मिथिला कला के पेपर मेसी रूप का सम्मान

पेपर मेसी में कागज को पानी में गलाकर पहले लुगदी बनायी जाती है, फिर कलाकार गोंद मिलाकर उसे धूप मे सुखाते हैं. फिर विभिन्न आकृतियों में गढ़ कर उस पर रंग चढ़ाया जाता है.

By अरविंद दास | February 16, 2023 8:00 AM

अरविंद दास

वरिष्ठ पत्रकार

arvindkdas@gmail.com

पेपर मेसी कला को आम तौर पर लोग मिथिला से जोड़ कर नहीं देखते हैं. मिथिला चित्रकला या मधुबनी कला की ख्याति देश-विदेश में ऐसी फैली कि सांस्कृतिक रूप से समृद्ध इस क्षेत्र के अन्य लोक कलाओं की उपेक्षा हुई. मिथिला में चित्रकला के अलावा पेपर मेसी, सिक्की आर्ट और टेराकोटा शिल्प की भी विकसित परंपरा रही है. पर सहयोग और संरक्षण के अभाव में कला के ये रूप कालांतर में पिछड़ गये. उल्लेखनीय है कि पारंपरिक रूप से मिथिला कला से महिलाएं जुड़ी रही हैं.

पिछले दिनों मधुबनी जिले के सलेमपुर गांव की सुभद्रा देवी को जब कला के क्षेत्र में योगदान के लिए पद्मश्री देने की घोषणा हुई, तब लोगों का ध्यान बिहार की इस कला की ओर गया. बिहार में इस कला को स्थापित करने में 87 वर्ष की सुभद्रा देवी की प्रमुख भूमिका रही है. पद्मश्री पुरस्कार की घोषणा से वे काफी खुश हैं. सदियों से मिथिला की महिलाएं अरिपन, कोहबर, दशावतार, बांस, पुरइन, मछली आदि को दीवारों पर उकेरती रही हैं.

बीती सदी के साठ के दशक में इस क्षेत्र में आये भीषण अकाल ने इस कला को कागज के मार्फत मिथिला से बाहर पहुंचाया, तब गंगा देवी, सीता देवी, महासुंदरी देवी, गोदावरी दत्त और बौआ देवी जैसे सिद्धहस्त कलाकारों से देश-दुनिया का परिचय हुआ. समय के साथ इस पारंपरिक कला में आधुनिक विषय भी शामिल होते गये, जो इस कला के विकासशील होने का प्रमाण हैं. सुभद्रा देवी इसी पीढ़ी की कलाकार हैं.

वे कहती हैं कि उन्होंने अपनी कला यात्रा की शुरुआत मिथिला चित्रकला से ही की थी, पर बाद में पेपर मेसी को साधा. उनकी कला में मिथिला की संस्कृति और परंपरा की झलक दिखती है. वे कहती हैं कि ‘सत्तर के दशक में पटना में शिल्प अनुसंधान संस्थान के लिए मैंने कनिया-पुतरा (कपड़े), पेंटिंग (कागज) और सामा-चकेवा (मिट्टी) बनाया था. सामा-चकेवा को काफी पसंद किया गया’ इसके बाद संस्थान के सेनगुप्ता और उपेंद्र महारथी ने उन्हें मिट्टी-कागज को छोड़ कर मिथिला कला को पेपर मेसी पर उकेरने को प्रेरित किया.

पेपर मेसी में कागज को पानी में गलाकर पहले लुगदी बनायी जाती है, फिर कलाकार गोंद मिलाकर उसे धूप में सुखाते हैं. फिर विभिन्न आकृतियों में गढ़ कर उस पर रंग चढ़ाया जाता है. शुरुआत में सुभद्रा देवी कागज के साथ मिथिला इलाके में आसानी से उपलब्ध मेथी और दर्द मैदा पेड़ के छाले के सहारे काम करती थीं. फिर लोक में उपलब्ध प्राकृतिक रंगों से आकृतियों को रंगती थीं. इसे उन्होंने अपनी दादी-नानी को इस्तेमाल करते हुए देखा था. बचपन की स्मृतियां उनके काम में परिलक्षित होती रही हैं. बाद में जब वे बिहार से बाहर अपनी कला को लेकर गयीं, तब मुल्तानी मिट्टी, फेविकोल जैसे अवयवों का इस्तेमाल उन्होंने शुरू किया.

उनकी इस कला में परंपरा और आधुनिक विषयों का समावेश दिखता है. एक तरफ जनक डाला, गौरी पूजा के लिए हाथी, मछली जैसे मिथकीय विषयों को वे गढ़ती रही हैं, वहीं लोक में इस्तेमाल किये जाने वाले सजावटी सामान, खिलौने को भी आकार देती हैं. कल्पना से हाथों के सहारे विभिन्न आकृतियां गढ़ने में वे सिद्धहस्त हैं और उम्र के इस पड़ाव पर भी सक्रिय हैं. वर्तमान में इस कला में ‘मोल्ड’ का इस्तेमाल बढ़ा है, पर सुभद्रा देवी इसका इस्तेमाल नहीं करती हैं. वर्ष 1981 में उन्हें राज्य पुरस्कार और 1991 में राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.

इस कला को लेकर 2004 में वे स्पेन भी गयीं. सुभद्रा देवी बताती हैं कि 90 के दशक में जब वे एक बार मद्रास गयी थीं, तब उन्हें राजा-रानी को उकेरने को कहा गया, पर उन्होंने मिथिला की लोक परंपरा में व्याप्त सीता-राम की शादी, कोहबर, मंडप, कन्यादान के इर्द-गिर्द जो विधि-विधान के किस्से हैं, उसे विभिन्न रूपों में उकेरा था. पेपर मेसी में उन्होंने मिथिला की पारंपरिक कला रूपों को खूबसूरती से पिरोया है.

वे कहती हैं कि उन्होंने मिथिला कला को नहीं छोड़ा है. मिथिला में कोहबर के दौरान चार दिनों तक गौरी पूजा की विधि है, जिसमें हाथी के ऊपर सिंदूर डाला जाता है. पहले हाथी मिट्टी का बना होता रहा है, पर आज पेपर मेसी के बने हाथी का इस्तेमाल भी हो रहा है. पेपर मेसी कला का विकास मुगल काल में हुआ.

ओड़िशा, राजस्थान, मध्यप्रदेश, केरल, आंध्र प्रदेश आदि में भी इस कला के विभिन्न रूप दिखते हैं. सुभद्रा देवी ने सैकड़ों कलाकारों को इस कला में प्रशिक्षित किया है, जिनमें से कुछ को राज्य स्तर पर पुरस्कार भी मिले हैं. हालांकि पेपर मेसी के कलाकार सिर्फ कला के सहारे जीवन-बसर नहीं कर सकते. अभी इसका बाजार विकसित नहीं हुआ है. इस कला को सरकार और लोक के सहयोग की जरूरत है.

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