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संवेदनशील मसलों पर फिल्मों में तथ्यों की न हो अनदेखी

IC 814: The Kandahar Hijack : सभी आतंकी पाकिस्तानी थे और उन्हें बाद में पाकिस्तान में ही शरण मिली. क्या बिना पाकिस्तानी सेना और आइएसआइ के सहयोग के यह सब हो सकता था? सीरीज में इस पहलू को एक तरह से नजरअंदाज करना निश्चित रूप से अनुचित है. निर्देशक और उनकी टीम ने भारतीय एजेंसियों- रॉ, आइबी आदि- को भी ठीक से नहीं दिखाया है.

IC 814: The Kandahar Hijack : पिछले कुछ दिनों से नेटफ्लिक्स पर आयी वेबसीरीज ‘आइसी 814: द कंधार हाईजैक’ पर गंभीर विवाद जारी है. यह सीरीज 1999 में 24 दिसंबर को काठमांडू से अपहृत हुए इंडियन एयरलाइंस के विमान आइसी-814 से जुड़ीं घटनाओं पर आधारित है. इस विमान को काठमांडू से अमृतसर, लाहौर और दुबई होते हुए अफगानिस्तान के कंधार ले जाया गया था. मसूद अजहर समेत तीन आतंकियों को छोड़ने के बदले इस जहाज को एक सप्ताह बाद छोड़ा गया था. सीरीज पर विवाद की मुख्य वजह यह है कि निर्देशक अनुभव सिन्हा और उनकी टीम द्वारा सही तरीके से उस घटनाक्रम के बारे में शोध नहीं किया गया तथा अनेक तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया. ऐसा लगता है कि घटनाओं को ठीक से न दिखा कर मनोरंजन के लिए उनके साथ छेड़छाड़ की गयी. किसी फिल्मकार द्वारा रचनात्मक स्वतंत्रता लेना अपनी जगह ठीक है, पर यह ध्यान जरूर रखना चाहिए कि तथ्यों को भ्रामक ढंग से पेश न किया जाए.

विमान के पांच अपहरणकर्ता पाकिस्तानी मुस्लिम थे

आइसी-814 के अपहरण की घटना हमारे लिए एक बेहद संवेदनशील मसला है. इसमें एक व्यक्ति की जान भी गयी थी. जिन आतंकियों को छोड़ा गया था, उन्होंने और अपहरणकर्ताओं ने भारत समेत दुनिया के अनेक देशों में बड़ी घटनाओं को अंजाम दिया, जिनमें बड़ी संख्या में लोग हताहत हुए. छोड़े गये आतंकियों में जो जीवित हैं, वे अब भी पाकिस्तान में बैठकर आतंकी गिरोहों का संचालन कर रहे हैं. विमान के पांच अपहरणकर्ता पाकिस्तानी मुस्लिम थे. इस तथ्य को ठीक से नहीं दिखाया गया है. उन आतंकियों ने लोगों में भ्रम पैदा करने के लिए नकली नाम रखे थे और उनमें हिंदू नाम भी थे. सीरिज में इस पहलू को स्पष्ट करने का प्रयास नहीं किया गया है. यदि एक डिस्क्लेमर लगा दिया जाता, तो इस बारे में विवाद पैदा नहीं होता. समूची सीरीज पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी आइएसआइ को क्लीन चिट देती प्रतीत होती है, जबकि अपहरण की साजिश रचने से लेकर घटना को अंजाम देने और आतंकियों को पनाह देने में सीधे तौर पर आइएसआइ की भूमिका थी.

‘आइसी 814: द कंधार हाईजैक’ वेबसीरीज में तथ्यों की अनदेखी

सभी आतंकी पाकिस्तानी थे और उन्हें बाद में पाकिस्तान में ही शरण मिली. क्या बिना पाकिस्तानी सेना और आइएसआइ के सहयोग के यह सब हो सकता था? सीरीज में इस पहलू को एक तरह से नजरअंदाज करना निश्चित रूप से अनुचित है. निर्देशक और उनकी टीम ने भारतीय एजेंसियों- रॉ, आइबी आदि- को भी ठीक से नहीं दिखाया है. ऐसा बताने का प्रयास किया गया है कि इनकी नाकामियों के चलते विमान का अपहरण हुआ.यह समझा जाना चाहिए कि ऐसी वारदातों के मामले में खुफिया तंत्र कभी-कभी विफल हो जाता है. फिर भी यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि विमान अपहरण के चौबीस घंटे के भीतर भारतीय एजेंसियों अपहरणकर्ताओं और उनकी मंशा से जुड़ी जानकारियों का पता लगा लिया था, लेकिन इस सीरीज में अपहरण का सारा ठीकरा एक तरह से अल-कायदा, ओसामा बिन लादेन, तालिबान आदि के माथे फोड़ने की कोशिश की गयी है.

वेबसीरीज में शोध का सख्त अभाव

अच्छी तरह से शोध न करने का ही नतीजा है कि कई भ्रामक तथ्य और घटनाक्रम सीरीज में दिखते हैं. जहाज अपहरण के कुछ ही महीने बाद तत्कालीन सरकार ने संसद में एक विस्तृत रिपोर्ट पेश की थी. सुरक्षा एजेंसियों की रिपोर्ट भी हैं. इस वेबसीरीज के निर्माताओं को कम-से-कम उन दस्तावेजों को ही पढ़ लेना चाहिए था. आतंकियों को छोड़ने का निर्णय किस प्रकार और किन परिस्थितियों में लिया गया, इसके बारे में भी समुचित मात्रा में सूचनाएं उपलब्ध हैं. सुरक्षा कारणों से एजेंसियां अपने कई मिशनों और गतिविधियों की जानकारी सार्वजनिक नहीं करती हैं, जिसकी वजह से बहुत से तथ्यों का पता नहीं चल पाता. मेरा मानना है कि जिस तरह से सूचना प्रसारण, मनोरंजन और अनुसंधान का दायरा बढ़ा है, उसे देखते हुए एक निश्चित अवधि के पश्चात ऐसी जानकारियों को सार्वजनिक कर देना चाहिए.

फिल्म प्रमाणन बोर्ड को संवेदनशील होने की जरूरत

मेरी राय में फिल्म प्रमाणन बोर्ड को भी अधिक संवेदनशील होने की आवश्यकता है, विशेषकर ऐसे विषयों पर, जो राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित हों. बोर्ड के सामने सत्य घटनाओं पर आधारित कोई फिल्म या सीरीज आये, तो उसमें दिखाये गये तथ्यों की जांच के लिए एक अच्छी रिसर्च टीम होनी चाहिए. ऐसी व्यवस्था से तथ्यों को लेकर मनमानी छूट लेने की प्रवृत्ति पर लगाम लग सकती है. उल्लेखनीय है कि अपहरण के समय मीडिया ने जिस तरह से खबरें दिखायीं, उसका लोगों पर भावनात्मक असर हुआ तथा सरकार पर आतंकियों को छोड़ने का दबाव बढ़ा. रुबैया सईद के अपहरण और आतंकियों को छोड़ने के मामले का हवाला देते हुए यह भी कहा गया कि अगर नेताओं की संतानों की जान के बदले आतंकी छोड़े जा सकते हैं, तो आम लोगों की जान बचाने के लिए ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता है. इस पहलू को भी सीरीज में ठीक से नहीं दिखाया गया है. यह जरूरी है कि फिल्मकार राष्ट्रीय सुरक्षा और हितों से जुड़े प्रकरणों पर फिल्में बनाएं, तो उन्हें अतिरिक्त सावधानी और संवेदना के साथ काम करना चाहिए. यह अच्छी बात है कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के हस्तक्षेप के बाद सीरीज में डिस्क्लेमर जोड़ा गया है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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