेतना का संचार कर रही होती है. फागुन की सुरमई हवाएं वातावरण को मस्त बनाती हैं, तभी होली के रंग लोकजीवन में घुल जाते हैं. इन्हीं दिनों नयी फसल भी तैयार होती है और यह किसानों के लिए उल्लास का समय होता है.

होली के बहाने नये अन्न की पूजा पूरे देश में की जाती है. पूरी दुनिया में होली की ही तरह कुछ त्योहार मनाये जाते हैं, जिनका उद्देश्य तनावों से दूर कुछ पल मौज-मस्ती के साथ बिताना होता है. विडंबना है कि अब होली का स्वरूप भयावह हो गया है. वास्तव में होली का अर्थ है- हो ली, यानी जो बीत गयी सो बीत गयी, अब आगे की सुध है.

गिले-शिकवे मिटाओ, गलतियों को माफ करो और एक-दूसरे को रंगों में सराबोर कर दो– रंग प्रेम के, अपनत्व के, प्रकृति के. यह पर्व, पर्यावरण का दुश्मन, नशाखोरी, आनंद की जगह भोंडे उधम के लिए कुख्यात हो गया है. पानी की बर्बादी और पेड़ों के नुकसान ने असल में हमारी आस्था और परंपरा की मूल आत्मा को ही नष्ट कर दिया है.

इस पर्व का वास्तविक संदेश तो स्वच्छता और पर्यावरण संरक्षण ही है. दुखद है कि अब इस त्योहार ने पारंपरिक रूप और उद्देश्य खो दिया है. इसकी छवि पेड़ व हानिकारण पदार्थों को जला कर पर्यावरण को हानि पहुंचाने और रंगों के माध्यम से जहर बांटने की बनती जा रही है.

हालांकि, कई शहरों और मोहल्लों में बीते एक दशक के दौरान होली को प्रकृति-मित्र के रूप में मनाने के अभिनव प्रयोग भी हो रहे हैं. हमारा कोई भी संस्कार या उत्सव उल्लास की आड़ में पर्यावरण को क्षति की अनुमति नहीं देता. होलिका दहन के साथ सबसे बड़ी कुरीति हरे पेड़ों को काट कर जलाने की है.

वास्तव में होली भी दीपावली की ही तरह खलिहान से घर के कोठार में फसल आने की खुशी व्यक्त करने का पर्व है. कुछ सदियों पहले तक ठंड के दिनों में भोज्य पदार्थ, मवेशियों के लिए चारा जैसी कई चीजें भंडार कर रखने की परंपरा थी. ठंड के दिनों में कम रोशनी के कारण कई तरह का कूड़ा भी घर में ही रह जाता था. याद करें कि होली में गोबर के बने उपले, माला अवश्य डाली जाती है.

असल में ठंड के दिनों में जंगल जाकर जलावन लाने में डर रहता था, सो ऐसे समय के लिए घरों में उपलों को भी एकत्र कर रखते थे. चूंकि, अब घर में नया अनाज आनेवाला है. सो, कंडे-उपले की जरूरत नहीं, तभी उसे होलिका दहन में इस्तेमाल किया जाता है. उपले की आंच धीमी होती है,

लपटें ऊंची नहीं जातीं, इसमें नये अन्न-गेंहूं की बाली या चने के छोड़ को भूना भी जा सकता है, सो हमारे पूर्वजों ने होली में उपले के प्रयोग किये. दुर्भाग्य है कि अब लोग होली की लपेटें आसमान से ऊंची दिखाने के लिए लकड़ी और कई बार प्लास्टिक जैसा विषैला कूड़ा इस्तेमाल करते हैं. एक बात और, आदिवासी समाज में प्रत्येक कृषि उत्पाद के लिए ‘नवा खाई’ पर्व होता है, जो भी नयी फसल आयी, उसके लिए प्रकृति का धन्यवाद. होली भी किसानों के लिए कुछ ऐसा ही पर्व है.

होलिका पर्व का वास्तविक समापन शीतला अष्टमी को होता है. होली के आठ दिन बाद अष्टमी का यह अवसर, शक संवत का पहला महीना चैत्र और इसके कृष्ण पक्ष पर बासी खाना खाने का बसौड़ा. इस दिन घर में चूल्हा नहीं जलता और एक दिन पहले ही पक्की रसोई यानी पूड़ी कचौड़ी, चने, दही बड़े आदि बन जाते हैं.

सुबह सूरज उगने से पहले होलिका के दहन स्थल पर शीतला मैया को भोग लगाया जाता है. स्कंद पुराण शीतलाष्टक स्त्रोत के अनुसार ‘वंदेहं शीतलां देवींरासभस्थां दिगंबराम. मार्जनीकलशोपेतां शूर्पालड्-तमस्तकाम.’ अर्थात, गर्दभ पर विराजमान दिगंबरा, हाथ में झाड़ू तथा कलश धारण करनेवाली, सूप से अलंत मस्तकवाली भगवती शीतला की मैं वंदना करता हूं. शीतला माता स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं.

हाथ में मार्जनी (झाड़ू) होने का अर्थ है कि समाज को भी सफाई के प्रति जागरूक होना चाहिए. कलश से तात्पर्य है कि स्वच्छता से ही स्वास्थ्य रूपी समृद्धि आती है. मान्यता के अनुसार, देवी का व्रत रखने से कुल में चेचक, खसरा, दाह, ज्वर, पीतज्वर, फोड़े और नेत्रों के रोग दूर हो जाते हैं. संदेश यही है कि यदि स्वच्छता रखेंगे, तो ये रोग नहीं हो सकते.

गौर करें, होली का प्रारंभ हुआ, घर-खलिहान से कूड़ा-कचरा बुहार कर होली में जलाया, पर्व में शरीर पर विभिन्न रंग लगाये और फिर उन्हें छुड़ाने के लिए रगड़-रगड़ कर स्नान किया. समापन पर स्वच्छता की देवी की पूजा-अर्चना की. गली-मोहल्ले के चौराहे पर होली दहन स्थल पर बसौड़ा का चढ़ावा चढ़ाया, जिसे समाज के गरीब और ऐसे वर्ग के लोगों ने उठा कर भक्षण किया जिनकी आर्थिक स्थिति उन्हें पौष्टिक आहार से वंचित रखती है.

चूंकि, भोजन ऐसा है जो कि दो-तीन दिन खराब नहीं होना, सो वे घर में संग्रह कर भी खा सकते है. फिर यही लोग नयी उमंग-उत्साह के साथ फसल की कटाई से लेकर अगली फसल के लिए खेत को तैयार करने का कार्य तपती धूप में भी लगन से करेंगे. इस तरह होली का उद्देश्य समाज में समरसता बनाये रखना, अपने परिवेश की रक्षा करना और जीवन में मनोविनोद बनाये रखना है, यही इसका मूल दर्शन है.

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