भारत-ब्रिटेन संबंधों में बेहतरी की आशा
लिज ट्रस की यह नैतिक जिम्मेदारी होगी कि वे बोरिस जॉनसन के उचित एजेंडे को आगे बढ़ाएं. बतौर विदेश मंत्री भारत और ब्रिटेन के बीच सहयोग बढ़ाने की कोशिशों में उनका योगदान रहा है.
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के रूप में लिज ट्रस के पदभार संभालने के साथ यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि भारत व ब्रिटेन के संबंधों का भविष्य क्या होगा. यह हम सब जानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ट्रस के पूर्ववर्ती बोरिस जॉनसन के बीच अच्छे ताल्लुकात थे. दोनों नेता एक-दूसरे को अपना विशेष मित्र बताते थे. हाल ही में बोरिस जॉनसन ने भारत का दौरा भी किया था. इन दोनों नेताओं ने द्विपक्षीय सहयोग को बढ़ाने के लिए अनेक लक्ष्य निर्धारित कर लिया था.
लिज ट्रस के पास बोरिस जॉनसन सरकार में विदेश विभाग की जिम्मेदारी थी. उन्हें जॉनसन का करीबी भी माना जाता है, जबकि कंजरवेटिव पार्टी के नेतृत्व के चुने जाने की प्रक्रिया में जो नेता उन्हें चुनौती दे रहे थे, वे हाल के समय में जॉनसन से दूर हो गये थे. ऐसे में लिज ट्रस की यह नैतिक जिम्मेदारी होगी कि वे बोरिस जॉनसन के उचित एजेंडे को आगे बढ़ाएं. बतौर विदेश मंत्री उन्हें भारत और ब्रिटेन के संबंधों के बारे में जानकारी भी रही है तथा दोनों देशों के बीच सहयोग बढ़ाने की कोशिशों में भी उनका योगदान रहा है.
इस साल के अंत में भारत और ब्रिटेन के बीच मुक्त व्यापार समझौते पर अंतिम फैसला होना है. इसे लेकर दोनों पक्षों की अपनी आशाएं और आकांक्षाएं हैं. कुछ ऐसे संभावित प्रावधानों की घोषणा ब्रिटिश सरकार ने की है, जिन्हें हमने अन्य देशों के साथ हुए मुक्त व्यापार समझौतों में स्वीकार नहीं किया है. इसी तरह भारत का जोर पेशेवर लोगों की आवाजाही पर रहा है. साथ ही निवेश और बीमा से जुड़े मसले भी हैं. विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों और भारत की कुछ इच्छाओं को लेकर भी अभी स्पष्टता नहीं है.
यह भविष्य ही बतायेगा कि कुछ बिंदुओं पर ब्रिटेन सहमत होता है या नहीं. जो भी स्थिति बने, लेकिन दोनों ही पक्षों पर व्यापार समझौते को लेकर कुछ-न-कुछ करने का दबाव रहेगा, ताकि भारत व ब्रिटेन के संबंधों को आगे बढ़ाने के संकल्प को साकार किया जा सके. रक्षा सहयोग के मोर्चे पर भी बहुत संभावनाएं हैं. ब्रिटेन की इच्छा है कि हम उनसे हथियार व अन्य साजो-सामान खरीदें.
भारत ने विभिन्न क्षेत्रों के साथ रक्षा क्षेत्र में भी आत्मनिर्भरता की ओर पहलकदमी की है. ऐसे में हम ब्रिटेन से तकनीक हासिल करने की कोशिश कर सकते हैं. दोनों देश कुछ चीजों का साझा उत्पादन करने पर भी सहमत हो सकते हैं. इस संबंध में ब्रिटेन कितना आगे बढ़ता है, यह उस पर निर्भर करता है.
भारत और ब्रिटेन वस्तुओं के व्यापार बढ़ाने के लिए भी प्रयासरत हैं. दोनों ही देश एक-दूसरे के बाजार में अपने उत्पादों के लिए जगह चाहते हैं. इस इच्छा का बड़ा आधार दोनों देशों के घरेलू हिसाब हैं. भारत हाल ही में क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग समझौते से बाहर आया है, जिसके तहत पूर्वी एशिया के साथ व्यापक समझौते होने थे और भारत ने कई तरह की प्रतिबद्धताएं भी प्रस्तुत कर दी थीं, लेकिन घरेलू बाजार के हिसाब-किताब को देखते हुए आखिरी समय में भारत उस समझौते में शामिल नहीं हुआ.
हाल ही में हमने ऑस्ट्रेलिया के साथ एक व्यापार समझौता किया है. उस तरह का समझौता ब्रिटेन के साथ भी हो सकता है. इससे भारतीय उद्योग और कारोबार जगत को भी थोड़ा हौसला मिलेगा कि वे फिर क्षेत्रीय सहयोग समझौते की ओर लौटें तथा अमेरिका समेत विभिन्न देशों के साथ उसी तरह के समझौते हो सकें. उल्लेखनीय है कि यूरोपीय संघ से भी व्यापार समझौते को लेकर बात चल रही है. उससे भी ब्रिटेन के साथ होने वाले समझौते को मदद मिल सकती है.
यह हम सब देख रहे हैं कि यूरोप आज गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है. रूस-यूक्रेन संघर्ष और आर्थिक समस्याओं के कारण पूरा महादेश परेशान है. ब्रिटेन ने उस युद्ध में यूक्रेन का बढ़-चढ़ कर समर्थन किया है. यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की के कई सलाहकार ब्रिटिश नागरिक हैं. हाल ही में बोरिस जॉनसन ने यह भी कहा है कि प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद भी वे यूक्रेनी राष्ट्रपति से अपनी व्यक्तिगत मित्रता जारी रखेंगे.
रूस के साथ शांति वार्ताओं में यूक्रेन ने कड़ा रुख अपनाया है, उसमें भी उन्हें ब्रिटेन का पूरा साथ मिलता रहा है. बहुत संभव है कि लिज ट्रस को अब तक के ब्रिटिश रवैये में बदलाव लाना पड़े, क्योंकि ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के बीच भी वार्ताओं का दौर चलना है और इन दो पक्षों के बीच कई मुद्दे बेहद संवेदनशील हैं. ऊर्जा संकट गहराने के साथ यूक्रेन-रूस मसले पर यूरोपीय रुख में भी बदलाव के संकेत मिल रहे हैं.
रूस ने अब कहा है कि वह यूरोप को गैस देना चाहता है, लेकिन पाइपलाइन की मरम्मत का काम पेचीदा है तथा पाबंदियों की वजह से साजो-सामान मिलने में मुश्किल है, इसलिए अभी आपूर्ति कर पाना संभव नहीं है. सर्दी बढ़ती जा रही है. ऐसे में भंडारित ऊर्जा स्रोत उपयोग में लाये जा रहे हैं. रूस पर पाबंदी को लेकर नरम रुख अपनाने के बारे में जर्मनी और फ्रांस के बयान भी आ चुके हैं.
यह स्थिति लिज ट्रस के लिए चुनौतीपूर्ण रहेगी. अमेरिका यूक्रेन और नाटो देशों को ढेर सारा हथियार देने को तैयार है और वह चाहता है कि समूचा यूरोप नाटो के साथ जुड़ा रहे. ब्रिटेन का मानना है कि उसे इस प्रक्रिया में जुटे रहना चाहिए, क्योंकि नाटो के उपयोग में आने वाले बहुत सारे अमेरिकी हथियारों का उत्पादन ब्रिटेन में होता है, लेकिन जो पूर्वी यूरोप के देश हैं, जिन्होंने तेल व गैस आपूर्ति बढ़ाने के लिए बरसों से प्रयास किया है, उनकी सोच कुछ और है.
नये जर्मन चांसलर अपनी पूर्ववर्ती प्रतिबद्धताओं से पीछे हट गये हैं. इन देशों पर नाटो का दबाव भी है. ऐसे में देखना होगा कि लिज ट्रस किस हद तक संतुलन बना सकती हैं. यूरोप का परिदृश्य चिंताजनक होता जा रहा है. इसका असर भारत और अन्य एशियाई देशों के साथ उनके समझौतों एवं संबंधों पर पड़ सकता है.
हमारे यूरोप से गहरे संबंध हैं. अगर वहां आर्थिक मंदी आती है और वे कहीं से भी तेल व गैस की खरीद करेंगे, तो हमें भी दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है. सुनने में आ रहा है कि तेल उत्पादक अपनी आपूर्ति घटा सकते हैं. ऐसे में ब्रिटेन और यूरोप के साथ भारत व पूरी दुनिया के लिए यह जाड़ा बहुत मुश्किल समय हो सकता है.