अर्थव्यवस्था में स्वयं सहायता समूहों का महत्व
स्वयं सहायता समूहों द्वारा ग्रामीण भारत समृद्धि की ओर बढ़ रहा है. यदि इसे थोड़ा और व्यवस्थित किया जाए और इसमें लोगों को प्रशासनिक एवं प्रबंधन के साथ जोड़ा जाए, तो परिणाम और सकारात्मक आयेंगे.
स्वयं सहायता समूह समान सामाजिक व आर्थिक पृष्ठभूमि के 10-20 सदस्यों का एक स्वैच्छिक संगठन होता है, जो समूह के लोगों की आर्थिक स्थिति मजबूत करने के साथ उन्हें समाज में प्रतिष्ठा भी दिलवाता है. भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा अब भी बैंक और अन्य वित्तीय सुविधाओं से वंचित है. ऐसे में ये समूह लोगों की जिंदगी बेहतर बनाने में खासा मददगार साबित हो रहे हैं. देश के छह लाख गांवों में से केवल 30 हजार गांवों में बैंकों की शाखाएं हैं.
लोग अपनी छोटी-मोटी जरूरतें पूरी करने के लिए सूदखोरों के पास ही जाते हैं. दरअसल उन्हें कहीं जाने की जरूरत नही हैं. जरूरत है, तो बस अपने पास-पड़ोस को संगठित कर स्वयं सहायता समूह बनाने की. इस योजना में पहले 10-20 लोग एक समूह बनाते हैं और आपस में चंदा जमा कर कुछ धन एकत्र करते हैं. फिर ये लोग उस धन से आपस में कर्ज देते हैं और वसूलते हैं.
भारतीय समाज में स्वयं सहायता समूह की अवधारणा पुरानी है और खासकर ग्रामीण भारत में लोग आपसी सहयोग से अपना व्यवसाय आगे बढ़ाते थे, लेकिन आधुनिक युग में ऐसे समूह की उत्पत्ति 1968 से देखने को मिलती है. अब ऐसे समूह को बैंकों के साथ जोड़ा गया है और उसे प्रभावी बनाने के लिए अधिक पेशेवर बनाया गया है. गांव में किसी कार्य में मदद लेने और देने की परंपरा सदियों से रही है. सामुदायिकता गरीब व सामाजिक तौर से पिछड़े वर्गों में आज भी किसी-न-किसी रूप में विद्यमान है.
स्वयं सहायता समूहों की अवधारणा वित्तीय संकट में सहयोग, लघु आर्थिक बचत और वित्त पोषण से कहीं अधिक सामाजिक प्रतिपूरक व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा है. सामाजिक ताने-बाने में इन समूहों के निर्माण व उनके क्रिया-कलाप निश्चित रूप व आकार ग्रहण करते हैं. वर्तमान में इन समूहों को बाजारोन्मुखी बनाने की कवायद जारी है.
आधुनिक स्वयं सहायता समूह में ऐसे समुदाय, जिनकी आर्थिक एवं सामाजिक पहलुओं में समानता हो, एक छोटे समूह के माध्यम से अपनी आवश्यकताओं, समस्याओं, भावनाओं, अपेक्षाओं आदि को लेकर निरंतर प्रयास करते हैं. अतः अपनी-अपनी प्रक्रिया में उनके उत्साह को निरंतर जागृत करना एक महत्वपूर्ण कार्य है. दूसरा, समान स्तर के सदस्य वही सीखने का प्रयास करते हैं, जो उन्हें रुचिकर लगता है.
तीसरा, सदस्यगण अपने-अपने ज्ञान के प्रति जागरूकता, अपनी क्षमता को विकसित कर अपने व्यवहार में लाने के प्रति उत्साहित रहते हैं. चौथा, इसके सदस्य मुख्य रूप से अपने समूह द्वारा स्वचालित होकर अग्रसर होने का प्रयास करते हैं. पांचवां, ये दूसरों को भी विकास की ओर लाना चाहते हैं. गांवों में बड़ी आबादी का प्रमुख पेशा खेती है.
ऐसे में ग्रामीणों को अनेक समस्याएं होती हैं. पहली, उनके पास अतिरिक्त आय का कोई साधन नहीं होता है. दूसरी, खेती में 5-6 माह तक काम मिलता है, सो बचे समय में ग्रामीणों को आय के लिए विशेष प्रयत्न करना पड़ता है और मजबूर होने पर इन्हें अपनी संपत्ति भी गिरवी रखनी पड़ती है. यदि अन्य समस्याएं (बीमारी, मृत्यु, पर्व, शादी) आ जायें, तो बंधक रखने की सीमाएं बढ़ जाती हैं. बैंक शाखाओं का वृहद नेटवर्क होते हुए भी ग्रामीणों की पहुंच वहां तक नहीं हो पाती. बैंक वाले भी इन्हें ऋण देने से मना करते हैं.
इस संकट से उबरने के लिए कुछ लोग मिलकर अपनी छोटी आय से थोड़ी-थोड़ी बचत कर अच्छी पूंजी खड़ी कर सकते हैं और एक-दूसरे की मदद कर सकते हैं. यहीं से स्वयं सहायता समूह की अवधारणा का विकास होता है. अनौपचारिक ऋण प्रणाली के लचीलेपन, सुग्राह्यता, अनुक्रियाशीलता जैसे गुणों को औपचारिक ऋण संस्थाओं के साथ संयोजित करने और ऋण वितरण प्रणाली में सकरात्मक नवीनताएं लाने की दृष्टि से राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक ने फरवरी, 1992 में स्वयं सहायता समूहों को वाणिज्य बैंकों से जोड़ने के लिए पायलट परियोजना प्रारंभ की थी, जिसमें बाद में सहकारी बैंकों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को भी शामिल कर लिया गया.
इन दिनों लगभग सभी प्रांत सरकारें ऐसे समूहों का निर्माण करा उन्हें सरकारी तौर पर संरक्षित कर रही हैं. बिहार व झारखंड में भी स्वयं सहायता समूहों ने ग्रामीण आबादी को आर्थिक संबल प्रदान किया है. आजीविका मिशन के नाम से झारखंड में इस समूह को विस्तार दिया जा रहा है. जीविका के नाम से बिहार में समूह का निर्माण किया जाता है. दोनों प्रांतों के लगभग प्रत्येक गांव में इसकी पहुंच हो चुकी है. खासकर ग्रामीण महिलाओं को इन दोनों संस्थाओं ने आर्थिक मजबूती दी है.
इन समूहों द्वारा ग्रामीण भारत समृद्धि की ओर बढ़ रहा है. यदि इसे थोड़ा और व्यवस्थित किया जाए और इसमें लोगों को प्रशासनिक एवं प्रबंधन के साथ जोड़ा जाए, तो परिणाम और सकारात्मक आयेंगे. सामाजिक सरोकारों से जुड़ी इन संस्थाओं को बाजार की मांग और उसके अनुरूप तकनीक से संवर्धन कर प्रतियोगिता में आगे लाने की तीव्र आवश्यकता है. इस क्षेत्र में गैर सरकारी संगठनों को भी बड़े पैमाने पर सहयोग करने की जरूरत है. भारत की बड़ी कंपनियों को भी इससे जुड़ना चाहिए. यदि ऐसा हो गया, तो भारत सचमुच दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बनकर उभरेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)