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झरने बचेंगे, तो बचेंगी नदियां

जलग्रहण क्षेत्र में स्वच्छता बनाये रखते हुए पारिस्थितिक तंत्र को कायम रखने और भूजल एवं धरती पर जल प्रवाह के प्रदूषण को रोकने की किसी को परवाह ही नहीं है.

By पंकज चतुर्वेदी | December 1, 2022 7:57 AM

जलवायु परिवर्तन की मार अब भारत में प्रत्येक प्राकृतिक संरचना और उसके जरिये समाज पर पड़ रही हैं. झरने एक ऐसा जल स्रोत हैं, जिस पर बड़ी आबादी निर्भर है, लेकिन उनके सिकुड़ने पर समाज का अपेक्षित ध्यान नहीं जा रहा है. देश की सैंकड़ों गैर हिमालयी नदियों, खासकर दक्षिण राज्यों की, का उद्गम ही झरनों से हैं. नर्मदा, सोन जैसी विशाल नदियां मध्य प्रदेश में अमरकंटक से झरने से ही फूटती हैं. झरने का अस्तित्व पहाड़ से है, उसे ताकत मिलती हैं घने जंगलों से और संरक्षण मिलता है अविरल प्रवाह से.

वर्ष 2020 में शोध पत्रिका ‘वाटर पॉलिसी’ ने भारतीय हिमालय क्षेत्र में स्थित 13 शहरों में 10 अध्ययनों की एक शृंखला आयोजित की थी. उसमें खुलासा हुआ कि कई शहर, जिनमें मसूरी, दार्जिलिंग और काठमांडू जैसे प्रसिद्ध पर्वतीय स्थल शामिल हैं, पानी की मांग-आपूर्ति के गहरे अंतर का सामना कर रहे हैं. इसका मूल कारण जल सरिताओं-झरनों का सूखना है. यही बात अगस्त, 2018 में नीति आयोग की रिपोर्ट में कही गयी थी.

झरना एक ऐसी प्राकृतिक संरचना है, जहां से जल एक्वीफर्स (चट्टान की परत, जिसमें भूजल होता है) से पृथ्वी की सतह तक बहता है. पूरे भारत में लगभग पचास लाख झरने हैं, जिनमें से लगभग तीस लाख हिमालय क्षेत्र में हैं. हमारे देश की बीस करोड़ से अधिक आबादी पानी के लिए झरनों पर निर्भर है. भारतीय हिमालय क्षेत्र 2,500 किलोमीटर लंबे और 250 से 300 किलोमीटर चौड़े क्षेत्र में फैला है और इसमें 12 राज्यों के 60 हजार गांव हैं, जिसकी आबादी पांच करोड़ है. जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा इसके दायरे में हैं.

असम और पश्चिम बंगाल भी आंशिक रूप से इसके तहत आते हैं. दक्षिण भारत में पश्चिमी घाटों में, कभी बारहमासी रहने वाले झरने मौसमी होते जा रहे हैं और इसका सीधा असर कावेरी, गोदावरी जैसी नदियों पर हो रहा है. झरनों के जल ग्रहण क्षेत्र में बेपरवाही से रोपे जा रहे नलकूपों ने भी झरनों का रास्ता रोका है. उत्तराखंड के अल्मोड़ा क्षेत्र में झरनों की संख्या पिछले 150 वर्षों में 360 से घटकर 60 रह गयी है. उत्तराखंड में नब्बे प्रतिशत पेयजल आपूर्ति झरनों पर निर्भर है, जबकि मेघालय में राज्य के सभी गांव पीने और सिंचाई के लिए झरनों का उपयोग करते हैं. ये झरने जैव-विविधता एवं पारिस्थितिकी तंत्र के महत्वपूर्ण घटक भी हैं.

झरनों के लगातार लुप्त होने या उनमें जल कम होने का सारा दोष जलवायु परिवर्तन पर नहीं मढ़ा जा सकता. अंधाधुंध पेड़ कटाई और निर्माण के कारण पहाड़ों को हो रहे नुकसान ने झरनों के प्राकृतिक मार्गों में अवरोध पैदा किया है. भले ही बांध बना कर पहाड़ों पर पानी एकत्र करने को आधुनिक विज्ञान अपनी सफलता मान रहा हो, लेकिन ऐसी संरचनाओं के निर्माण के लिए निर्ममता से होने वाले बारूदी धमाके और पारंपरिक जंगलों के उजाड़ने से सदानीरा कहलाने वाली नदियों के प्रवाह में होने वाली कमी पर कोई विचार कर नहीं रहा है.

हालांकि नीति आयोग ने 2018 में झरना संरक्षण कार्यक्रम की कार्य योजना तैयार की थी और यह उसकी चार साल पुरानी एक रिपोर्ट पर आधारित थी, पर अभी तक इस दिशा में किसी तरह की प्रगति नहीं हुई है. यह जानकर सुखद लगेगा कि सिक्किम ने इस संकट को 2009 में ही भांप लिया था. इससे पहले सिक्किम में प्रति परिवार पानी का खर्च 32 सौ रुपये महीना था. इसके बाद सरकार ने स्प्रिंग शेड प्रोजेक्ट पर काम शुरू किया. साल 2013-14 में झरनों के आसपास 120 हेक्टेयर पहाड़ी क्षेत्र में गड्ढे बनाकर बारिश का पानी संरक्षित करने पर काम शुरू किया और इसके 100 फीसदी परिणाम आने शुरू हो गये. अब पूरे राज्य में ‘धारा विकास योजना’ चल रही है और परिवारों का पानी पर होने वाला खर्च भी खत्म हो गया है.

झरनों को लेकर सबसे अधिक बेपरवाही उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में है, जो बीते पांच सालों में भूस्खलन के कारण तेजी से बिखर भी रहे हैं. इन राज्यों में झरनों के आसपास भूमि क्षरण कम करने, हरियाली बढ़ाने और मिट्टी के नैसर्गिक गुणों को बनाये रखने की कोई नीति नहीं बनायी गयी. मिट्टी में पानी का प्राकृतिक प्रवाह बढ़ाने और एक्वीफर्स या जलभृत में अधिक बरसाती जल पहुंचने के मार्ग खोलने पर विचार ही नहीं हुआ.

जलग्रहण क्षेत्र में स्वच्छता बनाये रखते हुए पारिस्थितिक तंत्र को कायम रखने और भूजल एवं धरती पर जल प्रवाह के प्रदूषण को रोकने की किसी को परवाह ही नहीं है. यह अब किसी से छिपा नहीं है कि मौसम चक्र तेजी से बदल रहा है. कहीं बरसात कम हो रही है, तो कहीं अचानक जरूरत से ज्यादा बरसात, फिर धरती का तापमान तो बढ़ ही रहा है. झरने हमारे सुरक्षित और शुद्ध जल का भंडार तो हैं ही, नदियों के प्राण भी इसी में बसे हैं. जरूरत इस बात की है कि नैसर्गिक जल सरिताओं और झरनों के कुछ दायरे में निर्माण कार्य पर पूरी तरह रोक हो. ऐसे स्थानों पर कोई बड़ी परियोजनाएं न लायी जाएं, जहां का पर्यावरणीय संतुलन झरनों से हो.

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