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महिलाओं के प्रति भाषा की मर्यादा

संघर्ष कर पहचान बनाने वाली महिलाओं को भी सियासी दुनिया में गरिमामयी माहौल क्यों नहीं मिल पाता?

By संपादकीय | October 21, 2020 6:23 AM

डॉ मोनिका शर्मा, टिप्पणीकार

monikasharma.writing@gmail.com

स्त्री के सम्मान और सामर्थ्य का सार्वजनिक उत्सव मना रहे देश में एक जन-प्रतिनिधि द्वारा एक महिला जनप्रतिनिधि को आइटम कहा जाना वाकई दुखद है. हाल ही में मध्य प्रदेश की मंत्री इमरती देवी को कांग्रेस अध्यक्ष कमल नाथ द्वारा चुनावी रैली में आइटम कहे जाने को लेकर हर ओर क्रिया-प्रतिक्रिया जारी है. गौरतलब है कि उनकी इस टिप्पणी पर महिला आयोग ने भी जवाब मांगा है और कार्रवाई के लिए चुनाव आयोग को पत्र लिखा है. इसी बीच एक और अभद्र और विवादास्पद बयान में, मध्य प्रदेश सरकार के मंत्री बिसाहू लाल सिंह ने अपने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस उम्मीदवार की पत्नी को रखैल जैसा आपत्तिजनक शब्द कहा है.

ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि स्त्री अस्मिता के मुद्दों पर बात करने वाले जन-प्रतिनिधियों की ऐसी आपत्तिजनक भाषा आमजन को क्या संदेश देती है? प्रश्न यह भी है कि संघर्षकर अपनी पहचान बनाने वाली महिलाओं को भी सियासी दुनिया में गरिमामयी माहौल क्यों नहीं मिल पाता?यह पहला वाकया नहीं है, जब किसी राजनीतिक दल से जुड़े चेहरे ने ऐसी असभ्य टिप्पणी की हो. स्त्री अस्मिता को चोट पहुंचाने वाला यह मौखिक व्यवहार, चुनावी रैलियों के मंचों से लेकर टेलीविजन चैनलों की बहसों तक अक्सर दिखता रहता है. आखिर क्यों राजनीति की दुनिया में महिलाएं किसी न किसी नेता की बदजुबानी का निशाना बनती हैं?

क्यों हमारे जन-प्रतिनिधि ऐसे असभ्य व्यवहार का उदाहरण बन रहे हैं, जो आमजन को भी महिलाओं के प्रति नकारात्मकता और उनका मजाक बनाने का संदेश देता है? हाल के वर्षों में, राजनीतिक परिवेश में भाषाई स्तर पर घोर निराशाजनक हालात देखने को मिले हैं. इस परिवेश में महिलाओं के अंतर्वस्त्रों से लेकर उनके कार्यक्षेत्र और पारिवारिक पृष्ठभूमि से लेकर शैक्षणिक योग्यता तक को लेकर खूब बेहूदा बोल बोले गये हैं और बोले जा रहे हैं. सियासत के खेल में बेहूदगी की हर सीमा पार की जा रही है.

अफसोस कि ऐसे तीखे प्रहार, प्रश्न और टिप्पणियां सरकारी योजनाओं की लचरता या आमजन की समस्याओं को लेकर नहीं, बल्कि व्यक्तिगत आक्षेप और टीका-टिप्पणी के लिए किये जा रहे हैं. महिलाएं इनका पहला निशाना बनती हैं. अफसोस कि हमारे यहां घर-दफ्तर से लेकर राजनीतिक परिवेश तक में कोई यह नहीं समझता कि इस देश की स्त्रियां मर्यादित आचरण चाहती हैं. स्त्रियां सम्मानजनक परिवेश में जीने, अपनी पहचान बनाने और काम करने की उम्मीद रखती हैं. उस मानसिकता से मुक्ति चाहती हैं, जिसमें स्त्री होने के नाते उसके काम और व्यक्तित्व को बेहूदा टीका-टिप्पणियों तक समेट दिया जाता है.

क्षेत्र कोई भी हो, अभद्र भाषा और असभ्य व्यवहार झेलना जैसे इस देश की महिलाओं की नियति बन गया है. कोई जनप्रतिनिधि हो या सड़क पर चलता आम इंसान, किसी महिला पर अभद्र टिप्पणी करना एक कुत्सित बर्ताव है. आहत करने वाला यह अपमानजनक व्यवहार कभी छेड़खानी, तो कभी किसी महिला की सफलता पर ही सवाल उठाने वाली बातों के रूप में अक्सर सामने आता रहता है. राजनीति की दुनिया में कई बार महिला नेताओं पर अभद्र ही नहीं, अश्लील टिप्पणियां तक की गयी हैं. यही वजह है कि ऐसी भाषा को लेकर बयानबाजी करने वाले नेता के विरोधी दल के लोग ही नहीं, समाज और सोशल मीडिया तक एक सुर में इस कृत्य के प्रति अपना विरोध दर्ज करते हैं.

यह आक्रोश जायज भी है, क्योंकि चुनाव प्रचार से लेकर संसद की कार्यवाही तक, स्त्री अस्मिता को आहत करने वाला यह असभ्य व्यवहार किसी न किसी महिला नेता के हिस्से आता रहता है. विचारणीय है कि सार्वजनिक जीवन में जनप्रतिनिधियों का सोच समझ कर न बोलना, आमजन को उनके जनसरोकार के प्रति कैसे आश्वस्त कर सकता है? हालात यह हो गये हैं कि आम चुनाव हों या राज्य स्तर पर चल रही कोई चुनावी प्रक्रिया, महिलाओं से जुड़े मुद्दे भले ही नदारद हों, पर स्त्री अस्मिता को ठेस पहुंचाने वाले विवादित बोल खूब बोले जाते हैं.

जनप्रतिनिधियों की यह वैचारिक दरिद्रता, आभासी संसार और समाचार चैनलों की बहसों के माध्यम से आमजन तक भी पहुंचती है. नयी पीढ़ी के विचार और व्यवहार पर भी इन बातों का नकारात्मक असर पड़ता है. विचारणीय है कि जिस देश में आधी आबादी के हिस्से आज भी सुरक्षा और समानता के मोर्चे पर कई दुश्वारियां मौजूद हैं, वहां ऐसे अभद्र बोल उनकी समस्याएं बढ़ाने वाले ही हैं. शिक्षित हों या अशिक्षित, हमारे यहां महिलाएं आज भी हाशिये पर ही हैं.

‘बेटी-बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के नारे वाले देश में बेटियों का स्कूल तक सुरक्षित पहुंचना ही दुश्वार है. कामकाजी महिलाएं घर से दफ्तर तक आते-जाते समय, भय और अनहोनी की आशंका में घिरी रहती हैं. बुनियादी समानता का हक पाने को जूझती महिलाओं के हिस्से, न उनके श्रम का सम्मान है और न ही अधिकारों की रक्षा. ऐसे में यह भाषाई अभद्रता संघर्ष कर आगे बढ़ रही महिलाओं का मनोबल तोड़ने वाली है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Posted by : Pritish Sahay

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