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प्रियंका की बात पर अमल का सवाल

परिवार से बाहर नेतृत्व तलाशने में कांग्रेसियों को सबसे बड़ी आशंका पार्टी के बिखर जाने की है. इस भय से उबरने का यही सबसे उचित समय है.

नवीन जोशी, वरिष्ठ पत्रकार

naveengjoshi@gmail.com

दोअमेरिकी लेखकों को कोई साल भर पहले दिये साक्षात्कार में प्रियंका गांधी की जिस बात ने कांग्रेस और देश की राजनीति में हलचल पैदा कर दी है, वह न तो नयी है, न चौंकानेवाली. तो भी, चूंकि बात नेहरू-गांधी परिवार की ‘इंदिरा-जैसी’ बेटी की है और कांग्रेस के नये अध्यक्ष के बारे में हैं, इसलिए कांग्रेस और ‘परिवार’ फिर जेरे-बहस है. प्रियंका का कथन है कि ‘मैं राहुल की इस राय से सहमत हूं कि किसी गैर-गांधी को कांग्रेस का नया अध्यक्ष होना चाहिए.’ इतना और जोड़ा है कि ’कांग्रेस को अपना रास्ता तलाशना होगा.’ भारतीय मूल के दो अमेरिकी लेखकों प्रदीप छिब्बर और हर्ष शाह की पुस्तक ‘टुमाॅरोज इंडिया: कंवरसेशंस विद नेक्स्ट जनरेशन ऑफ पॉलिटिकल लीडर्स’ में प्रियंका का यह कथन प्रकाशित हुआ है.

पिछले चुनाव में भारी पराजय के बाद कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने सारी जिम्मेदारी अपने सिर लेते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था. उन्होंने कांग्रेस के बड़े नेताओं पर कुछ आरोप भी लगाये थे कि वे अपने निजी हितों को और अपने बेटों को चुनाव लड़ाने को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं और उन्हें जिता भी नहीं पाते हैं.

उसी बैठक में राहुल ने कहा था कि ‘कांग्रेस का नया अध्यक्ष हमारे परिवार से बाहर का चुना जाना चाहिए.’ मई, 2019 की उस बैठक में उपस्थित प्रियंका गांधी ने भाई के बचाव में कहा था कि हार के लिए किसी एक व्यक्ति को ही उत्तरदायी नहीं ठहराना चाहिए और राहुल की इस बात से सहमति जतायी थी कि पार्टी का नया अध्यक्ष गांधी परिवार से बाहर का हो. प्रियंका की यही बात उक्त पुस्तक में है. अब जब सोनिया गांधी का कार्यवाहक अध्यक्ष का कार्यकाल समाप्त हो रहा है और राहुल गांधी के पुन: अध्यक्ष बनने की संभावनाओं पर चर्चा हो रही है, तो प्रियंका का यह पुराना कथन प्रासंगिक हो जाता है.

पहले राहुल की जगह प्रियंका के अध्यक्ष बनने की अटकलें लगती रहती थीं. वह सदा इनकार करती रहीं. इस बयान के बाद और साफ हो गया कि वे कमान नहीं संभालेंगी. कांग्रेस के भीतर इस पद की महत्वाकांक्षा पाले नेताओं की कमी नहीं है, लेकिन आज तक किसी ने सामने आने का साहस नहीं किया. स्वतंत्रता के पश्चात जो असंभव-सा माना जाता रहा है- क्या कोई गैर-गांधी सचमुच कांग्रेस के सर्वोच्च पद पर बैठेगा? यही सबसे बड़ा सवाल है. साठ के दशक से ही कांग्रेसियों की समस्या यह रही कि वे पूरी तरह नेहरू-गांधी वंश पर आश्रित हो गये.

इंदिरा गांधी के बाद तो यह संभावना ही नहीं रही कि परिवार के बाहर का कोई अध्यक्ष बनने की सोच सकता है. राजनीति में आने के लिए सर्वथा अनिच्छुक राजीव गांधी को लाया जाना और उनकी दुर्भाग्यपूर्ण हत्या के बाद कांग्रेसियों की आतुर ‘सोनिया-सोनिया’ पुकार में यह लाचारी प्रकट होती रही. सोनिया ने 2004 में प्रधानमंत्री पद का त्याग किया, लेकिन कांग्रेस और यूपीए की प्रमुख वे बनी रहीं. राहुल के इस्तीफे के बाद कार्यवाहक अध्यक्ष भी बिना किसी आनाकानी के बन गयीं.

गौरतलब है कि राहुल और प्रियंका की इस सहमति के बाद भी, कि पार्टी का अध्यक्ष कोई गैर-गांधी बने, सोनिया ने इस बारे में कभी मुंह नहीं खोला. लगता नहीं कि वे इस राय से सहमत हैं. मान लिया कि अब सोनिया भी ‘परिवार से बाहर के अध्यक्ष’ की बात कह दें, तो क्या पार्टी को एक रखते हुए कांग्रेसी अपने बीच से नेता चुनने का साहस दिखा पायेंगे! कांग्रेस आज जहां है, उसके संकेत राजीव गांधी की चमत्कारिक विजय और ‘मिस्टर क्लीन’ छवि के बावजूद 1985 से ही दिखने लगे थे.

उन्होंने स्वयं मुंबई में पार्टी के शताब्दी अधिवेशन में कहा था कि कांग्रेस दलालों की पार्टी बन गयी है. उनका वादा था कि वे उसे दलालों के चंगुल से मुक्त करके जनता से जोड़ेंगे. विडंबना ही है कि राजीव सर्वथा असफल रहे, बल्कि उसी परंपरा के वाहक बने. यह निरंतर खोखली होती कांग्रेस का सौभाग्य ही था कि तब से लेकर 2014 तक उसे किसी अखिल भारतीय प्रतिद्वंद्वी की चुनौती नहीं मिली. बेमेल गठबंधनों के प्रयोगों की असफलता के बाद वह बार-बार सत्ता में लौट आती रही.

आज उसे ऐसे नेता की आवश्यकता है जो उसमें प्राण फूंक सके, कांग्रेसी-मूल्यों की पुनर्स्थापना करके जनता को बेहतर विकल्प के प्रति आश्वस्त कर सके और नरेंद्र मोदी की टक्कर में खड़ा हो सके. नेतृत्व कौशल के धनी कई कांग्रेसी होंगे, लेकिन क्या पार्टी गांधी परिवार की तरफ टकटकी लगाना छोड़ेगी? सक्षम नेतृत्व के अभाव के कारण ही कई प्रतिभाशाली युवा कांग्रेस की डगर-मगर नाव से छलांग लगा चुके हैं. कांग्रेस के विरुद्ध भाजपा का सबसे बड़ा आरोप परिवारवाद ही है.

इंदिरा गांधी की तरह नेतृत्व की चमत्कारिक क्षमता हो, तो इस आरोप की धार कुंद हो जाती, लेकिन राहुल यह साबित नहीं कर सके. परिवार से बाहर नेतृत्व तलाशने में कांग्रेसियों को सबसे बड़ी आशंका पार्टी के बिखर जाने की है. इस भय से उबरने का यही सबसे उचित समय है. कांग्रेस को अपने अस्तित्व के लिए और देश को सशक्त विपक्ष के लिए इसकी बहुत आवश्यकता है. लाख टके का प्रश्न फिर यही कि राहुल और प्रियंका की राय पर अमल कैसे होगा?

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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